तिब्बत के चौदहवें दलाई लामा द्वारा रचित एक प्रार्थना
नमो रत्नत्रयाय
अपरिमित गुण सागर की श्री से युक्त
असहाय सत्त्वों को इकलौता पुत्रवत् समझने वाल
त्रिकाल के सुगत, बोधिसत्त्व और शिष्य
मेरा यह सत्य परिदेव सुनने की कृपा करें ।।
भव तथा शान्ति के संताप को हरने वाला यह सम्पूर्ण मुनि शासन
बृहत् विश्व के हित तथा सुख के लिए फैल जाएँ ।
उसे धारण करने वाले विद्वान तथा सिद्ध पुरुषों की
दशधर्मचर्या के कार्य में वृद्धि हो ।।
घोर दुश्कर्मों के तीव्र आक्रान्त से
निरन्तर दुःखों से पीड़ित ये असहाय सत्त्व ।
दुःसह रोग, अस्त्र, अकाल के समस्त भय
शान्त होकर सुख तथा आनन्द के सागर में आश्वस्त हो ।।
विशेषकर हिम भूमि के धार्मिक जनों को
अकुशल पक्ष के म्लेच्छ बलों द्वारा निर्दयता से ।
जारी अत्याचारों से गिर रहे रक्त व अश्रु प्रवाह को
अविलंब विराम के लिए, करुणा शक्ति को प्रबल करें ।।
क्लेशों के ग्रहों से उन्मत्त होकर कर्कश आचरण द्वारा
स्व तथा पर का विनाश करने वाले करुणा के पात्र ।
उन खल पुरूषों को हेयोपादेय के चक्षु
प्राप्त होकर मैत्री तथा दया से, प्रेम में प्रयुक्त हो ।।
दीर्घ काल से हृदय की संकल्पित कामना
सम्पूर्ण तिब्बत का पूर्ण स्वराज्य ।
प्राप्त होकर धार्मिक तथा राजनीतिक युगनद्ध के उत्सव
उपभोग की सौभाग्य शीघ्र प्रदान करें ।।
शासन, शासनधर, राजनीति और राष्ट्र के लिए
अपने सबसे प्रिय देह, प्राण तथा सम्पत्ति परित्याग कर ।
उन अनगिनत दुष्कर दुःखों को झेलने वाले उन्हें
पोतलनाथ, करुणा से पालन करें ।।
संक्षेप में, नाथ अवलोकितेश्वर ने
बुद्ध तथा बोधिसत्त्वों के समक्ष हिम भूमि को ।
परिग्रहण के जो विपुल प्रणिधान किए गए
उसका सुफल आज यहाँ शीघ्र उदय हो ।।
शून्य तथा आभास धर्मता के गहन प्रतीत्यसमुत्पाद से
त्रिरत्न की करुणा शक्ति तथा सत्य वचन के बलों से ।
अवञ्चना कर्म और कर्मफल की अचूक शक्ति से
हमारी सत्य का प्रणिधान बिना बाधायें शीघ्र सिद्ध हो ।।