परम पावन दलाई लामा का जन्म ६ जुलाई १९३५ को उत्तरी तिब्बत के आमदो के एक छोटे गाँव तकछेर में एक कृषक परिवार में हुआ था। उनका नाम ल्हामो दोनडुब था, जिसका शाब्दिक अर्थ ‘सिद्धार्थ देवी' है। तकछेर (शेर गर्जन) एक विस्तृत घाटी पर समक्ष पहाड़ी पर स्थित एक छोटा गांव था। एक लंबे समय से इस चारागाह में खेती न की गई थी केवल खानाबदोशों द्वारा इस पर चरवाने का काम होता था। इसका कारण उस क्षेत्र के मौसम की अनिश्चितता थी। परम पावन अपनी आत्मकथा में लिखते हैं, "मेरे प्रारंभिक बाल्यकाल के दौरान मेरा परिवार उन बीस परिवारों में से एक था, जो वहाँ की भूमि पर कठिनाई से जीवन-यापन करता था।"।
परम पावन के माता-पिता छोटे कृषक थे, जो अधिकतर जौ, एक प्रकार का गेहूँ और आलू का उत्पादन करते थे। उनके पिता मध्यम कद के गर्म मिज़ाज़ वाले व्यक्ति थे। परम पावन स्मरण करते हैं कि "मुझे एक बार उनकी मूंछें खींचकर और उसके लिए मार खाना याद है, पर फिर भी वे एक दयालु व्यक्ति थे और उन्होंने कभी भी मन में बैर न रखा।" परम पावन अपनी मां को याद करते हुए कहते हैं कि निस्संदेह जितने लोगों को उन्होंने जाना है उन सबमें अपनी मां को सबसे करुणाशील पाया है। उन्होंने सोलह बच्चों को जन्म दिया, जिनमें सात जीवित बचे।
परम पावन की दो बहनें और चार भाई थे। सबसे बड़ी संतान छेरिंग डोलमा परम पावन से अठारह वर्ष बड़ी थीं। परम पावन के जन्म के समय उन्होंने घर के कार्य में मां की सहायता की और दाई का दायित्व निभाया। "जब उन्होंने मेरा प्रसव कराया तो उन्होंने देखा कि मेरी आँखों में से एक ठीक से खुली न थी। बिना झिझक के उन्होंने अपने अंगूठे से बिना कोई हानि पहुँचाए मेरी पलक खोल दी," परम पावन वर्णन करते हैं। उनके तीन बड़े भाई थे: थुबतेन जिगमे नोरबू - सबसे जेष्ठ, जिन्हें एक उच्च लामा तकछेर रिनपोछे के पुनर्जन्म के रूप में पहचाना गया, ज्ञालो दोनडुब और लोबसंग समतेन। सबसे छोटे भाई, तेनज़िन छोज्ञल को भी एक अन्य उच्च लामा, ङारी रिनपोछे के पुनर्जन्म के रूप में मान्यता दी गई।
परम पावन लिखते हैं, "निस्संदेह, किसी के मन में यह विचार भी न उठा था कि मैं साधारण बच्चे के अतिरिक्त कुछ और हो सकता हूँ। यह बात लगभग सोच से परे थी कि एक ही परिवार में एक से अधिक टुल्कु (अवतरित लामा) पैदा हो सकते थे और निश्चित रूप से मेरे माता-पिता यह बिलकुल न जानते थे कि मुझे दलाई लामा घोषित किया जाएगा"। यद्यपि परम पावन के जन्म के समय उनके पिता का बहुत गंभीर बीमारी से ठीक होना शुभ था, पर इसे बहुत महत्वपूर्ण नहीं माना जा सकता था। "इसी प्रकार मुझे भी कोई विशेष सूचना नहीं थी कि मेरे समक्ष क्या है। मेरी सबसे पुरानी स्मृतियाँ बहुत साधारण थीं।" परम पावन अपनी पुरानी यादों में बच्चों के एक समूह को लड़ते हुए देखना और कमजोर पक्ष में शामिल होने के लिए भागने का स्मरण करते हैं।
"एक बात जो मुझे याद है कि जब मैं छोटा बच्चा था तो अपनी माँ के साथ चूज़ों के पिंजड़े में जाकर अंडे इकट्ठा करने और वही रुकने में मुझे बड़ा आनन्द आता था। मुझे मुर्गियों के घोंसले में बैठ कर कुक कुक की आवाज़ करना बहुत अच्छा लगता था। एक शिशु के रूप में एक बात जो मुझे बहुत अच्छी लगती थी वह था थैले में सामान बांधना, मानो कि मैं कहीं लंबी यात्रा पर जा रहा हूँ। मैं कहता रहता था कि मैं ल्हासा जा रहा हूँ, मैं ल्हासा जा रहा हूँ। यह और इसके साथ मेरा यह आग्रह, कि मुझे मेज के मुखिया के रूप में बैठने की इजाजत दी जानी चाहिए, को बाद में इस संकेत के रूप में माना गया कि संभवतः मुझे यह मालूम था कि मैं अधिक बड़ी बातों के लिए नियत था"।
परम पावन तिब्बत के पहले तेरह दलाई लामाओं के वर्तमान अवतार माने जाते हैं (प्रथम का जन्म १३९१ ईसा में हुआ था), जो अवलोकितेश्वर या चेनेरेज़िग का रूप हैं, जो कि करुणा के बोधिसत्त्व श्वेत पद्मधर हैं। इस तरह परम पावन अवलोकितेश्वर के प्रतीक भी माने जाते हैं, बल्कि उस वंशावली के ७४वें, जो बुद्ध शाक्यमुनि के समय के एक ब्राह्मण लड़के तक जाता है। "मुझसे प्रायः पूछा जाता है कि क्या मैं वास्तव में इस पर विश्वास करता हूँ। उत्तर देना सरल नहीं है। परन्तु एक छप्पन वर्ष के व्यक्ति के रूप में जब मैं इस वर्तमान जीवन के दौरान अपने अनुभव पर चिंतन करता हूँ और अपने बौद्ध विश्वासों को रखते हुए मुझे यह स्वीकार करने में कोई कठिनाई नहीं है कि मैं आध्यात्मिक रूप से पिछले तेरह दलाई लामाओं, अवलोकितेश्वर से लेकर स्वयं बुद्ध से जुड़ा हूँ"।
दलाई लामा के रूप में खोज
जब ल्हामो दोनडुब दो वर्ष का था तो दलाई लामा के नए अवतार का पता लगाने के लिए तिब्बती सरकार द्वारा भेजी गई एक खोज पार्टी कूबुम विहार पहुँची। वहाँ पहुँचने के लिए कई संकेत मिले। इनमें से एक उनके पूर्ववर्ती, तेरहवें दलाई लामा, थुबतेन ज्ञाछो का संरक्षित शरीर था जिनकी १९३३ में सत्तावन वर्ष की आयु में मृत्यु हो चुकी थी। ममीकरण प्रक्रिया के दौरान, जो सिर दक्षिण दिशा की ओर था वह उत्तर-पूर्व में घूम गया। उसके कुछ समय बाद रीजेंट, जो स्वयं एक वरिष्ठ लामा थे, को एक दृष्टि प्राप्त हुई। दक्षिणी तिब्बत में पवित्र झील, ल्हामो का ल्हाछो के जल को देखते हुए उन्होंने स्पष्ट रूप से तिब्बती अक्षर आ, क और म को देखा। इसके बाद उन्हें तिमंजलीय विहार की छवि दिखी जिसकी छत फ़िरोज़ी और सुनहरी थी और वहाँ से पहाड़ी तक का एक रास्ता था। अंत में, उन्होंने अजीब आकार के छत वाला एक छोटा घर देखा। उन्हें यह लेकर सुनिश्चितता थी कि आ अक्षर का संबंध पूर्वोत्तर प्रांत अमदो से था, अतः वहाँ यह खोजी दल भेजा गया।
जब तक वे कूबुम पहुँचे तो खोजी दल के सदस्यों ने अनुभव किया कि वे सही मार्ग पर थे। यह स्वाभाविक प्रतीत हुआ कि यदि शब्द आ का संदर्भ अमदो से है तो का को कुमबम विहार का प्रतीक होना चाहिए, जो कि वास्तव में तिमंजिला और फ़िरोज़ी-छत का था। उन्हें अब मात्र एक पहाड़ी और अजीब नाली वाली छत के घर ढूँढने की आवश्यकता थी। अतः उन्होंने पड़ोसी गांवों को खोजना शुरू कर दिया। जब उन्होंने परम पावन के माता-पिता के घर की छत पर जुनिपर की लकड़ी की उलझी हुई शाखाओं को देखा तो उन्हें यकीन हो गया कि नए दलाई लामा दूर नहीं थे। फिर भी, अपनी यात्रा का उद्देश्य प्रकट करने के बजाय, समूह ने मात्र रात में आश्रय पाने की इच्छा प्रकट की। समूह के नेता केऊछंग रिनपोछे ने एक सेवक का भेष बनाकर संध्या का अधिकांश समय घर के सबसे कम उम्र के बच्चे के साथ उसे देखते और उसके साथ खेलते हुए व्यतीत किया।
बच्चे ने उन्हें पहचान लिया और "सेरा लामा, सेरा लामा" कहते हुए उन्हें आवाज़ दी। सेरा केऊछंग रिनपोछे का महाविहार था। अगले दिन वे लौट गए और कुछ दिनों के पश्चात एक औपचारिक प्रतिनियुक्ति के रूप में लौटे। इस बार वे अपने साथ १३वें दलाई लामा से संबंधित कई सारी चीजें लाए थे, साथ में इस तरह की वस्तुएँ भी लेकर आए जो तेरहवें दलाई लामा से संबंधित नहीं थीं। हर अवसर पर शिशु ने ठीक तरह से "यह मेरी है, यह मेरी है" कहते हुए तेरहवें दलाई लामा से संबंधित चीज़ों की पहचान की। इससे खोज दल को यकीन हो गया कि उन्हें नया अवतार मिल गया था। तकछेर के बालक का नए दलाई लामा के रूप में मान्यता प्राप्त होने में अधिक समय न लगा।
बालक ल्हामो दोनडुब को पहले कूबुम विहार ले जाया गया। "अब उसके पश्चात मेरे जीवन का कुछ हद तक दुःखी समय प्रारंभ हुआ", अपने माता-पिता से अलग होने और अपरिचित परिवेश पर चिंतन करते हुए परम पावन ने बाद में लिखा। परन्तु विहारीय जीवन में दो आश्वासन थे। पहला, परम पावन के बड़े भाई लोबसंग समतेन वहाँ पहले से ही थे। दूसरा आश्वासन यह तथ्य था कि उनके शिक्षक एक बहुत ही दयालु वयोवृद्ध भिक्षु थे, जो प्रायः अपने नन्हें शिष्य को अपने चोगे के अंदर बिठाते थे।
ल्हामो दोनडुब अंततः अपने माता-पिता से मिले और उन्होंने साथ मिलकर ल्हासा की यात्रा तय की। पर ऐसा लगभग अठारह महीनों तक नहीं हो पाया, क्योंकि स्थानीय चीनी मुस्लिम सरदार मा बुफेंग ने बड़ी फिरौती राशि के भुगतान के बिना बाल - अवतार को ल्हासा ले जाने से इनकार कर दिया। १९३९ की गर्मियों में ही वे राजधानी ल्हासा एक बड़े दल के रूप में अपने माता-पिता, भाई लोबसंग समतेन, खोज दल के सदस्यों और अन्य तीर्थयात्रियों के साथ रवाना हुए।
ल्हासा की यात्रा में तीन महीने का समय लगा। "जो कुछ भी मैंने देखा था, उस पर आश्चर्य की महान भावना के अतिरिक्त मुझे बहुत कम विवरण याद हैः मैदानी इलाकों में चरते जंगली भैंसों के विशाल झुंड, क्यांग के छोटे समूह (जंगली गधे) और कभी-कभी गोवा और नावा छोटे हिरणों के झुंड, जो इतने हल्के और तेज थे कि वे भूत के समान थे। मुझे समय-समय पर देखे गए हंस के विशाल झुंड के स्वर भी अच्छे लगे"।
हामो दोनडुब के दल का स्वागत वरिष्ठ सरकारी अधिकारियों के एक समूह ने किया और राजधानी के द्वार के बाहर दो मील की दूरी पर डोगुथंग मैदान तक अनुरक्षण किया। अगले दिन एक समारोह आयोजित किया गया जिसमें ल्हामो दोनडुब को उनके लोगों का आध्यात्मिक नेतृत्व प्रदान किया गया। इसके बाद उन्हें लोबसंग समतेन के साथ दलाई लामा के ग्रीष्मकालीन राजभवन नोर्बुलिंगा ले जाया गया जो ल्हासा के पश्चिम में ही था।
१९४० की शीत काल के दौरान ल्हामो दोनडुब को पोतल राजभवन ले जाया गया, जहाँ उन्हें आधिकारिक तौर पर तिब्बत के आध्यात्मिक नेता के रूप में स्थापित किया गया। इसके तुरंत बाद, नए मान्यता प्राप्त दलाई लामा को जोखंग मंदिर ले जाया गया जहाँ उन्हें एक समारोह में श्रमणेर भिक्षु के रूप में दीक्षित किया गया जो टफ्यू नाम से जाना जाता है, जिसका अर्थ है बाल काटना। "अब से मुझे सिर मुंडा कर भिक्षुओं के लाल चीवर पहनना था"। प्राचीन परम्परानुसार परम पावन को अपना नाम ल्हामो दोनडुब त्यागना पड़ा और उन्होंने एक नया नाम जमपेल ङवांग लोबसंग येशे तेनज़िन ज्ञाछो ग्रहण किया।
परम पावन ने अपनी प्राथमिक शिक्षा ग्रहण प्रारंभ किया। नालंदा परम्परा से प्राप्त पाठ्यक्रम में पाँच प्रमुख और पांच गौण विषय शामिल थे। प्रमुख विषयों में तर्कशास्त्र, ललित कला, संस्कृत व्याकरण और चिकित्सा शामिल थे परन्तु बौद्ध दर्शन पर सबसे अधिक बल दिया गया था जिसे आगे पांच श्रेणियों में विभाजित किया गया: प्रज्ञापारमिता, प्रज्ञा की पूर्णता; मध्यमिका, मध्यम मार्ग का दर्शन; विनय, विहारवासियों के अनुशासन का सिद्धांत; अभिधर्म, तत्वमीमांसा; और प्रमाण, तर्कशास्त्र और ज्ञान मीमांसा। पांच गौण विषयों में छन्दस्, नाटक, ज्योतिष, रचना और समानार्थक शब्द शामिल थे।
युवा रूप में दलाई लामा
१९५० की ग्रीष्म काल के गीति नाट्य उत्सव से पूर्व, परम पावन नोरबुलिंगा स्नान कक्ष से बाहर आ ही रहे थे जब उन्हें लगा कि उनके पैर के नीचे की धरती हिलने लगी है। जैसे जैसे इस प्राकृतिक घटना की व्यापकता की अनुभूति होने लगी लोगों ने स्वाभाविक रूप से यह कहना शुरू किया कि यह एक साधारण भूकंप से कहीं अधिक था: यह एक शगुन था।
दो दिन के बाद रीजेंट तगडग को छमदो स्थित खम के राज्यपाल से एक तार मिला, जिसने चीनी सैनिकों द्वारा तिब्बती सीमा पर छापे की सूचना दी। पहले से ही पिछली शरद ऋतु में चीनी साम्यवादियों ने सीमा-पार से घुसपैठ की थी और जो साम्राज्यवादी हमलों के हाथों से तिब्बत को मुक्त करने की इच्छा जता रहे थे। "अब ऐसा प्रतीत हुआ कि चीनी अपनी धमकी को अच्छा रूप दे रहे थे। अगर ऐसा था तो मुझे अच्छी तरह पता था कि तिब्बत के लिए गंभीर खतरा था क्योंकि हमारी सेना में ८,५०० से अधिक अधिकारी और सिपाही नहीं थे। यह हाल ही में विजयी पीपुल्स लिबरेशन आर्मी (पीएलए) के लिए कोई चुनौती नहीं थी"।
दो महीने बाद, अक्टूबर में, ल्हासा में समाचार पहुँचा कि पीपुल्स लिबरेशन सेना के ८०,००० सैनिकों की एक सेना छमदो के पूर्व डिछु नदी पार कर चुकी थी। शीघ्र ही ल्हासा आक्रमणकारियों के समक्ष पराजित होगा। जैसे-जैसे सर्दियों की शुरुआत हुई और बुरे समाचार मिलने लगे, लोगों ने यह सलाह देना प्रारंभ किया कि परम पावन को पूर्ण राजनैतिक अधिकार दिया जाए। सरकार ने नेछुंग भविष्यवाणी कर्ता से परामर्श किया, जो समारोह में तनावपूर्ण बिंदु पर परम पावन के निकट गए और उनकी गोद में समय आ गया है, शब्दों के साथ एक श्वेत स्कार्फ रखा। इस प्रकार १७ नवंबर १९५० को पन्द्रह वर्ष की आयु में परम पावन आधिकारिक तौर पर नोरबुलिंगा राजभवन में आयोजित एक समारोह में तिब्बत के राजनैतिक नेता के रूप में विराजमान हुए।
नवंबर के प्रारंभ में, परम पावन की प्रतिस्थापना के पन्द्रह दिन पहले, उनके सबसे बड़े भाई ल्हासा आ गए थे। "जैसे ही मेरी दृष्टि उन पर पड़ी, मैं समझ गया कि उन्हें बड़े कष्ट झेलने पड़े हैं। चूँकि अामदो, जिस प्रांत में हम दोनों का जन्म हुआ था और जिसमें कूबुम स्थित है चीन के इतने निकट है कि वह साम्यवादियों के नियंत्रण में शीघ्र ही आ गया था। उन्हें उनके विहार में लगभग एक बंदी के रूप में रखा गया था। उसी समय, चीनियों ने उन्हें नए साम्यवादी सोच में ढालने की कोशिश की और उन्हें अपने कारणों में शामिल करने का प्रयास किया। उनकी योजनानुसार अगर वह चीनी शासन को स्वीकार करने के लिए मुझे मना लें तो ल्हासा जाने के लिए वे उन्हें स्वतंत्र कर देंगे। यदि मैंने विरोध किया तो उन्हें मेरी हत्या करनी होगी। फिर वे उन्हें पुरस्कृत करेंगे।"
सत्ता में आने के अवसर को चिन्हित करने के लिए, परम पावन ने एक सामान्य क्षमा दी जिससे सभी कैदियों को मुक्त कर दिया गया।
१५ वर्षीय दलाई लामा द्वारा स्वयं को एक बड़े पैमाने पर युद्ध की धमकी का सामना कर रहे छह लाख लोगों के निर्विवाद नेता के रूप में पाए जाने के किंचित समय के बाद ही परम पावन ने अपने दो नए प्रधान मंत्री नियुक्त किए। लोबसंग टाशी, भिक्षु प्रधान मंत्री और एक अनुभवी प्रशासक लुखंगवा, जन साधारण प्रधान मंत्री बने।
फिर, दो प्रधानमंत्रियों और संसद के परामर्श से परम पावन ने तिब्बत की ओर से हस्तक्षेप करने के लिए इन देशों को मनाने की आशा में विदेशी देशों अमेरिका, ग्रेट ब्रिटेन और नेपाल में प्रतिनिधिमंडल भेजने का निर्णय लिया। एक और वापसी के लिए बातचीत करने की आशा में चीन जाने वाला था। ये मिशन वर्ष के अंत तक रवाना हुए। "कुछ समय बाद, चीनियों द्वारा पूर्व में अपनी शक्ति को मजबूत करने के साथ, हमने निर्णय लिया कि मुझे सरकार के सबसे वरिष्ठ सदस्यों के साथ दक्षिणी तिब्बत जाना चाहिए। इस तरह यदि स्थिति खराब हुई तो मैं सरलता से भारत के साथ सीमा पार से निर्वासन की खोज कर सकता था। इस बीच लोबसंग टाशी, लुखंगवा को कार्यकारी क्षमता में रहना था"।
रेट ब्रिटेन और अमेरिका द्वारा तिब्बत के मामले में दिखाई गई उदासीनता से निराश होकर, एक पूर्ण पैमाने पर चीनी आक्रमण से बचने के अंतिम प्रयास के रूप में परम पावन ने खम के राज्यपाल ङफो ङवंग जिगमे को चीन के साथ संवाद स्थापित करने के लिए बीजिंग भेजा।
तिब्बत पर आक्रमण करने के लिए चीनी नेतृत्व को समझाने के सौंपे गए कार्य के अतिरिक्त प्रतिनिधिमंडल को समझौते तक पहुँचने का अधिकार नहीं दिया गया था। परन्तु एक शाम जब परम पावन अकेले बैठे थे तो रेडियो पर एक कठोर आवाज़ ने घोषणा की कि उस दिन (२३ मई १९५१) तिब्बत के शांतिपूर्ण मुक्ति के लिए एक सत्रह-बिंदु 'समझौते' पर पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना सरकार के प्रतिनिधियों ने और जो नाम उन्होंने दिया- तिब्बत की स्थानीय सरकार ने हस्ताक्षर कर दिए थे। जैसा बाद में ज्ञात हुआ कि चीनी, जिन्होंने जाली तिब्बती मुहर बनाई थी, ने समझौते पर हस्ताक्षर करने के लिए ङफो के नेतृत्व के प्रतिनिधिमंडल को मजबूर किया था। प्रभावी तौर पर चीनियों ने तिब्बती स्वीकृति जो बंदूक की नोक पर ली गई थी अपनी मातृभूमि तिब्बत लौटने की शर्तों के संबंध में एक बड़ा तख्तापलट हासिल किया था। परम पावन अगस्त १९५१ के मध्य में ल्हासा लौट आए।
पलायन के लिए उलटी गिनती
अगले नौ वर्षों में परम पावन ने एक तरफ चीन द्वारा तिब्बत को एक पूर्ण पैमाने पर सैन्य अधिग्रहण से बचाने का प्रयास किया और दूसरी ओर चीनी आक्रमणकारियों के खिलाफ तिब्बती प्रतिरोध सेनानियों के बीच बढ़ते असंतोष को शांत करने का प्रयास किया। परम पावन ने जुलाई १९५४ से जून १९५५ तक चीन का एक ऐतिहासिक दौरा किया और माओ ज़ेदोंग और अन्य चीनी नेताओं से मुलाकात की, जिनमें चाउ एनलाई, झू तेह और देंग जियाओपिंग शामिल थे। नवंबर १९५६ से मार्च १९५७ तक परम पावन ने २५००वीं बुद्ध जयंती उत्सव में भाग लेने के लिए भारत की यात्रा की। जब युवा दलाई लामा १९५८/५९ के शीत काल में ल्हासा में अपनी अंतिम विहारीय परीक्षा दे रहे थे, उस समय उनके लोगों के विरुद्ध बढ़ती क्रूरता की नैराश्यपूर्ण सूचनाएँ निरंतर आ रहीं थीं।
निर्वासन में पलायन
१० मार्च १९५९ को, साम्यवाद चीन के जनरल ज़ंग छेनवु ने चीनी नृत्य मंडली द्वारा एक संगीत नाट्य में सम्मिलित होने के लिए तिब्बती नेता को एक सीधा सादा प्रतीत होने वाला निमंत्रण भेजा। जब निमंत्रण को नई शर्तों के साथ दोहराया गया कि दलाई लामा के साथ तिब्बती सैनिक नहीं होंगे और उनके साथ के अंगरक्षक निशस्त्र होंगे तो ल्हासा के जनमानस में बहुत अधिक चिंता फैली। देखते ही देखते नोरबुलिंगा राजभवन के आसपास हजारों तिब्बतियों की भीड़ इकट्ठी हुई, जो अपने युवा नेता के जीवन के लिए किसी भी खतरे को विफल करने और परम पावन को जाने से रोकना चाहती थी।
१७ मार्च १९५९ को नेछुंग भविष्यवाणी कर्ता के साथ परामर्श के दौरान परम पावन को देश छोड़ने का स्पष्ट निर्देश दिया गया। भविष्यवाणी कर्ता के निर्णय की पुष्टि उस समय हुई, जब परम पावन द्वारा किये गये भविष्य कथन का भी वही उत्तर मिला, यद्यपि एक सफल पलायन के समक्ष बाधाओं का रूप विकराल जान पड़ा।
शाम को दस बजने के कुछ मिनट पहले एक साधारण सैनिक के रूप में वेश बदलकर परम पावन एक छोटे से अनुरक्षक दल के साथ लोगों की भारी भीड़ के बीच से निकलकर क्यीछू नदी की ओर गए जहाँ उनके दल के अन्य सदस्य जिनमें कुछ परिवार के सदस्य भी थे, उनके साथ जुड़ गए।
निर्वासन में
३० मार्च १९५९ को ल्हासा से पलायन के तीन सप्ताह बाद, परम पावन और उनका दल भारतीय सीमा पर पहुँचा जहाँ से भारतीय पहरेदारों ने वर्तमान भारतीय राज्य अरुणाचल प्रदेश के बोमदिला शहर में उनका अनुरक्षण किया। भारत सरकार पहले से ही भारत में परम पावन और उनके अनुयायियों को शरण देने के लिए सहमत हो चुकी थी। २० अप्रैल १९५९ को मसूरी पहुँचने के तुरंत बाद, परम पावन ने भारतीय प्रधान मंत्री से मुलाकात की और दोनों ने तिब्बती शरणार्थियों के पुनर्वास के बारे में चर्चा की।
तिब्बती शरणार्थियों के बच्चों के लिए आधुनिक शिक्षा के महत्व को अनुभूत करते हुए, परम पावन ने नेहरू को भारतीय शिक्षा मंत्रालय के अंदर ही तिब्बती शिक्षा के लिए एक विशेष खंड बनाने की आवश्यकता पर जोर दिया। भारत सरकार तिब्बती बच्चों के लिए स्कूलों की स्थापना के लिए सभी खर्च वहन करने पर सहमत हुई।
यह सोचकर कि उनके द्वारा चुनी गई चुप्पी को तोड़ने का समय परिपक्व हो चुका था, परम पावन ने २० जून १९५९ को एक प्रेस सम्मेलन बुलाया, जिस दौरान उन्होंने औपचारिक रूप से सत्रह बिंदु समझौते को खारिज कर दिया। प्रशासन के क्षेत्र में भी, परम पावन महत्वपूर्ण परिवर्तन करने में सक्षम हुए। उन्होंने विभिन्न नए तिब्बती प्रशासनिक विभागों का निर्माण किया। इनमें सूचना, शिक्षा, गृह, सुरक्षा, धार्मिक मामलों और आर्थिक मामलों के विभाग शामिल थे। अधिकांश तिब्बती शरणार्थी, जिनकी संख्या लगभग ३०,००० हो गई थी, को उत्तरी भारत की पहाड़ियों में सड़क निर्माण शिविरों में ले जाया गया।
१० मार्च १९६० को केन्द्रीय तिब्बती प्रशासन में शामिल लगभग अस्सी अधिकारियों के साथ धर्मशाला के लिए रवाना होने से पहले परम पावन ने तिब्बती लोगों की क्रांति की प्रथम वर्षगांठ पर एक बयान दिया। "इस प्रथम अवसर पर मैंने अपने लोगों से तिब्बत की स्थिति पर दीर्घ कालीन दृष्टिकोण की आवश्यकता पर बल दिया। मैंने कहा कि निर्वासन में हम लोगों के लिए प्राथमिकता पुनर्वास और हमारी सांस्कृतिक परंपराओं की निरंतरता होना चाहिए। भविष्य के संबंध में मैंने अपना विश्वास व्यक्त किया कि, हमारे शस्त्रों के रूप में सत्य, न्याय और साहस के साथ हम तिब्बती अंततः स्वतंत्रता बहाल करने में सफल होंगे"।