अपने हर आचरण में
अपनी चित्त को परीक्षण करुँ ।
और स्व-पर हानिकारक क्लेश उत्पन्न होते ही
उनका बलपूर्वक सामना करके प्रहाण करुँ ।। 3
यह पद वास्तव में उस तत्त्व की बात करता है जिसे बौद्ध धर्म के अभ्यास के सार नाम से जाना जा सकता है। जब हम बुद्ध की शिक्षाओं के संदर्भ में धर्म की बात करते हैं, तो हम निर्वाण या दुःख से मुक्ति की बात कर रहे हैं। दुःख से मुक्ति, निर्वाण अथवा निरोध ही सच्चा धर्म है। निरोध के कई स्तर हैं – जैसे जान लेना या हत्या न करने पर काबू पाना धर्म का एक रूप हो सकता है। पर हम इसे विशिष्ट बौद्ध धर्म नहीं कह सकते क्योंकि हत्या न करने पर काबू रखना एक ऐसी बात है जिसका पालन एक अधार्मिक व्यक्ति भी कानून का पालन करते हुए कर सकता है। बौद्धपरंपरा में धर्म का सार दुःखों और क्लेशों से मुक्ति की अवस्था है जो कि सभी दुःखों के मूल में है। इस पद में बताया गया है इन क्लेशों का सामना कैसे किया जाए। कोई कह सकता है कि एक बौद्ध अभ्यासी के लिए वास्तविक शत्रु अंदर का शत्रु है – यह चैतसिक और भावनात्मक क्लेश। यही भावनात्मक और चैतसिक क्लेश पीड़ा और दुःख को जन्म देते हैं। बौद्ध धर्म अभ्यासी का सच्चा काम इस आंतरिक शत्रु को पराजित करना है। चूँकिधर्म अभ्यास के केन्द्र में इन चैतसिक और भावनात्मक क्लेशों के लिए प्रतिमारक का प्रयोग है और कुछ एक अर्थों में वह उसकी आधारशिला है,तो तीसरा पद सुझाता है कि प्रारंभ से ही सजगता का विकास अत्यंत महत्त्वपूर्ण है अन्यथा यदि आप बिना किसी नियंत्रण के, उनकी नकारात्मकता के प्रति सजग हुए बिना इन नकारात्मकभावनाओं और विचारो को जन्म लेने देंगे तो एक अर्थ में आप उन्हें खुली छूट दे रहे हैं। वे फिर उस सीमा तक बढ़ जाएँगे जहाँ उनके प्रतिरोध का कोई मार्ग न होगा। परन्तु यदि आप उनकी नकारात्मकता के बारे में सजगता का विकास करेंगे, तब जब वे पैदा होंगे तब उनके उत्पन्न होते ही आप उन्हें जड़ से मिटा पाएँगे। आप उन्हें पूर्ण विकसित नकारात्मक भावनात्मक विचार होने का न अवसर देंगे न ही स्थान। जिस रूप में इस पद में प्रतिमारक के उपयोग की बात की गई है, मुझे लगता है कि वह प्रकट हुए और अनुभूत किए गए स्तर पर है। साधारणतया भावना के मूल में जाने के बजाय यहाँ उन प्रतिमारकों के उपयोग की बात सुझाई गई है जो विशेष नकारात्मक भावनाओं के लिए उचित है। उदाहरण के लिए क्रोध का सामना करने के लिए आपको प्रेम व करुणा का अभ्यास करना चाहिए। किसी वस्तु के प्रति प्रबल मोह के लिए आपको उस वस्तु की अशुद्धता, उसकी अनचाही प्रकृति इत्यादि इत्यादि प्रकार के विचार उत्पन्न करने चाहिए। अपने अहंकार और गर्व को मारने के लिए आपको अपनी कमियों के बारे में सोचना चाहिए जो एक विनम्रता की भावना पैदा कर सकती है। उदाहरण के लिए आप दुनिया की सभी वस्तुओं के बारे में सोच सकते हैं जिनके विषय में आप कुछ नहीं जानते। जैसे मेरे सामने बैठे संकेत भाषा अनुवादक को देखिए। जब मैं उसकी ओर देखता हूँ और जिन जटिल संकेतोँ से वह अनुवाद कर रही है,मुझे कुछ नही समझ में आ रहा कि क्या हो रहा है और ऐसा देखना अत्यंत विनम्र करने वाला अनुभव है। मेरे निजी अनुभव के आधार पर जब भी मेरे अंदर थोड़े से गर्व का अनुभव होता है, तो मैं कम्प्यूटर के बारे में सोचता हूँ। यह मुझे वास्तव में शांत कर देता है।
चित्त प्रशिक्षण के आठ पदों मे से यह पहले तीन पद हैं और परम पावन दलाई लामा द्वारा की गई व्याख्या है जो कि 8 नवंबर 1998 को वाशिंगटन डी सी में दी गई।