मथुरा, उत्तर प्रदेश, भारत – आज सुबह श्री उदासीन कार्ष्णि आश्रम में दूसरे दिन की शुरुआत पर परमपावन दलाई के साथ स्वामी कार्ष्णि गुरु श्रीशरणानंद जी महाराज, स्वामी चिदानन्द सरस्वती एवं आश्रम के अन्य सदस्यों ने ध्यान साधना की ।
उसके पश्चात परमपावन महाराज जी एवं स्वामी जी के साथ वाहन में सवार होकर यमुना नदी के तट पर पहुंचे जहां पर उन्होंने आरती पूजा में भाग लिया । जब एक पत्रकार ने परमपावन से पूछा कि भारतीय संस्कृति का वह कौन सा पहलू है जो आज विश्व में प्रासंगिक है, इसका उत्तर देते हुये परमपावन ने कहा-
“मैं आश्वस्त हूँ कि भारतीय प्राचीन ज्ञान परम्परा में ‘अहिंसा’ और ‘करुणा’ ये दो ऐसे उपाय हैं जिनके द्वारा दुनिया से हिंसा को पूर्णतः समाप्त किया जा सकता है । मानवीय स्तर पर हम सब एक समान हैं । हम सब एक समान पैदा हुये हैं और मृत्यु भी एक समान ही होगी । इसलिए, इस देश में हज़ारों वर्षों से आत्मसात किये गये बुनियादी मानवीय मूल्यों की ओर ध्यान देना अत्यन्त आवश्यक है ।”
आश्रम में लौटन के बाद परमपावन ने बुद्ध उद्यान का उद्घाटन किया । परमपावन ने बुद्ध मूर्ति के समक्ष नीचे इस श्लोक का पाठ करते हुये श्रद्धा अर्पित की-
शास्ता के लोक धातु में आगमन से,
सूर्य के प्रकाश की भांति शासन प्रकाशित है,
शासनधर भ्राता एवं भगिनियों के अनुकूल आचरण से,
धर्म-शासन दीर्घ काल तक स्थिर रहे, ऐसी मंगल कामना है।
परमपावन ने उल्लेख किया कि हालांकि बुद्ध की मूर्ति निर्माण करना पुण्यकर है, लेकिन, चूंकि ये मूर्तियां उपदेश दे नहीं सकते हैं, इसलिए, ऐसे अध्ययन केन्द्रों का निर्माण अत्यन्त ज़रुरी है जहां इनके उपदेशों का अध्ययन किया जा सके और उन उपदेशों के संरक्षण में हमारा योगदान हो ।
उसके बाद परमपावन महाराज जी के साथ शिव मन्दिर पहुंचे जहां उन्होंने रुद्राभिषेक पूजन में हिस्सा लिया । इस पूजा के दौरान शिवलिंग को पुष्प और अन्य पवित्र द्रव्यों एवं पंचामृतों द्वारा अभिषेक किया गया ।
कुछ देर विश्राम करने के बाद परमपावन आश्रम के सभागार में पहुंचे जहां उन्होंने पत्रकारों एवं आश्रम के सदस्यों के प्रश्नों का उत्तर दिया । इस बिखरते हुये दुनिया को संभालने में भारत की क्या भूमिका हो सकती है, इस प्रश्न के उत्तर में परमपावन ने करुणा और अहिंसा के महत्त्व को स्पष्ट करते हुये कहा कि इन गुणों के कारण ही भारत आज विश्व में धार्मिक सद्भाव का एक मिसाल बना हुआ है । यही वे गुण हैं जिनसे राष्ट्र सुदृढ़ बनता है । परमपावन ने कहा कि भारत को असैन्यकरण का एक वैश्विक आन्दोलन छेड़ते हुये इसका नेतृत्व करना चाहिए ।
परमपावन ने आगे कहा कि विशेषकर भारत एक ऐसी परिस्थिति में है जिससे कि वह विज्ञान और तकनीक की आधुनिक शिक्षाओं के साथ-साथ प्राचीन भारत में विकसित मन और भावनाओं की क्रियाशैली पर आधारित ज्ञान को संघटित कर सकता है । आधुनिक शिक्षा अपने आप में पर्याप्त नहीं है क्योंकि यह आन्तरिक शांति को लाने में असफल रहा है । भारतीय धार्मिक परम्पराओं में दार्शनिक मतभेद होने के बावजूद भी सभी धर्म आन्तरिक मूल्यों पर केन्द्रित हैं जिस कारण आज तक यहां इनके मध्य सदभावना बनी रही है ।
परमपावन ने कहा कि युवाओं को छोटे उम्र से लेकर विश्वविद्यालयीय स्तर तक आन्तरिक मूल्यों की शिक्षा देनी चाहिए । करुणा और अहिंसा हमारे क्रोध निवारण का उत्तम उपाय हैं । इन आन्तरिक मानवीय मूल्यों को समझने के लिए धार्मिक बनने की आवश्यकता नहीं है । इन्हें एक शैक्षणिक योग्यता स्वरूप अपनाया जा सकता है । कोई धार्मिक बने या न बने वह उसका अपना व्यक्तिगत मसला है लेकिन सम्पूर्ण मानव जगत को मन की शांति की ज़रुरत है ।
महाराज जी ने परमपावन द्वारा मानव कल्याण के लिए प्रज्ञा और प्रेम की आवश्यकता पर ज़ोर देने तथा विश्वशांति की स्थापना में उनके अथक परिश्रम के लिए उनकी प्रशंसा की । उन्होंने कहा कि वे परमपावन द्वारा दया और करुणा को स्वयं में जागृत करने की शिक्षा का अत्यन्त समर्थन करते हैं । यही नहीं वे भारतीय परम्पराओं के साझा सन्देश के विचार पर भी परमपावन के विचारों से सहमत हैं । उन्होंने गीता के एक श्लोक का पाठ करते हुये कहा कि इस श्लोक में प्रज्ञा और प्रेम द्वारा क्रोध और मोह का किस प्रकार प्रतिकार किया जाता है यह बताया गया है ।
“ऐसा नहीं है कि हम सब परमपावन के शरीर के मांस और हड्डियों का आदर करते है, बल्कि हम सब उनमें निहित प्रज्ञा का आदर कर रहे हैं । चूंकि परमपावन सत्य और प्रज्ञा की प्रतिमूर्ति हैं, इसलिए सत्य के अनुयायी परमपावन के भी अनुयायी हैं । मैं परमपावन को इस आश्रम के एक गुरु समान मानता हूँ इसलिए यह आश्रम उनका है । वे जब चाहें यहां निवास कर सकते हैं ।”
महाराज जी एवं स्वामी चिदानन्द सरस्वती के साथ दोपहर भोजन के बाद परमपावन ने दिल्ली के लिए प्रस्थान किया ।