अंतिम पद में, हम पढ़ते हैं:
यह सभी मलिन न हो
आठ लोक धर्म के दाग से
और सभी धर्मों को माया जानकर
लालसा की बन्धन से मुक्त हो।
एक सच्चे अभ्यासी के िलए इस पद की पहली दो पंक्तियाँ बहुत महत्त्वपूर्ण हैं। आठ लोक धर्म वे व्यवहार हैं जो आम तौर पर हमारे जीवन पर हावी होती है। वे हैं: यदि कोई आपकी प्रशंसा करे तो अत्यधिक उल्लसित होना, और यदि कोई आपका अपमान करे या आपको तुच्छ समझे तो निराशा से भर जाना, सफलता का अनुभव होने पर आपका प्रसन्न होना, असफलता के अनुभव पर आपका निराश होना, जब आपको धन की प्राप्ति हो तो आनंदित होना, जब आप निर्धन हों तो मायूस हो जाना, ख्याति मिलने पर आप खुश हों और जब आप को मान्यता न मिले तो नैराश्य में डूब जाएँ।
एक सच्चे अभ्यासी को सुनिश्चित करना चाहिए कि उसकी परोपकारिता का विकास इन विचारों से अशुद्ध नहीं हो। उदाहरणार्थ, जैसे मैं अभी यह प्रवचन दे रहा हूँ, यदि मेरे अंतःमन में अल्प मात्र भी ऐसा विचार है कि मैं आशा करता हूँ कि लोग मेरी प्रशंसा कर रहे हैं तो वह संकेतित करता है कि मेरी प्रेरणा लोक धर्म से क्लेशित है या फिर जिस नाम से तिब्बती जानते हैं "आठ लोक धर्म।" यह अत्यंत महत्त्वपूर्ण है कि आप स्वयं परीक्षण करें और सुनिश्चित करें कि ऐसा नहीं है। इसी तरह, एक अभ्यासी अपने दैनिक जीवन में परोपकारी आदर्शों को लागू कर सकता है, पर यदि अचानक इसे लेकर उसका मन दर्पयुक्त हो जाए और यह सोचे कि , "आह , मैं एक महान अभ्यासी हूँ" तो तत्काल आठ लोक धर्म उसके अभ्यास को मलिन कर देगी। यही उस सबंध में भी लागू होगी जब एक अभ्यासी अपने द्वारा िकए जा रहे महान प्रयास को लेकर यह सोचे कि "मैं आशा करता हूँ कि मैं जो कुछ कर रहा हूँ लोग उसकी प्रशंसा कर रहे हैं।" यह सभी लोक धर्म हैं जो किसी के भी अभ्यास को बिगाड़ती है, और यह सुनिश्चित करना महत्त्वपूर्ण है कि ऐसा न हो और हम अपने अभ्यास को विशुद्ध रख सकें ।
जैसा आप देख सकते हैं कि लो-जोंग अभ्यास में चित्त शोधन के अभ्यास बहुत प्रबल हैं। वे आपको चिंतन के लिए बाध्य करते हैं। उदाहरण के लिए एक अनु्च्छेद है जिसमें कहा गया है :
मैं प्रसन्न होऊँ यदि कोई मुझे तुच्छ माने, और मैं आनंद से न भर उठूँ यदि कोई मेरी प्रशंसा करे। यदि प्रशंसा मुझको आनंदित करे तो वह तत्काल मेरे अहंकार, अभिमान, और दंभ को बढ़ाएगा, पर यदि मैं आलोचना में आनंद लूँ तो वह कम से कम मेरी अपनी कमियों की ओर मेरी आँखें खोलेगा ।
यह वास्तव में एक प्रबल भावना है।
इस बिंदु तक हमने सभी अभ्यासों की चर्चा की है जिसका संबंध “सांवृतिक बोधिचित्त” के विकास से है।जिसे हम सभी सत्वों की कल्याण के लिए प्रबुद्धता प्राप्त करने की एक परोपकारी प्रेरणा कहते हैं। अब आठ पदों की अंतिम दो पंक्तियों का संबंध उस अभ्यास के विकास से है, जो “परमार्थ बोधिचित्त” नाम से जाना जाता है, िजसका संबंध वास्तविकता के परमार्थ प्रकृति की अंतर्दृष्टि के विकास से है।
यद्यपि प्रज्ञा की उत्पत्ति बोधिसत्व आदर्श का एक भाग है, जैसा कि छह पारमिताओं में सन्निहित है, पर साधारणतया जैसा हमने पहले देखा था, बौद्ध मार्ग के दो प्रमुख अंग हैं उपाय और प्रज्ञा। दोनों ही प्रबुद्धता की परिभाषा में सम्मिलित हैं जो कि सिद्ध किए रूप और सिद्ध की गई प्रज्ञा का अद्वैत है। प्रज्ञा या अंतर्दृष्टि का अभ्यास प्रज्ञा पारमिता से संबद्ध है, जबकि उपाय कौशल्य का अभ्यास रूप के पारमिता से संबद्धित है।
बौद्ध मार्ग एक सामान्य रूप रेखा के निहित प्रस्तुत किया जाता है, जो स्थान, मार्ग तथा फल नाम से जाना जाता है। प्रथम हम सत्य की आधारभूत प्रकृति की समझ का विकास करते हैं, जो कि सत्य के दो स्तरों की समझ है, सांवृतिक सत्य तथा पारमार्थिक सत्य, यह स्थान है। फिर वास्तविक मार्ग पर हम क्रमशः उपाय तथा प्रज्ञा के संदर्भ में ध्यान तथा आध्यात्मिक अभ्यास को समग्र रूप में साकार करते हैं। व्यक्ति के आध्यात्मिक मार्ग की अंतिम फल, सिद्ध रूप और सिद्ध प्रज्ञा के अद्वैत के रूप में होती है।
अंतिम दो पंक्तियाँ हैं:
और सभी धर्मों को माया जानकर
लालसा की बन्धन से मुक्त हो।
ये पंक्तियाँ वास्तव में वास्तविकता की प्रकृति की अंतर्दृष्टि के विकास के अभ्यास की ओर संकेत करती है, पर सतही तौर पर वे ध्यान के पश्चात के क्रमों के दौरान विश्व से संबंध बनाने का एक उपाय निरूपित करती है। वास्तविकता की परम प्रकृति की बौद्ध शिक्षाओं में, दो महत्त्वपूर्ण समयावधि में अंतर किया जाता है, एक तो शून्यता पर वास्तविक ध्यान और दूसरा ध्यान सत्र के पश्चात की अवधि, जब आप वास्तविक संसार से सक्रिय रूप से जुड़ते हो। तो, यहाँ इन दोनों पंक्तियों का संबंध शून्य पर ध्यानोपरांत संसार से संबंधित होने के विषय पर है। इसी कारण पाठ माया रूपी वास्तविकता की सराहना करने की बात करता है, क्योंकि व्यक्ति इसी प्रकार एकाग्र रूप से शून्यता पर ध्यान के पश्चात उठने पर धर्मों को समझता है।
मेरे विचार से ये पंक्तियाँ एक बहुत महत्त्वपूर्ण बिन्दु प्रस्तुत करती है क्योंकि कुछ लोगों का यह विचार होता है कि जो महत्त्वपूर्ण है वह है सत्र के अंदर शून्यता पर एकाग्र ध्यान। वे इस बात पर बहुत कम ध्यान देते हैं कि इस अनुभव को ध्यानोपरांत अवधि में कैसे व्यवहृत किया जा सकता है। पर मेरे विचार से ध्यानोपरांत अवधि बहुत महत्त्वपूर्ण है। वास्तविकता की परम प्रकृति पर ध्यान देने का संपूर्ण उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि आप जो दिखाई पड़ते हैं उससे धोखा न खाएँ जो प्रायः भ्रामक हो सकते हैं। वास्तविकता की एक गहरी समझ के साथ, आप दिखावे से परे जा सकते हैं और एक अधिक, उपयुक्त, प्रभावी और यथार्थ रूप से विश्व से जुड़ सकते हैं।
मैं प्रायः यह उदाहरण देता हूँ कि हम अपने पड़ोसियों के साथ कैसे संबंध बना सकते हैं। कल्पना करें कि आप किसी शहर के एक विशेष भाग में रह रहे हैं जहाँ अपने पड़ोसियों से संबंध बनाए रखना लगभग असंभव है, पर फिर भी यह उचित होगा यदि आप उनकी उपेक्षा करने के स्थान पर उनसे संबंध बनाएँ। ऐसा सबसे अधिक बुद्धिमानी से करना इस पर निर्भर होगा कि आप अपने पड़ोसी के व्यक्तित्व को कितनी भली प्रकार समझते हैं। यदि, उदाहरण के लिए यदि आपके पड़ोस का आदमी बहुत साधन संपन्न है, तो उससे मैत्री भाव रखना और संपर्क बनाए रखना आपके हित में होगा। पर साथ ही यदि आप यह भी जानते हैं कि अंदर ही अंदर वह काफी चालाक है तो वह जानना अमूल्य हो सकता है, यदि आप एक सौहार्दपूर्ण संबंध बनाए रखते हुए सतर्क रहना चाहते हैं ताकि वह आपका लाभ न उठा सके। इसी तरह एक बार आपमें वास्तविकता की प्रकृति की गहरी समझ आ जाए, तब ध्यानोपरांत, जब आप वास्तव में संसार में व्यवहार करते हैं, तो आप लोगों से और अधिक उचित रूप और यथार्तता से संबंध जोड़ पाएँगे।
जब ग्रंथ सभी धर्मों को माया रूप में देखने के लिए संदर्भित करता है तो यह सुझाया जा रहा है कि धर्मों की माया प्रकृति तभी अनुभव की जा सकती है जब आप अपने को वस्तुओं को स्वतंत्र विचारशील अस्तित्व के रूप में मानने की लालसा से मुक्त कर चुके हैं। एक बार आप अपने आप को इस प्रकार की लालसा से मुक्त करने में सफल हो गए तो वास्तविकता की माया प्रकृति की अनुभूति सहज ही उत्पन्न होगी। जब भी आपके समक्ष कोई वस्तु दिखाई दे, यद्यपि वह एक स्वतंत्र वस्तुनिष्ठ अस्तित्व रखने वाली जैसी दिखाई देगी, पर आपको अपने ध्यान के परिणाम स्वरूप ज्ञात होगा कि यह वास्तविकता नहीं है। आप में यह चेतना रहेगी कि वस्तुएँ जैसी मज़बूत और ठोस प्रतीत होती है, वैसी नहीं हैं। इसलिए यह शब्द "माया" आप वस्तुओं को जिस रूप में देखते हैं और उनका जो वास्तविक रूप है उसमें असमानता की ओर संकेत करता है।