मनाली, हिमाचल प्रदेश, भारत – परमपावन दलाई लामा जब होन ङारी मठ से प्रवचन स्थल के लिए प्रस्थान कर रहे थे तो कल रात से लगातार हो रही बारिश कम होने लगी । मठ के निकट में स्थित नगर परिषद पार्किंग को प्रवचन स्थल बनाया गया था जहां पर एक मंच और दर्शकों के लिए पंडाल की व्यवस्था की गयी थी । ङारी मठ के मठाधीश एवं स्थानीय नेताओं ने उनका स्वागत किया तथा उनका मंच तक पदार्पण किया जहां से परमपावन ने उपस्थित श्रद्धालुओं एवं विभिन्न तिब्बती बौद्ध सम्प्रदाय के प्रतिनिधियों का अभिवादन किया । साक्या फुनछ़ोक फोडाङ से युवा दुङसे असंग रिन्पोछे भी सम्मिलित हुये थे ।
परमपावन मंच पर पधारते समय भिक्षुगण बौद्ध-दर्शन पर वाद-विवाद कर रहे थे । परमपावन के आसन ग्रहण करने के पश्चात् प्रार्थनाओं से वातावरण गूंज उठा ।
“आज होन ङारी मठ के निमंत्रण पर हम यहां मनाली आये हैं, जिसका गोमाङ मठ के भूतपूर्व मठाधीश के अनुरोध पर यहां पुनर्स्थापना हुयी है । यह अब एक ऐसा मठ बन चुका है जहां भिक्षु न केवल मूल ग्रन्थों को याद करते हैं बल्कि उनका अध्ययन भी करते हैं । ङारी मठ, दागपो शेडुबलिङ मठ और छोएखोर ग्याल मठ की स्थापना दूसरे दलाई लामा ज्ञालवा गेदुन ग्याछ़ो ने की थी । मुझे पतलीकुहल में पुनर्स्थापित दागपो शेडुपलिङ में जाने का अवसर मिला था और आज मैं यहां आकर प्रसन्न हूँ ।”
परमावन ने कहा कि यहां कुल्लु घाटी में बौद्ध काफी संख्या में हैं । बौद्धधर्म केवल श्रद्धा पर आधारित नहीं है - यह तर्क और युक्तियों पर आधारित धर्म है । उन्होंने कहा कि वे कभी भी यह नहीं कहते कि बौद्धधर्म सबसे अच्छा आध्यात्मिक धर्म है, क्योंकि रोगी को उसकी परिस्थिति के अनुसार दवाई दी जाती है- किसी भी धार्मिक परम्परा का प्रभाव व्यक्ति की मनोस्थिति के ऊपर निर्भर करता है ।
“आज हम यहां धर्म श्रवण के लिए एकत्रित हुये हैं, इसलिए गुरु और शिष्य दोनों को अपने मन में शुद्ध विचार उत्पन्न करना अत्यन्त ज़रुरी है । मैंने धर्म प्रवचनों में कितने बार भाग लिया है- इसकी संख्या को लेकर हमारे मन में दूसरों से किसी भी प्रकार की सम्मान और प्रतिष्ठा की इच्छा नहीं रखनी चाहिए । इसे त्रिरत्न के शरण गमन तथा दूसरों के हित साधने के संकल्प पर आधारित एक साधना के स्वरूप समझना चाहिए ।”
“बौद्ध परम्परा में यह कहा जाता है कि मातृभूत प्राणी आकाश पर्यन्त हैं । वे सभी सुख की आशा और दुःखों से मुक्ति पाने की इच्छा रखते हैं । इनमें इस धरती पर रहे सभी प्राणी जिसमें विशेषकर सात अरब मनुष्य सम्मिलित हैं और इनमें भी धर्म में विश्वास रखने वाले, न रखने वाले और संशयवादी तीन प्रकार के लोग हैं । जो धर्म में विश्वास न रखते हैं वे कभी-कभी कठिन परिस्थिति में असहाय सा पाते हैं, जबकि जो धर्म में विश्वास रखते हैं वे कठिनाईयों में भी धैर्य रख पाते हैं ।”
“भारत में धर्म के विचार का आविर्भाव हुआ और उससे अहिंसा का विचार उत्पन्न हुआ है । जब हम अहिंसा के बारे में विचार करते हैं तो स्वाभाविक रूप से हम करुणा के बारे में सोचते हैं । इसी प्रकार भारत में शमथ और विपश्यना साधना विकसित हुआ जो मन को नियंत्रित करने का उत्तम साधन है । शाक्यमुनि बुद्ध ने इन सभी साधनाओं को जगत कल्याण के लिए प्रभावी रूप से लोगों को बताया ।”
“पारसी, यहूदी, ईसाई और ईस्लाम पश्चित एशिया में विकसित हुये हैं जो अपने-अपने अनुयायियों को आशा और सहयोग प्रदान करते हैं । मनुष्य के चित्त में यह क्षमता है कि वह वस्तुओं का गम्भीर परीक्षण कर सकता है । आज के आधुनिक वैज्ञानिक जो वस्तुओं की वास्तविकता का परीक्षण करते हैं, धार्मिक विश्वास को चुनौती दे सकते हैं । तथागत बुद्ध ने कहा है- “भिक्षुओं अथवा विद्वानों ! जिस प्रकार स्वर्ण को तपाकर, काटकर तथा रगड़कर उसकी परीक्षा की जाती है उसी प्रकार मेरे वचनों को भी श्रद्धा मात्र से नहीं बल्कि भलीभांति परीक्षण करने के पश्चात् ही स्वीकार करना चाहिए ।”
“इसी को आधार बनाकर भारतीय नालन्दा के आचार्यों ने तर्क-वितर्क और विश्लेषण कर बुद्ध वचनों को भी नेयार्थ और नीतार्थ के अर्थों में विभाजित किया । यह इसलिए कि बुद्ध ने कई अवसरों पर अनुयायियों की मानसिक अवस्था के अनुरूप देशना की थी अथवा यह कह सकते हैं कि बुद्ध ने अपनी देशनाओं में कुछ उदाहरण या फिर अर्थों को ऐसे बताया था जिनका आशय शब्दशः न होकर दूसरे अर्थों में था । बुद्ध की ऐसी देशनाएं जो परमार्थ सत्य को निर्देशित करती हैं वे नीतार्थ तथा जो अन्यत्र विषयों को बताती हैं वे नेयार्थ कहा जाता है । इसलिए नालन्दा परम्परा में गम्भीर परीक्षण करना अत्यावश्यक है ।”
परमपावन ने कहा कि तथागत बुद्ध ने जब जन्म, बुढ़ापा, रोग और मरण के लक्षणों को देखा तो उन्होंने गृह त्याग दिया, राजकीय सुख-सुविधाओं को नकार दिया और एक गृहहीन भिक्षु बनकर वन में रहे तथा छह वर्ष की कठोर तपस्या के पश्चात् उन्हें बुद्धत्व की प्राप्ति हुयी । उन्हें जब बुद्धत्व की प्राप्ति हुयी तो उन्होंने इस प्रकार विचार किया- ‘गम्भीर एवं शांत, सभी प्रपञ्चों से रहित, असंस्कृत प्रभास्वर, मैंने अमृत रूपी धर्म का अधिगम किया है । यदि मैं इस धर्म की देशना करता हूँ तो कोई भी इसे समझ नहीं पायेगा । इसलिए मैं यहीं इस वन में मौन धारण किये रहता हूँ ।’
तथागत गौतम बुद्ध जब कौण्डिन्य इत्यादि पांच शिष्यों से मिले तो उन्होंने उन्हें चार्य आर्यसत्य के बारे में बताया । चार आर्यसत्य के विषय में आचार्य नागार्जुन ने कहा कि इसे कोई भी व्यक्ति आसानी से समझ सकता है जो प्रतीत्यसमुत्पाद को जान गया हो । चार आर्यसत्य जिसमें दुखः, दुःख की उत्पत्ति, निरोध और निरोधगामी मार्ग की देशना प्रथम धर्मचक्र प्रवर्तन के विषय हैं । बुद्ध ने इन सत्यों को, विशेषकर निरोध आर्यसत्य – दुःखो से पूर्ण रूप से मुक्ति – को दूसरे धर्मचक्र प्रवर्तन में विस्तार से देशना की थी ।
“चार आर्यसत्य और उनके सोलह आकार पाली और संस्कृत परम्परा दोनों के मूल आधार हैं । तथागत बुद्ध ने गृद्धकूट पर्वत पर विशेष बुद्धिमत्ता वाले समूह को प्रज्ञापारमिता पर आधारित दूसरा धर्मचक्र प्रवर्तन किया था । हृदय सूत्र प्रज्ञापारमिता के संक्षिप्त ग्रन्थ है । तथागत गौतम बुद्ध के पहले और दूसरे धर्मचक्र प्रवर्तनों के विषयों से ज्ञात होता है कि बुद्ध के शिक्षा कितने सूक्ष्म और गम्भीर हैं । तथागत बुद्ध ने वैशाली में तीसरे धर्मचक्र प्रवर्तन में सन्धिनिर्मोचन सूत्र और बुद्ध स्वभाव पर उपदेश दिया था । बुद्ध ने दूसरे धर्मचक्र प्रवर्तन में विषय की प्रभास्वरता या शून्यता पर देशना करने के बाद तीसरे धर्मचक्र प्रवर्तन में विषयी प्रभास्वरता या प्रभास्वर चित्त की देशना की । बुद्ध ने प्रभास्वर चित्त को अनुत्तरतंत्र में प्रभास्वरता और मायावी काय के योग के स्वरूप देशना की है ।”
“संस्कृत परम्परा परीक्षण और अन्वेषण पर बल देता है । जैसा कि आचार्य नागार्जुन कहते हैं – बुद्ध की देशनाएं दो सत्यों पर आधारित हैं । शरण-गमन और श्रद्धा एक व्यावहारिक चर्या है, जबकि एक वास्तविक मुक्ति के लिए इसको समझना होगा कि अज्ञानता ही हमारे सभी क्लेशों का कारण है । इन क्लेशों को दूर करने के लिए हमें वस्तुओं की वास्तविकता को समझना होगा- कि वे सभी एक दूसरे पर आश्रित होकर उत्पन्न होते हैं । अज्ञानता एक भ्रमित दृष्टि है जो वास्तविकता से मेल नहीं खाता है । चूंकि यह एक भ्रमित बुद्धि है इसलिए इसको दूर करने की प्रतिपक्ष विधि उपलब्ध है ।”
“चित्त में उत्पन्न होने वाले क्लेश और भ्रामक बुद्धि अस्थायी और आगंतुक हैं, जबकि चित्त स्वयं प्रभास्वर और इनसे अप्रभावित है । इसे तथागत बुद्ध ने अपने तीसरे धर्मचक्र प्रवर्तन में स्पष्ट किया है और अनुत्तरतंत्र के गुह्यसमाजतन्त्र में देशना की है कि ये सभी क्लेश 80 प्रकार के अवधारणाओं के कारण उत्पन्न होते हैं । जब तीन चरणों का- श्वेत आभास, रक्त वृद्धि और निर्वाण के निकट कृष्ण पर विराम लगता है तो 80 प्रकार के अवधारणाएं समाप्त हो जाती हैं और प्रभास्वर चित्त का प्रस्फुटन होता है । चूंकि क्लेशों को प्रज्ञा द्वारा समाप्त किया जा सकता है, तो यह स्पष्ट है कि निर्वाण की प्राप्ति सम्भव है ।”
“हृदय सूत्र में कहा है- ‘रूप शून्य है तथा शून्यता ही रूप है, रूप से अलग कोई शून्यता नहीं है तथा शून्यता से अलग कोई रूप नहीं है ।’ इसका अर्थ इस प्रकार है कि हालांकि वस्तुओं की अस्तित्व है, लेकिन जब उनकी अस्तित्व की लक्षण की खोज की जाती है तो वह हमें नहीं मिलता है, अर्थात् वस्तुओं का केवल आरोपित मात्र का अस्तित्व है । चितमात्र सिद्धान्तवादी यह कहते हैं कि जब आप किसी चीज़ के अस्तित्व की खोज करते हैं तो वह हमें नहीं मिलता है, क्योंकि वस्तुओं की बाह्य अस्तित्व होती ही नहीं है । जिस प्रकार भौतिक वस्तुओं का अस्तित्व नहीं है उसी प्रकार आन्तरिक चित्त का भी अस्तित्व नहीं है । चित्त का कोई भौतिक अस्तित्व नहीं है पर यह चित्तधारा की क्षण-प्रतिक्षण प्रवाह स्वरूप अस्तित्व में रहती है । क्वांटम भौतिक विज्ञान इसी तरह कहता है - कि कोई भी पदार्थ वस्तुनिष्ठ रूप से अस्तित्व में नहीं है, जो मेरे लिए शून्यता के ध्यान साधना में काफी उपयोगी सिद्ध हुआ है ।”
“माध्यमिक सिदान्तवादी वस्तुओं की स्वभाव सिद्धि का खण्डन करते हैं । आचार्य चन्द्रकीर्ति ने मध्यमकावतार ग्रन्थ में यह साबित किया है कि वस्तुओं की विषय की ओर से अस्तित्व नहीं होता है । माध्यमिक सिदान्तवादी एक रथ को सात प्रकार की युक्तियों द्वारा परीक्षण करने पर उसका अस्तित्व न मिलने पर कहते हैं, कि चूंकि हमारे दैनिकचर्या में इनका प्रभाव दिखाई देता है, इनका स्वाभाविक सिद्धि न होने पर भी इनका निमित्त मात्र का अस्तित्व होता है । रूप शून्य है तथा शून्यता ही रूप है क्योंकि सभी वस्तुएं एक दूसरे पर आश्रित हैं । वे हमें जैसे दिखाई देते हैं उसी रूप में अस्तित्व में नहीं हैं । इसलिए, चूंकि वे दूसरे प्रत्ययों पर आश्रित हैं, उनका कोई स्वाभाविक अस्तित्व नहीं है ।”
“आचार्य नागार्जन ने मूलमध्यमककारिका ग्रन्थ के प्रारम्भ में तथागत गौतम बुद्ध को प्रतीत्यसमुत्पाद की देशना करने के लिए वन्दना किया है और अन्त में सत्वों को भ्रामक बुद्धि से मुक्त करने की विधियों की देशना करने के लिए स्तुति की है । आचार्य बुद्धपालित और चन्द्रकीर्ति दोनों ने अपने-अपने शास्त्रों में वस्तुओं की आरोपित मात्र की सत्ता का विस्तारपूर्वक व्याख्या की है । आचार्य दिग्नाग एवं धर्मकीर्ति ने युक्तियों द्वारा बुद्ध की देशनाओं की प्रामाणिकता को सिद्ध किया है । आचार्य धर्मकीर्ति ने प्रमाणवर्तिक के दूसरे अध्याय में तर्क और युक्तियों द्वारा बुद्ध की विश्वसनीयता को सिद्ध किया है । यही बौद्धधर्म की विशेषता है ।”
परमपावन ने कहा- “आज मैंने बौद्धधर्म की सामान्य परिचय दिया है, लेकिन कल मैं तिब्बती, हिन्दी, अंग्रेज़ी और चीनी भाषा में प्रकाशित ग्रन्थ, जिन्हें श्रद्धालुओं के बीच वितरित किया गया है, उस पर प्रवचन दूंगा । जब हम बौद्धधर्म की साधना पक्ष की बात करते हैं तो उसके लिए बोधिचित्त- जो शून्यता को जानने वाली प्रज्ञा बल द्वारा समर्थित हो- उसको जानना अति आवश्यक है । आप लोगों को वितरित किये गये ग्रन्थ इन्हीं गम्भीर शिक्षाओं को बताते हैं ।”
“आत्मप्रशंसा और स्वार्थपूर्ण विचार हमें दुःखी और भयभीत करते हैं, जिसके परिणामस्वरूप हम दूसरों को एक शत्रु समझने लगते हैं । जब हम सभी को अपने मित्र स्वरूप देखते हैं तो हम सुखी और आनन्दमय जीवन जीते हैं । इसके लिए श्रवण, चिंतन और ध्यान – ये तीन प्रकार के विधियो द्वारा ज्ञान अर्जित करना आवश्यक है । ऐसे करने पर पांच प्रकार के मार्ग में जाने के लिए हम सक्षम हो जाते हैं । जैसा कि हृदय सूत्र में कहा गया है – तद्यथा गते-गते पारगते पारसम्गते बोधि स्वाहा । यहां पर गते-गते का यह शब्द सम्भार मार्ग, प्रयोग मार्ग तथा बोधिचित्त एवं शून्यता के प्रारम्भिक अनुभूति को इंगित करता है । पारगते का यह शब्द दर्शन मार्ग, शून्यता का सर्वप्रथम साक्षात् अवबोधन और प्रथम बोधिसत्व भूमि की प्राप्ति को इंगित करता है । पारसम्गते का यह शब्द भावना मार्ग और बोधिसत्व की अन्य भूमियों की प्राप्ति को इंगित करता है । बोधि स्वाहा का यह शब्द सम्यक निर्वाण के आधार सुनिश्चित करने को इंगित करता है ।