हमने जितने भी अभ्यासों की चर्चा की है, सातवाँ पद उनका सार देता है। इसमें कहा गया है:
संक्षेप में, मैं लाभ व आनंद दे सकूँ
प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से अपनी सभी माँओं को
गुप्त रूप से ले लूँ िनज पर
अपनी सभी माँओं का दुख व पीड़ा
यह पद एक विशिष्ट बौद्धाभ्यास प्रस्तुत करता है, जो 'देने और लेने के अभ्यास' (तोंग लेन) के रूप में जाना जाता है और देने और लेने की भावना से ही हम परात्मसमता और परात्मपरिवर्तन का अभ्यास कर सकते हैं।
'परात्मपरिवर्तन' को अपने को दूसरे के रूप में और दूसरे को अपने रूप में बदलने के शाब्दिक अर्थ में नहीं लिया जाना चाहिए। यह वैसे भी असंभव है। यहाँ अर्थ है कि व्यक्ति में साधारण तौर पर स्वयं के प्रति और दूसरंों के प्रति जो दृष्टिकोण है उसे उलट दिया जाए। हम आम तौर पर इस तथाकथित आत्मा कहलाने वाले को हमारे अस्तित्व में निहित एक मूल्यवान केन्द्र के रूप मे संबंध जोड़ते हैं, एक ऐसी वस्तु जो देख - रेख करने योग्य है, इस सीमा तक कि हमें दूसरों के कल्याण को अनदेखा करना भी स्वीकार है। इसके विपरीत हमारा दूसरों के प्रति व्यवहार प्रायः उपेक्षा जैसा प्रतीत होता है, बहुत हुआ तो हमें उनके िलए कुछ चिंता हो सकती है पर यह भी संभव है कि यह केवल एक अनुभूति या भावना तक ही सीमित रहे। कुल मिलाकर देखा जाए तो हम दूसरों के कल्याण को लेकर उदासीन रहते हैं और इसे गंभीरता से नहीं लेते। तो इस अभ्यास का प्रमुख बिंदु इस व्यवहार को पलटना है ताकि अपने स्वयं के प्रति हमारी जो ग्राह्यता तथा मोह है उसकी तीव्रता को हम कम कर सकें और दूसरों के कल्याण को महत्त्वपूर्ण समझने का प्रयास करें।
इस प्रकार के बौद्ध अभ्यासों की ओर जाते हुए जहाँ एक सुझाव है कि हम हानि तथा दुख अपने पर लें, मेरे विचार से यह महत्त्वपूर्ण है कि उन पर सावधानी से चिंतन किया जाए और उन्हें उनके उचित संदर्भ में सराहा जाए। वास्तव में यहाँ यह सुझाया जा रहा है कि यदि अपने आध्यात्मिक मार्ग के पालन की प्रक्रिया में और दूसरोें के कल्याण के विषय में सोचने को सीखते हुए, यदि आपको कुछ कठिनाइयाँ, यहाँ तक कि कुछ दुख भी झेलने पड़े, तो इसके िलए आपको पूर्ण रूप से तैयार रहना चाहिए। इस पाठ का कदापि यह अर्थ नहीं कि आपको स्वयं से घृणा करनी चाहिए या स्वयं के प्रति कठोर होना चाहिए अथवा स्वपीड़न कामना करते हुए अपने लिए दुख की इच्छा करना चाहिए। यह जानना महत्त्वपूर्ण है कि यह अर्थ नहीं है।
एक अन्य उदाहरण जिसका हमें अनुचित अर्थ नहीं निकालना चाहिए, वह एक प्रसिद्ध तिब्बती ग्रंथ का एक पद है जिसमें कहा गया है "मुझमें इतना साहस हो कि आवश्यकता पड़ने पर कल्पों कल्पों तक, अनगिनत जीवन, गहनतम नरक लोक में बिता सकूँ।" यहाँ जोे बात कही जा रही है, वह यह है कि आपके साहस का स्तर इस प्रकार का होना चाहिए कि यदि दूसरों का कल्याण की प्रक्रिया में ऐसी आवश्यकता पड़े, तो आपमें स्वीकार करने की इच्छा और प्रतिबद्धता होनी चाहिए।
इन अंशों की सही समझ बहुत महत्त्वपूर्ण है, अन्यथा आप आत्म घृणा की किन्हीं भावनाओं को पुनः सुदृढ़ करने के िलए इसका उपयोग कर सकते हैं, यह सोचते हुए कि यदि आत्म, आत्मकेन्द्रितता का साकार रूप है, तो व्यक्ति को स्वयं को गुमनामी में छोड़ देना चाहिए। यह न भूलें कि अंततः आध्यात्मिक मार्ग के पालन करने की परम प्रेरणा परम सुख को प्राप्त करना है, अतः जैसे कोई अपने लिए सुख खोजता है, व्यक्ति दूसरों के िलए भी सुख खोज रहा है। एक व्यावहारिक दृष्टिकोण से भी किसी के लिए दूसरों के प्रति सच्ची करुणा की भावना विकसित करने के िलए, सबसे प्रथम उसके पास एक आधार होना चाहिए जिस पर वह करुणा का विकास कर सके, और वह आधार अपने स्वयं की भावनाओं से जुड़ने और स्व कल्याण का ध्यान रखने की क्षमता है। यदि कोई यह करने में सक्षम नहीं तो व्यक्ति दूसरों तक कैसे पहुँच सकता है और उनके लिए चिंता का अनुभव कर सकता है? दूसरों की देखभाल के लिए स्वयं की देखभाल आवश्यक है।
तोंग लेन, देने और लेने का अभ्यास, प्रेम - दया और करुणा के अभ्यासों को सम्पुटित करता है: देने का अभ्यास प्रेम - दया पर जोर देता है, जबकि लेने का अभ्यास करुणा के अभ्यास पर बल देता है।
शांतिदेव ने अपने बोधिसत्वचर्यावतार में इस अभ्यास को करने का एक रोचक उपाय सुझाया है। यह ऐसी भावना करना है जो हमें अपनी आत्मकेन्द्रितता की कमियों की सराहना करने में सहायता करता है और हमें इसका सामना करने के उपाय बताता है। एक ओर आप अपने स्वयं के सामान्य आत्म की भावना करें, एक ऐसा आत्म जो पूर्ण रूप से दूसरों के कल्याण के प्रति अभेद्य है और आत्मकेन्द्रितता का साकार रूप है। यह ऐसा आत्म है जिसे केवल अपने हित की चिन्ता है, इस सीमा तक कि यह अहंकार से भरकर प्रायः अपने बोए लक्ष्य को प्राप्त करने हेतु दूसरों का शोषण तक करने के िलए तत्पर रहता है। फिर दूसरी ओर आप एक अन्य सत्वों के दल की भावना करें जो बिना किसी सुरक्षा और शरण के दुख झेल रहे हैं। यदि आप चाहें तो आप किसी विशिष्ट व्यक्ति पर भी अपना ध्यान केन्द्रित कर सकते हैं। उदाहरण के लिए यदि आप किसी की भावना करना चाहते हैं जिन्हें आप अच्छी तरह जानते हैं और उसकी चिन्ता करते हैं और जो दुख झेल रहा है, तब आप उस व्यक्ति को अपनी भावना का विशिष्ट केन्द्र बना सकते हैं और उससे संबंधित देने और लेने का सम्पूर्ण अभ्यास कर सकते हैं। तीसरा आप स्वयं की भावना एक तटस्थ, पक्षपात रहित पर्यवेक्षक तीसरे व्यक्ति के रूप में करें, जो इस आकलन के प्रयास में है कि यहाँ किस का हित अधिक महत्त्वपूर्ण है। तटस्थ पर्यवेक्षक की स्थिति में अपने आप को अलग कर आप के लिए आत्म - केन्द्रितता की सीमाओं को देखना और यह अनुभव करना सरल हो जाता है कि दूसरे सत्वों के कल्याण के प्रति सोचना आपके लिए कितना अधिक न्यायपूर्ण और तर्कसंगत है।
इस भावना के परिणामस्वरूप आप धीरे धीरे अन्य लोगों के साथ एक समानता का अनुभव और उनकी पीड़ा के साथ एक गहरी सहानुभूति महसूस करने लगते हैं, और इस बिंदु पर आप वास्तव में देने और लेने का वास्तविक ध्यान प्रारंभ करते हैं।
लेने पर ध्यान करने के लिए एक और भावना करना प्रायः बहुत सहायक होता है। सबसे प्रथम आप पीड़ित सत्वों पर अपना ध्यान केन्द्रित करें, और उनके प्रति करुणा का विकास और उसकी गहनता को उस िबन्दु तक बढ़ाएँ कि उनकी पीड़ा लगभग असहनीय लगे। पर उसी समय आप अनुभव करते हैं कि व्यावहारिक रूप में उनकी सहायता करने के लिए आप बहुत कुछ नहीं कर सकते। तो अपने को अधिक प्रभावशाली बनाने हेतु प्रशिक्षित करने के लिए, एक करुणाशील प्रेरणा से आप उनके दुख, उनके दुख के कारण, उनके नकारात्मक विचार और भावनाएँ, आदि आदि को स्वयं पर लेने की भावना करें। आप इसे उनके सभी दुख और नकारात्मकता को काले धुएँ की एक धारा के रूप में कल्पित कर इस धुएँ को अपने अन्दर विलय होने की भावना करें।
इस अभ्यास के संदर्भ में आप अपने सकारात्मक गुणों का भी दूसरों के साथ साझा करने की भावना कर सकते हैं। आप अपने द्वारा किए गए किसी भी पुण्य कार्य के बारे में सोच सकते हैं, कोई सकारात्मक क्षमता जो आपमें निहित है, और साथ ही कोई आध्यात्मिक ज्ञान अथवा अंतर्दृष्टि जो आपको प्राप्त हुई हो। उन्हें आप अन्य सत्वों को भेजें ताकि वे भी उसके लाभ का आनंद ले सकें। ऐसा करने के लिए आप अपने गुणों को या तो एक उज्ज्वल प्रकाश अथवा एक श्वेत प्रकाश प्रवाह के रूप में कल्पित कर सकते हैं जो अन्य सत्वों को भेदती हुई उनमें िवलीन हो जाती है। देने और लेने की भावना का अभ्यास इस प्रकार किया जाता है।
निस्संदेह इस प्रकार के ध्यान का दूसरों पर कोई भौतिक प्रभाव नहीं पड़ेगा क्योंकि यह भावना है, पर यह जो कर सकता है वह दूसरों के लिए आपकी चिन्ता और उनके दुख के प्रति आपकी सहानुभूति को बढ़ाना है, और साथ ही साथ आपकी आत्मकेन्द्रितता की प्रबलता को कम भी कर सकता है। इस अभ्यास के ये लाभ हैं।
इस प्रकार अन्य सत्वों की सहायता हेतु परोपकारी आकांक्षा के विकास के लिए आप अपने चित्त का शोधन कर सकते हैं। जब यह पूर्ण प्रबुद्धता प्राप्त करने की प्रेरणा के साथ उत्पन्न होता है तो आप को बोधिचित्त की अनुभूति हो जाती है, अर्थात सभी सत्वों के िलए पूर्ण प्रबुद्धता की परोपकारी प्रेरणा।