चित्त शोधन पद २
किसी अन्य के संग व्यवहार करते हुए
मानूँ स्वयं को निम्नतम
और अपने हृदय की गहराइयों से,
सम्मान से मानूँ अन्य को श्रेष्ठ
पहले पद में अन्य सभी सत्वों को मूल्यवान समझने की ओर संकेत किया गया था। दूसरे पद में यह स्पष्ट किया गया है कि अन्य सत्वों को अमूत्य समझते हुए और उस आधार पर आप जो दूसरों के प्रति संवेदनशीलता अनुभव करते हैं, वह दूसरे सत्वों के प्रति दया की भावना पर आधारित नहीं होना चाहिए, अर्थात कि वे छोटे हैं। अपितु इस बात पर बल दिया गया है कि अन्य सत्वों के प्रति चिन्ता की भावना और उनके प्रति आदर तथा सम्मान की भावना रखते हुए उनकी बहुमूत्यता को पहचानें। मैं यहाँ पर बल देना चाहूँगा कि हम बौद्ध संदर्भ में किस प्रकार करुणा को पहचानें। साधारणतया बौद्ध परंपरा में करुणा तथा प्रेम भरी दया, एक ही सिक्के के दो पहलू माने जाते हैं। करुणा एक ऐसी सहानुभूति से भरी कामना है, जो करुणा की वस्तु, सत्वों को दुःख से मुक्त देखना चाहती है। प्रेम भरी दया एक ऐसी कामना है जो दूसरों का सुख चाहती है। इस संदर्भ मे प्रेम और करुणा को सांवृतिक प्रेम और करुणा से अलग अर्थ में समझना चाहिए। उदाहरण के लिए जो हमारे प्रिय हैं उनके लिए हम एक निकटता के भाव का अनुभव करते हैं। हमारे मन में उनके प्रति करुणा तथा सहानुभूति की भावना होती है। हममें उनके लिए प्रबल प्रेम की भावना होती है पर अकसर यह प्रेम अथवा करुणा आत्म संबंधी विचारों के संदर्भ में आधारित होती हैः फलाँ फलाँ मेरा मित्र है, मेरा पति, पत्नी, मेरी संतान इत्यादि इत्यादि। इस प्रकार के प्रेम और करुणा से, जो प्रबल हो सकती है, होता यह है कि इसमें आसक्ति का पुट होता है क्योंकि इसमें आत्म संबंधी विचार होते हैं। एक बार आसक्ति हो तो वहाँ क्रोध तथा घृणा के उत्पन्न होने की संभावना भी होगी। आसक्ति क्रोध तथा घृणा के साथ साथ चलती है। उदाहरण के लिए एक व्यक्ति की दूसरे के प्रति करुणा में, आसक्ति का रंग हो तो वह बहुत सहजता से एक छोटी घटना मात्र से भावनात्मक विपरीतता में बदल सकती है। तब उस व्यक्ति के सुख की कामना के स्थान पर हो सकता है कि आप कामना करें कि वह अत्यंत दुखी हो।
चित्त शोधन के संदर्भ मे सच्ची करुणा और प्रेम इस सरल तथ्य की पहचान पर आधारित है कि मेरी ही तरह अन्य भी स्वाभाविक रूप से सुखी होने की कामना करते हैं और दुःखों से बचना चाहते हैं और दूसरों को मेरी ही तरह उस आधारभूत इच्छा को पूरा करने का नैसर्गिक अधिकार है। इस आधारभूत तथ्य की पहचान के आधार पर किसी व्यक्ति के लिए सहानुभूति का विकास सार्वभौमिक करुणा है। इसमें किसी भी प्रकार के पूर्वाग्रह का तत्व और किसी भी प्रकार के भेदभाव का तत्व नहीं होता। इस करुणा को सभी तत्वों तक पहुँचाना संभव है, जब तक कि वे पीड़ा और सुख के अनुभव की क्षमता रखते हैं। इस तरह सच्ची करुणा के आवश्यक तत्व हैं कि वह सार्वभौमिक है और भेदभाव नहीं करती। जैसे कि बौद्ध परंपरा में करुणा के परिष्कार में प्रथमतः सभी सत्वों के प्रति समचित्तता अथवा समत्व की भावना का परिष्कार करना है। उदाहरण के लिए आप इस पर चिंतन कर सकते हैं कि अमुक अमुक व्यक्ति इस जीवन में आपका मित्र, आपका संबंधी इत्यादि हो सकता है, परन्तु यही व्यक्ति एक बौद्ध दृष्टिकोण से पूर्व जन्म में आपका बहुत बड़ा शत्रु रहा होगा। ठीक इसी प्रकार का तर्क आप उस व्यक्ति के लिए प्रयोग में लाएँ जिसे आप शत्रु मानते हैः यद्यपि यह व्यक्ति आपके प्रति नकारात्मक हो सकता है और इस जीवन में आपका शत्रु हो, परन्तु वह पूर्व जन्म में आपका सबसे अच्छा मित्र रहा होगा या होगी या फिर आपसे संबंधित रही होगा या होगी इत्यादि। दूसरों के साथ संबंध की परिवर्तनशील प्रकृति और साथ ही सभी सत्वों में जो शत्रु अथवा मित्र बनने की क्षमता, जो सभी में विद्यमान है, पर चिंतन करते हुए आप इस प्रकार के समत्व की भावना का विकास कर सकते हैं।
समत्व की भावना के विकास के लिए एक प्रकार की अनासक्ति की अपेक्षा होती है, पर यह समझना बहुत आवश्यक है कि अनासक्ति का अर्थ क्या है। कभी कभी जब लोग अनासक्ति के बौद्ध अभ्यास के विषय में सुनते हैं, कि बौद्ध धर्म सभी वस्तुओं के प्रति उपेक्षा का समर्थन कर रहा है, पर बात ऐसी नहीं है। हम कह सकते हैं कि अनासक्ति की भावना का विकास पहले दूसरों के प्रति भेदभाव, जो कि दूरी या सामीप्य पर आधारित होता है, की भावनाओं की चुभन को दूर कर देता है। आप इस प्रकार की भूमि तैयार करते हो जिस पर आप सभी सत्वों के प्रति करुणा की भावना का विकास कर सकते हो। अनासक्ति की बौद्ध शिक्षा का अर्थ संसार अथवा जीवन से विमुखता या उपेक्षा के व्यवहार का विकास नहीं है।
इस पद की अन्य पंक्ति पर जाएँ, तो मेरे विचार से इस अभिव्यक्ति को कि “मानूँ स्वयं को निम्नतम” सही संदर्भ में समझना महत्वपूर्ण है। निश्चित रूप से यह नही कहा जा रहा कि आप ऐसे विचारों को पालें जो आपको निम्न स्तर के आत्मसम्मान की ओर ले जाएँ या फिर सभी आशाएँ छोड़ दें और निरुत्साहित होकर ऐसा सोचें कि “मैं सभी से निम्न हूँ, मुझमें कोई क्षमता नही है। मैं कुछ नहीं कर सकता और मुझमें कोई शक्ति नहीं है।” यहाँ इस प्रकार की चिन्ता और निम्नता की बात नहीं हो रही। दूसरों की अपेक्षा में अपने को निम्न मानने को एक सापेक्ष्य दृष्टि से समझना होगा। साधारणतया मनुष्य जानवरों की तुलना में श्रेष्ठ होते हैं। हममें सही और गलत में निर्णय लेने की क्षमता है और हम भविष्य इत्यादि के बारे में भी सोच सकते हैं। परन्तु ऐसा भी तर्क दिया जा सकता है कि कुछ अन्य रूपों में मनुष्य जानवरों से हीन होते हैं। उदाहरण के लिए हो सकता है कि जानवरों में नैतिकता की दृष्टि से सही और गलत में निर्णय लेने की क्षमता न हो और उनमें अपने कार्यों के दीर्घकालीन प्रभाव को देखने की क्षमता न हो, परन्तु पशु लोक के अंदर कम के कम एक प्रकार की व्यवस्था होती है। उदाहरण के लिए यदि आप अफ्रीका के सवाना को लें तो शिकारी पशु केवल भूख लगने पर, आवश्यकता पड़ने पर अन्य प्राणियों का शिकार करते हैं। जब वे भूखे नहीं होते, तो आप उन्हें बड़े ही शांति भाव से साथ साथ रहते हुए देख सकते हैं। पर हम मनुष्य हमारे सही और गलत के निर्णय लेने की क्षमता के बावजूद, कभी कभी बिलकुन लालच के वश होकर कार्य करते हैं। कभी कभी हम केवल आसक्ति के कारण कार्य करते हैं - हम केवल खेल के लिए हत्या करते हैं जैसे कि हम शिकार के लिए अथवा मछली पकड़ने के लिए गए। सो एक अर्थ में हम बहस कर सकते हैं कि मनुष्य जानवरों की तुलना में निम्न साबित हुए हैं। “निम्न” शब्द को प्रयोग में लाने का एक कारण इस बात पर ज़ोर देना है कि जब भी हम क्रोध, घृणा, प्रबल मोह और लोभ जैसी भावनाओं को अपने ऊपर हावी होने देते हैं तो हम ऐसा बिना किसी संयम की भावना के करते हैं। अकसर हम पूरी तरह से इस बात से बेखबर रहते हैं कि अन्य सत्वों पर हमारे आचरण का क्या प्रभाव पड़ता है। परन्तु जानबूझकर दूसरों को श्रेष्ठ समझकर आपकी श्रद्धा के योग्य समझने जैसा विचार का विकास कर आप स्वयं को एक संयम का तत्व देते हैं। तब जब भावनाएँ उत्पन्न होंगी, तो उतनी प्रबल न होंगी कि आप अन्य सत्वों पर आपके कार्यों के प्रभाव के अनदेखा कर पाएँ। यही आधार है जिस पर आपसे अन्य सत्वों को आपकी तुलना में श्रेष्ठ समझने का सुझाव दिया गया है।