धर्म की सामान्य प्रस्तुति
बुद्ध के धर्म को दो यानों में विभाजित किया जा सकता है, हीनयान और महायान। हीनयान को भी श्रावकयान और प्रत्येकबुद्ध यान में विभाजित किया जा सकता है। श्रावक और प्रत्येकबुद्धों को उनके संकायों की अपेक्षाओं और श्रेष्ठता और जो परिणाम वे प्राप्त करते हैं, के अनुसार विभेदित किया जा सकता है, पर जिन मार्गों के सिद्धांतों का वे पालन करते हैं वे अपने मूल रूप में समान हैं। जिन लोगों में इन दोनों हीनयान का पालन करने की प्रवृत्ति होती है वे अपनी मुक्ति के लिए उन्हें ग्रहण करते हैं चूंकि वे सर्वप्रथम स्वयं को शीघ्रता से मुक्त करने की तात्कालिकता अनुभव करते हैं। चूंकि संसार में बंधन का मुख्य कारण आत्मग्राह्यता की भावना है, तो मुक्ति की स्वतंत्रता प्राप्त करने का मुख्य कारण वह प्रज्ञा है जो नैरात्म्य के अर्थ की अनुभूति करती है। इस प्रकार, श्रावक और प्रत्येकबुद्ध, बोधिसत्वों की तरह नैरात्म्य का अनुभव करते हैं। वे उस पर नैतिक आचरण, ध्यान केंद्रित एकाग्रता इत्यादि के साथ चिन्तन करते हैं तथा इस तरह अपनी सारी वासनाएं, लोभ, घृणा इत्यादि का शमन करते हैं।
यद्यपि हीनयानी अपने मार्ग में बुद्धत्व की प्राप्ति हेतु संलग्न नहीं होते, पर उनका मार्ग वास्तव में लोगों को बुद्धत्व के चरण में अग्रणी करने का एक साधन है। इस तरह, हीनयान मार्ग को प्रबुद्धता के मार्ग पर पूरी तरह बाधा के रूप में समझने की भूल मत करो, क्योंकि सद्धर्मपुण्डरीक सूत्र तथा अन्य ग्रंथ सिखाते हैं कि वे बुद्धत्व प्राप्त करने के साधन हैं। बुद्ध संसार में प्रकट होते हैं ताकि सत्व ज्ञान की प्राप्ति कर सकें जो उन्होंने स्वयं प्राप्त की थी। इस तरह बुद्ध द्वारा प्रर्दशित मार्ग सत्वों को बुद्धत्व की ओर ले जाना है। यद्यपि हीनयानी मार्ग सीधे बुद्धत्व की ओर नहीं ले जाते, यह शिक्षा दी जाती है कि हीनयान के अनुयायी वास्तव में अंततः महायान में प्रवेश करते हैं और बुद्धत्व प्राप्त करते हैं।
यद्यपि महायान के अनुयायियों की तरह हीनयान के अनुयायी यह अनुभूत करते हैं कि वस्तुओं की स्वभाव सत्ता नहीं होती पर ऐसा नहीं है कि हीनयान और महायान के बीच कोई अंतर नहीं है। महायान के सिद्धांत मात्र धर्म की नैरात्म्यता को प्रकाशित नहीं करते हैं, वे बोधिसत्व चरणों, पारमिता, सभी सत्वों के लिए सम्यक् संबुद्धत्व प्राप्त करना, महाकरुणा इत्यादि की शिक्षा देते हैं। वे प्रबुद्धता हेतु पुण्यों की परिणामाना, पुण्य द्वय का संभार और अकल्पनीय वास्तविकता जो सभी क्लेशों से परिशुद्ध है, की भी शिक्षा देते हैं।
इस प्रकार, महायान और हीनयान अपने दार्शनिक दृष्टिकोणों में अंतर के लिए ही नहीं जाना जाता अपितु वे अपने समस्त उपाय कौशल के अभ्यास और गैर-अभ्यास के अनुसार विभेदित हैं। यह आर्य नागार्जुन और उनके शिष्य आर्यदेव का दावा है: एक माँ अपने सभी पुत्रों का आम कारण है, और उनके पिता उनकी जाति में अंतर का कारण हैं। इसी तरह मां, प्रज्ञा - पारमिता पुत्रों का सामान्य कारण है, सभी चार प्रकार के आर्यों केः श्रावक आर्य, प्रत्येकबुद्ध आर्य, बोधिसत्व आर्य और बुद्ध आर्य। उनमें हीनयान और महायान वंशों में अंतर करने का कारण यह है कि उनके पास बोधिचित्त इत्यादि के उत्पाद के उपाय हैं अथवा नहीं। हीनयान की तरह सामान्य महायान को दो यानों में विभाजित किया जा सकता है: पारमितायान और मंत्रयान। महायान का सामान्य उद्देश्य सभी सत्वों की परम संबुद्धि के लिए छह पारमिताओं में प्रशिक्षित होना है। यह स्पष्ट है कि मंत्रयान में व्यक्ति इसी मार्ग से अग्रसर होता है क्योंकि ऐसा तंत्र में शिक्षित किया गया है। परन्तु महायान अभ्यासी जो पारमितायन का अनुपालन करते हैं, वे मार्ग के मात्र उस भाग का पालन करते हैं जबकि मंत्रयान के अनुयायी विशिष्ट तांत्रिक उपायों के माध्यम से पारमिताओं का विकास करते हैं जो पारमितायान में सिखाई नहीं जाती।
शब्द " हेतु यान", "पारमितायान" इत्यादि समानार्थक शब्द हैं, और "मंत्रयान", "वज्रयान", “फल यान" और "उपाय यान" भी समानार्थक हैं। हेतु यान और फल यान के बीच अंतर है: हेतु यान, महायान यान है जिसमें स्व पर कोई ध्यान नहीं होता जिस में किसी प्रभाव के साथ एक समान पहलू है - प्रशिक्षण मार्ग की अवधि के दौरान। महायान जिसमें प्रशिक्षण के मार्ग के दौरान चार पूर्ण शुद्धताओं के साथ एक समान पहलू है जिसे "फल यान" अथवा "मंत्रयान" कहा जाता है। यह आचार्य जे चोंखापा ने लम-रिम छेन में कहा थाः "यान के संबंध में, क्योंकि यह उसका यान है, यानि उस फल को बताता है, जो यहां वांछित है और जिस कारण से यह इच्छा होती है, यह 'यान' कहलाता है। फल है निवास, काय, संपत्ति और क्रियाकलाप, बुद्ध का प्रासाद, काय, सम्पदा और कार्य की चार पूर्ण परिशुद्धता। वर्तमान में व्यक्ति एक दैविक प्रासाद, एक दिव्य दल, दैवीय आनुष्ठानिक वस्तुएँ और ब्रह्मांड तथा उसके निवासी जैसे बुद्ध, पर ध्यान करता है। इस तरह यह फल यान है क्योंकि एक फल के यान के अनुसार व्यक्ति ध्यान के माध्यम से विकास करता है।"
इस प्रकार, महायान एक समग्र रूप से परमितायान और मंत्रयान में वर्गीकृत है क्योंकि इन दोनों के बुद्ध के रूप काय को प्राप्त करने के लिए आधारभूत रूप से विभिन्न साधन हैं, जो दूसरों के लक्ष्य को पूरा करते हैं। साधारणतया हीनयान और महायान शून्यता की अपनी प्रज्ञा के अंतर के अनुसार अलग नहीं किए जाते, पर उपरिलिखित के अनुसार, उनके उपायों में अंतर के कारण उन्हें विभाजित किया जाता है। विशेष रूप से, यद्यपि महायान को पारमितायान और मंत्रयान में विभाजित किया गया है, यह उनके शून्यता की समझ की उनकी प्रज्ञा में अंतर के कारण नहीं है; दोनों महायान व्यवस्था को उनके उपायों के दृष्टिकोण में अंतर के कारण अलग करना चाहिए। महायान में उपाय का मुख्य पक्ष वह भाग है जो रूप काय की प्राप्ति से संबंधित है, और मंत्रयान में रूप काय को प्राप्त करने वाली विधि मात्र देव योग है जिसमें स्वयं में रूप काय की तरह पक्ष होने पर ध्यान करना है। यह उपाय पारमितायन में नियोजित विधि से श्रेष्ठ है।
मंत्रयान के शिष्यों के संबंध में, चार प्रकार हैं: अवर, मध्य, श्रेष्ठ और परम उत्कृष्ट। तंत्र के चार वर्गों की शिक्षा इन चार प्रकार के शिष्यों को ध्यान में रखते हुए दी जाती थी। चूँकि शिष्य मंत्र के चार वर्गों के माध्यम से मंत्रयान में प्रवेश करते हैं, इसलिए चार वर्गों की तुलना "चार द्वारों" से की जाती है। यदि आप इस सोच में पड़ जाएँ कि ये चार क्या हैं, तो वे क्रिया तंत्र, चर्या तंत्र, योग तंत्र और अनुत्तर योग तंत्र हैं। कालचक्र, जिसका वर्णन नीचे दिया जाएगा, अनुत्तर योग तंत्र के वर्ग का है।
कालचक्र का विवरण
कालचक्र तंत्र के विषय का सम्पूर्ण अर्थ तीन कालचक्रों में निहित है: बाह्य कालचक्र, आंतरिक कालचक्र तथा अन्य कालचक्र। बाह्य कालचक्र, वातावरण का बाहरी विश्व है और इसे "बाहरी सौर और चंद्र दिनों की शोभा यात्रा" के नाम से भी संबोधित किया जाता है। आंतरिक कालचक्र मानव शरीर है, यानि जम्बुद्वीप या पृथ्वी की सतह है। इसी तरह, आंतरिक नाड़ियाँ, तत्व और वायु की गतिविधि को आंतरिक कालचक्र के रूप में प्रस्तुत किया गया है। अन्य कालचक्र श्री कालचक्र के परिणाम के साथ अभिषेक व मार्ग हैं। यह पूर्व के दो कालचक्रों से "अन्य" है। गुरु दीक्षा से शिष्य के मनो - शारीरिक संतान को परिपक्व करता है, और शिष्य उस मार्ग पर ध्यान करता है जिसमें उत्पत्ति प्रक्रिया और निष्पत्ति प्रक्रिया सम्मिलित है। इस तरह योगी बुद्ध काय को साकार करता है जो शून्यता की दैविक छवि है। यह अन्य कालचक्र है।
बुद्ध का कालचक्र शिक्षण परमादिबुद्ध कालचक्र के आधारभूत तंत्र में वर्णित है:
"जैसा शास्ता ने प्रज्ञा- पारमिता के अनुसार गृद्ध कूट पर धर्म देशना दिया, उन्होंने श्री धन्यकटक में मंत्र प्रणाली की भी देशना दी। शास्ता ने क्या शिक्षा दी, वह तंत्र क्या था, वह कब और कहाँ था? स्थान कौन सा था, लौकिक समूह किसका था तथा उद्देश्य क्या था?
"उन्होंने गृद्ध कूट पर बोधिसत्वों को अद्वितीय महायान प्रज्ञा- पारमिता व्यवस्था की शिक्षा दी। साथ ही उसी समय तथागत बोधिसत्वों और महान स्तूप के अन्यों के साथ धर्म चक्र में रहे। वे सार्वभौमिक वज्र के निवास में रहे, जो अंतरिक्ष में, अमूर्त और बहुत स्पष्ट, अविभाजित और उज्ज्वल था। उन्होंने मानवों के पुण्य व ज्ञान के लिए सुन्दर धर्म चक्र में तंत्र देशित किया।"
मूल तंत्र भी कहता है: "तब वज्रपाणि के निर्माणकाय प्रख्यात शम्भाला से राजा सुचन्द्र ने चमत्कारिक रूप से अलौकिक धर्म चक्र में प्रवेश किया। पहले उन्होंने दक्षिण में प्रदक्षिणा की, फिर उन्होंने शास्ता के चरण कमलों की रत्नों से निर्मित पुष्पों से आराधना की। अंजलिबद्ध होकर, सुचन्द्र सम्यक् संबुद्ध के समक्ष बैठे। सुचन्द्र ने बुद्ध से तंत्र का अनुरोध किया, इसे पुनः संपादित किया और इसकी शिक्षा भी दी।"
कालचक्र की शिक्षा हमारे शिक्षक, बुद्ध शाक्यमुनि ने दी। उन्होंने अप्रैल/मई की पूर्णिमा के उषा काल में भारत के बोधगया में बोधि वृक्ष तले सम्यक् संबुद्धत्व को साकार करने का मार्ग प्रशस्त किया। एक वर्ष तक उन्होंने सामान्य पारमितायान की शिक्षा दी। विशिष्ट रूप से, उन्होंने गृद्ध कूट पर्वत पर महायान की परमिता प्रणाली के परम प्रज्ञा पारमिता धर्म चक्र प्रवर्तन किया।
बुद्धत्व प्राप्ति के बारह महीनों के पश्चात मार्च/अप्रैल की पूर्णिमा को बुद्ध ने गृद्ध कूट पर्वत पर पारमितायन की शिक्षा दी। उसी समय उन्होंने श्री धन्यकटक, जो कि दक्षिण भारत में श्री पर्वत के निकट है, के महान स्तूप के अंदर एक और रूप प्रकट किया, जहाँ उन्होंने मंत्रयान की शिक्षा दी। महान स्तूप ऊपर से नीचे तक अठारह से अधिक मील का था, और इसके अंदर बुद्ध ने दो मंडल प्रसरित किए थे: नीचे धर्मधातु वागीश्वर का मंडल और ऊपर भव्य नक्षत्रों का महान मंडल। बुद्ध केन्द्र में वज्र चक्र के महान मंडल महासुख के निवास में वज्र सिंहासन पर थे। वे मंडलेश्वर के रूप में कालचक्र समाधि में लीन थे।
मंडल के भीतर उत्कृष्ट घेरे में बुद्ध, बोधिसत्व, परियाँ, देव, नाग और देवियां शामिल थे। मंडल के बाहर अनुरोधकर्ता वज्रपाणि, शम्भाला के राजा सुचन्द्र का निर्माणकाय था। वे चमत्कारिक रूप से शम्भाला से श्री धन्यकटक आये थे और उन्होंने श्रोताओं के समूह के लिए कालचक्र से अनुरोध किया: शम्भाला के भीतर के छियानवे भूमि के छियानवे प्रकट हुए सूबेदार जिनके साथ असीमित मेजबान भाग्यशाली बोधिसत्व, देव, दानव और अन्य।
बुद्ध ने सभा को परम धर्म- लौकिक और पार लौकिक अभिषेक दिया - और भविष्यवाणी की कि वे बुद्धत्व प्राप्त करेंगे, तत्पश्चात उन्होंने उन्हें परमादिबुद्ध बारह हजार छंदों के कालचक्र मूल तंत्र की शिक्षा दी। राजा सुचन्द्र ने इसे एक संग्रह में लिखा और वे चमत्कारिक ढंग से शम्भाला लौट गए।
शंभाला में सुचन्द्र ने मूल तंत्र की साठ हजार पंक्तियों के भाष्य की रचना की। उन्होंने मूल्यवान पदार्थों से कालचक्र मंडल भी बनाया। अपने पुत्र सुरेश्वर को राजा और तंत्र के शिक्षक के रूप में नियुक्त करने के बाद उनका निधन हो गया। शम्भाला के वंश में कई महान राजा आए: कल्कि यशस, कल्कि पुंडारीक और अन्य। वे कालचक्र के गहन धर्म को सूरज और चंद्रमा की तरह दैदीप्यमान बनाने के कारण थे। कालचक्र शम्भाला के कल्कियों ("प्रमुखों") की परम्परा के माध्यम से जारी रहा और अंततः भारत में इसका पुनः परिचय किया गया। यह किस तरह हुआ इस संबंध में दो प्रमुख कहानियाँ हैं, रा परम्परा द्वारा बताई गई कहानी और डो परंपरा की कहानी। (रा परंपरा और डो परम्परा की चर्चा नीचे की जाएगी)।
रा परंपरानुसार, कालचक्र और संबंधित भाष्य बोधिसत्व संग्रह के रूप भारत में तीन राजाओं के एक साथ शासन के दौरान प्रकट हुआ। बोधगया को केंद्र मानकर, तीन राजा थे: पूर्व में, हाथियों के प्रमुख, देहोपाल; दक्षिण में पुरुषों के प्रमुख, जौगंगा; और पश्चिम में घोडों के प्रमुख, कन्नौज। उस समय महान पंडित सिलु, जिन्होंने बौद्ध धर्म के सभी पहलुओं में निपुणता प्राप्त की थी, पूर्वी भारत के पांच प्रदेशों में से एक, उड़ीसा में पैदा हुए थे। सिलु ने रत्नागिरी विहार, विक्रमशिला और नालंदा में सभी बौद्ध ग्रंथों का अध्ययन किया। विशेष रूप से, उन्होंने रत्नागिरि विहार में अध्ययन किया जो तुर्कों द्वारा क्षतिग्रस्त नहीं किया गया था।
सिलु ने अनुभव किया कि सामान्य रूप से, एक ही जीवन में बुद्धत्व को प्राप्त करने के लिए उन्हें मंत्रयान की आवश्यकता होगी और विशेष रूप से, उन्हें बोधिसत्व भाष्यों में निहित इन सिद्धांतों के स्पष्टीकरण की आवश्यकता होगी। यह जानते हुए कि ये शिक्षाएँ शम्भाला में प्रचलित थीं, वे अपने देव के निर्देश के आधार पर व्यापारियों के साथ जुड़ गए जो समुद्र में रत्नों की खोज करते थे। व्यापारियों के साथ जो समुद्री यात्रा पर जाने वाले थे, छह महीने बाद मिलने के लिए सहमत होने के उपरांत, वे अपने अपने मार्ग पर चल पड़े। सिलु क्रमशः आगे बढ़े और अंत में, एक पहाड़ पर चढ़ने के बाद वे एक व्यक्ति से मिले। उस व्यक्ति ने उससे पूछा, "तुम कहाँ जा रहे हो?" सिलु ने उत्तर दिया, "मैं बोधिसत्व संग्रह की खोज में शम्भाला जा रहा हूँ।" व्यक्ति ने कहा, "वहाँ जाना अत्यंत कठिन है, पर यदि तुम समझ सको तो तुम यहाँ भी सुन सकते हो।" सिलु ने अनुभूत किया कि वह व्यक्ति मंजुश्री का निर्माणकाय रूप था। उसने दण्डवत किया, मंडल समर्पित किया और निर्देश की याचना की। व्यक्ति ने सिलु को सभी अभिषेक, तंत्र भाष्य और मौखिक निर्देश प्रदान किए। उन्होंने सिलु को पकड़ा, उसके सिर पर एक फूल रखा और उसे आशीर्वाद देते हुए कहा, सम्पूर्ण बोधिसत्व संग्रह को अनुभूत करो।" इस तरह एक पात्र से दूसरे में जल डालने के समान सिलु ने समूचे बोधिसत्व संग्रह को अनुभूत किया। जिस मार्ग से वह व्यक्ति आया था, उसी से लौट गया और व्यापारियों के साथ मिलकर, वह पूर्वी भारत लौट आया।
डो परम्परानुसार, कालचक्र को भारत में पुनः लाने वाले आचार्य कालचक्रपाद थे। यमंतक योग का अभ्यास करने वाले एक दम्पति ने पुत्र प्राप्ति हेतु यमंतक तंत्रानुसार अनुष्ठान किया और उनके एक पुत्र हुआ। जब वह बड़ा हुआ तो उसने जाना कि उत्तर में बोधिसत्व स्वयं धर्म की शिक्षा देते हैं, अतः वह उन्हें सुनने के लिए गया। अपनी मनोवैज्ञानिक शक्ति से शम्भाला के कल्की ने धर्म के प्रति युवक की शुद्ध प्रेरणा और गहन धर्म के उत्साह के बारे में जाना। वे जानते था कि यदि युवक ने शम्भाला आने का प्रयास किया तो जल हीन बंजर क्षेत्र, जिसको पार करने में चार महीने का समय लग सकता है, के कारण युवक का जीवन संकट में पड़ जाएगा। इसलिए कल्की ने मरुभूमि के किनारे युवक से भेंट करने हेतु एक निर्माणकाय का उपयोग किया।
कल्की ने युवक से पूछा, "तुम कहाँ जा रहे हो, और क्यों?" जब युवक ने उन्हें अपना मंतव्य बताया तो कल्की ने कहा, "वह मार्ग अत्यंत कठिन है। पर यदि तुम इन चीजों को समझ सकते हो तो क्या तुम यहीं उनकी बात नहीं सुन सकते?" युवक को अनुभूत हुआ कि यह कल्की का एक निर्माणकाय रूप था और उसने उनसे निर्देश मांगे। वहीं पर कल्की ने युवक को अभिषिक्त किया तथा चार महीनों तक उन्हें सभी उच्चतम तंत्र विशेषकर तीन बोधिसत्व मूल भाष्य की शिक्षा दी। मुख तक भरे कलश की तरह, युवक ने सभी तंत्रों की अनुभूति की और कंठस्थ किया। भारत लौटने पर युवक मंजुश्री के प्रकट रूप में विख्यात हुआ और उनका नाम "कालचक्रपाद" था।
रा और डो परम्पराओं का कहना है कि भारत में कालचक्र को लाने वाले सिलू और कालचक्रपाद थे। भारत में कालचक्र का अध्ययन और अभ्यास होता रहा था और अंततः वह तिब्बत लाया गया। साथ ही रा और डो परम्पराएँ दो मुख्य वंशावलियाँ हैं जिनके द्वारा ऐसा हुआ।
डो परम्परा कश्मीरी पंडित सोमनाथ की तिब्बत यात्रा से प्रारंभ हुई। सोमनाथ तिब्बत में पहले खराग पहुँचे और रियो समुदाय के बीच रहे। सौ माप के स्वर्ण की राशि के शुल्क के लिए सोमनाथ ने महान भाष्य कालचक्र विमलप्रभा का आधा अनुवाद भोट भाषा में किया, पर इस बीच वह अप्रसन्न हो गए तथा अपना काम रोक दिया। उन्होंने सोना व अनूदित अंश लिया और फ़न युल डुब गए। वहाँ झंग समुदाय के छुंग वा ने सोमनाथ को अपने गुरु के रूप में स्वीकार किया और डो समुदाय के शयरबडक ने अनुवादक के रूप में काम किया। सोमनाथ तथा शेरबडग ने सम्पूर्ण विमलप्रभा का अनुवाद किया।
डो परम्परा लामा छोकू ओसेर तक जारी रही। इस लामा ने डो कुल की सभी शिक्षाओं में निपुणता प्राप्त की, जिसमें कालचक्र भी शामिल था। उनके शिष्य लामा गालो थे, जिन्होंने डो परम्परा और रा परम्परा दोनों में निपुणता प्राप्त की और उन्हें एक संयुक्त वंशावली के रूप में आगे बढ़ाया।
रा परंपरा, रा कुल, के छोरब के साथ प्रारंभ हुई, जो प्रसिद्ध अनुवादक रा दोर्जेडग के भतीजे थे जो ञेन मा मंग युल में पैदा हुए थे। रा छोरब ने रा कुल के सभी सिद्धांतों को कंठस्थ किया और समझा। फिर वे कालचक्र सीखना चाहते थे, अतः वे नेपाल के केंद्र में गए जहाँ उन्होंने पांच साल, दस महीने और पांच दिनों तक पंडित समन्तश्री की निरंतर सेवा की। समंतश्री ने सभी कालचक्र ग्रंथों को समझाया और छोरब को अभिषेक व मौखिक निर्देश दिए। फिर छोरब ने समंतश्री को तिब्बत में आमंत्रित किया, जहाँ उन्होंने सहयोगी ग्रंथों के साथ कालचक्र तंत्र और इसके भाष्य का सावधानी से अनुवाद किया।
रा परम्परा रा छोरब के पुत्र और पोते द्वारा निरंतर रही और यह अंततः लामा गालो के पास आई जैसा कि पहले उल्लेख किया गया है। लामा गालो ने दोनों डो और रा परंपराओं को आगे बढ़ाया और उनकी वंशावली बुतोन रिनछेनडुब और चोंखापा जैसे आचार्यों से जारी रही। रा और डो परम्परा पर आधारित कालचक्र का अध्ययन और अभ्यास आज भी मौजूद है।
सभी बौद्ध तांत्रिक व्यवस्थाओं की तरह कालचक्र तंत्र का अभ्यास सर्वप्रथम उचित रूप से प्राप्त अभिषेकों पर आधारित है। उचित रूप से अभिषेक प्रदान करने तथा ग्रहण करने के लिए यह आवश्यक है कि गुरु और शिष्य दोनों में कुछ योग्यताएँ हों। मंत्रयान गुरु की विशेषताओं को लोबसंग छोकी ज्ञलछेन ने इस तरह वर्णित किया है: "उन्हें अपने काय, वाक् और चित्त पर नियंत्रण होना चाहिए। उसे बहुत बुद्धिमान, धैर्यशाली और छल रहित होना चाहिए। उन्हें मंत्र व तंत्र जानने चाहिए, यथार्थ को समझना चाहिए और ग्रंथों की रचना और व्याख्या में सक्षम होना चाहिए" हम बहुत भाग्यशाली हैं कि ऐसे गुरु अब भी पाए जा सकते हैं।
शिष्य को महायान पथ के तीन प्रमुख पहलुओं का अनुभव होना चाहिए: निःसरण, बोधिचित्त और शून्यता की समझ। यदि शिष्य ने वास्तविक रूप में इन की अनुभूति नहीं की है, तो उन्हें कम से कम उनका बौद्धिक परिचय होना चाहिए और उनके लिए सराहना होनी चाहिए।
तीन पहलुओं में से सबसे महत्वपूर्ण बोधिचित्त है, अभिषेक ग्रहण करने की प्राथमिक प्रेरणा। भगवान मैत्रेय ने अपने अभिसमयालंकार में बोधिचित्त को परिभाषित किया है: "बोधिचित्त दूसरों के लिए सम्यक् संबुद्धत्व प्राप्त करने की इच्छा है"। जब कालचक्र अभिषेक लेने की विशिष्ट परिस्थितियों पर व्यवहृत किया जाता है तो शिष्य को निम्लिखित रूप से बोधिचित्त उत्पन्न करना चाहिए: "सभी सत्वों के लिए मुझे श्री कालचक्र की अवस्था प्राप्त करना होगा। तब मैं अन्य सभी सत्वों को भी श्री कालचक्र की स्थिति में स्थापित करने में सक्षम होऊँगा।" इस प्रेरणा से व्यक्ति को अभिषेक लेना चाहिए।
तांत्रिक अभिषेकों का सामान्य उद्देश्य यह है कि अभिषेक द्वारा गुरु शिष्य के मनो- काय संतान को परिपक्व करता है। यहां परिपक्वता का अर्थ शिष्य को उत्पत्ति प्रक्रिया और निष्पत्ति प्रक्रिया के योग के अभ्यास को सशक्त करना है। विशेष रूप से, कालचक्र अभिषेक कालचक्र तंत्र के योग का पालन करने और अंततः श्री कालचक्र की अवस्था प्राप्त करने हेतु शिष्य को सशक्त करते हैं।
कालचक्र के ग्यारह अभिषेक हैं: सात "शिशु प्रवृत्ति के तरह प्रवेश, तीन उच्च अभिषेक तथा एक उच्चतम अभिषेक। वे शिष्य जो अस्थायी रूप से केवल संसारिक सिद्धि (जादुई या रहस्यमय सिद्धियां) का उद्देश्य रखते हैं को केवल सात निचले अभिषेक प्रदान किए जाते हैं। वे जो मुख्य रूप से बुद्धत्व की परा सिद्धि में रुचि रखते हैं, को सभी ग्यारह अभिषेक दिए जाते हैं। इन सात अभिषेकों में प्रथम शिशु की तरह प्रवेश जल अभिषेक है। यह माँ द्वारा शिशु के जन्म के तुरंत बाद उसको धोने के समान है। दूसरा अभिषेक शिरो अभिषेक है जो एक शिशु के सिर के शीर्ष भाग में केश बांधने से मेल खाता है। तीसरा शीर्ष फीता या कर्ण लटकन अभिषेक एक शिशु के कर्ण छेदन की और उन्हें अलंकृत करने से मेल खाता है। चौथा अभिषेक वज्र और घंटा अभिषेक है जो शिशु के हास्य और बात करने से मेल खाता है। पांचवाँ अभिषेक आचाराभिषेक है जो शिशु के कामलोक की पांच विशेषताओं का आनंद उठाने से मेल खाता है। छठवां नाम अभिषेक है जो शिशु के नामकरण से मेल खाता है। 'शिशु की तरह प्रवेश' अभिषेक का सातवां, और अंतिम, मंत्र दीक्षा की आधिकारिकता का अभिषेक है। यह अभिषेक शिष्य को बाधाओं को दूर करने और शमन करने की शक्तियों को प्राप्त करने, समृद्धि प्राप्त करने, वश में करने और विनाश की शक्ति देता है।
तीन उच्च अभिषेक निम्नलिखित हैं - घट अभिषेक आनन्द और शून्यता के ज्ञान का आनन्द है जो शिष्य द्वारा अपने सह अभ्यासी के स्तन स्पर्श से जनित होता है। गुह्य अभिषेक आनन्द व शून्यता का ज्ञान है जो शिष्य द्वारा बोधिचित्त के आनन्द से उत्पन्न होता है, प्रज्ञा अभिषेक सहज अनुभूति का वह आनन्द है जो शिष्य और उसके सह अभ्यासी के युग्म रत होने से अनुभूत होता है।
सबसे परम अभिषेक को 'चतुर्थ अभिषेक' या ‘व्यञ्जन अभिषेक' भी कहा जाता है। पूर्व का प्रज्ञा अभिषेक शिष्य को ग्यारहवें बोधिसत्व भूमि को प्राप्त करने के लिए सशक्त करता है। तब गुरु प्रतीकात्मक रूप से ज्ञान काय को इंगित करता है जो महासुख और शून्यता का सर्वोच्च अपरिवर्तनीय एकीकृत रूप है जिसमें सभी पहलुओं का सर्वश्रेष्ठ रूप होता है। यह कहते हुए कि, "यही है", गुरु शिष्य को चतुर्थ अभिषेक प्रदान करता है। यह अभिषेक शिष्य को श्री कालचक्र के रूप में सम्यक् संबंद्धत्व बुद्त्व प्राप्त करने की शक्ति देता है।
तिब्बती से अनुवादित और जॉन न्यूमैन के अनुवादक की टिप्पणी से संपादित: 'अथवा इस निबंध में आए विषयों पर अधिक जानकारी के लिए सलाह दी जाती है: दलाई लामा, कालचक्र तंत्र इनीसियेशन राइट्स एंड प्रेक्टिसस (लंदन:विज़डम पब्लिकेशन्स १९८५), और गेशे ल्हुंडुब सोपा एरल, द व्हील ऑफ़ टाइम: द कालचक्र इन कांटेक्स्ट (मैडिसन विस्कॉन्सिन यूएसए: डीयर पार्क बुक्स, १९८५)।
परम पावन दलाई लामा द्वारा प्रदत्त कालचक्र अभिषेक (दिनांक/स्थान/उपस्थिति)
१ मई १९५४/नोर्बुलिंगा, ल्हासा, तिब्बत/१००,०००
२ अप्रैल १९५६/नोर्बुलिंगा, ल्हासा, तिब्बत/१००,०००
३ मार्च १९७०/धर्मशाला, हिमाचल प्रदेश, भारत/३०,०००
४ जनवरी १९७१/बाईलाकुप्पे, कर्नाटक, भारत/१०,०००
५ दिसंबर १९७४/बोधगया, बिहार, भारत/१००,०००
६ सितंबर १९७६/लेह, लद्दाख, भारत/४०,०००
७ जुलाई १९८१/मैडिसन, विस्कॉन्सिन, संयुक्त राज्य अमरीका/१,५००
८ अप्रैल १९८३/ दिरंग, अरुणाचल प्रदेश, भारत/५,०००
९ अगस्त १९८३/ताबो, हिमाचल प्रदेश, भारत/१०,०००
१० जुलाई १९८५/रिकोन, स्विट्जरलैंड/६ ,०००
११ दिसंबर १९८५/बोधगया, बिहार, भारत/२००,०००
१२ जुलाई १९८८/जंस्कर, जम्मू और कश्मीर, भारत/१०,०००
१३ जुलाई १९८९/लॉस एंजिल्स, कैलिफ़ोर्निया, संयुक्त राज्य अमरीका/३,०००
१४ दिसंबर १९९०/सरनाथ, उत्तर प्रदेश, भारत/१३०,०००
१५ अक्टूबर १९९१/न्यूयॉर्क, संयुक्त राज्य अमरीका/३,०००
१६ अगस्त १९९२/कल्पा, हिमाचल प्रदेश, भारत/२०,०००
१७ अप्रैल १९९३/गंगटोक, सिक्किम, भारत/१००,०००
१८ जुलाई १९९४/जिस्पा, हिमाचल प्रदेश, भारत/३०,०००
१९ दिसंबर १९९४/बार्सिलोना, स्पेन/३ ,०००
२० जनवरी १९९५/मुंडगोड, कर्नाटक, भारत/५० ,०००
२१ अगस्त १९९५/उलानबाटर, मंगोलिया/३०,०००
२२ जून १९९६/ताबो, हिमाचल प्रदेश, भारत/२०,०००
२३ सितंबर १९९६/सिडनी, ऑस्ट्रेलिया/३,०००
२४ दिसंबर १९९६/सलुगरा, पश्चिम बंगाल, भारत/२००,०००
२५ अगस्त १९९९/ ब्लूमिंग्टन, इंडियाना, संयुक्त राज्य अमेरिका/४,०००
२६ अगस्त २०००/क्यी, हिमाचल प्रदेश, भारत/२५,०००
२७ अक्टूबर २००२/ग्राज़, ऑस्ट्रिया/१०,०००
२८ जनवरी २००३/बोधगया, बिहार, भारत/२००,०००
२९ अप्रैल २००४/टोरंटो, ओन्टेरियो, कनाडा/८,०००
३० जनवरी २००६/अमरावती, आंध्र प्रदेश, भारत/१००,०००
३१ जुलाई २०११/वाशिंगटन, डीसी, संयुक्त राज्य अमरीका/८,०००
३२ जनवरी २०१२/बोधगया, बिहार, भारत/२००,०००
३३ जुलाई २०१४/लेह (लद्दाख), जम्मू और कश्मीर, भारत/१५०,०००
३४ जनवरी २०१६/बोधगया, बिहार, भारत/२००,०००