मथुरा, उत्तर प्रदेश, भारत – आज सुबह प्रातःकाल में ही परमपावन दलाई लामा ने सड़क मार्ग से मथुरा के लिए प्रस्थान किया जहां वे स्वामी कार्ष्णि गुरु श्रीशरणानंद जी महाराज के अतिथि थे । श्री उदासीन कार्ष्णि आश्रम पहुंचने पर आश्रम के सेवकों ने उन्हें उनके कक्ष तक ले गये जहां महाराज जी उपस्थित थे । अपने कक्ष में कुछ देर विश्राम करने के बाद परमपावन मुख्य कृष्ण मन्दिर में श्रद्धा-अर्पण करने के लिये गये । उसके बाद महाराज जी ने परमपावन को उनके अभिनन्दन में आयोजित समारोह के मंच पर बने आसन तक ले गये तथा मन्दिर के पुजारी ने पूजा-अनुष्ठान प्रारम्भ किया जिसमें परमपावन के चरणों को दूध, दही, केसर, घी और चंदन द्वारा प्रक्षालित किया गया । यह पूजा-अनुष्ठान चार वेदमंत्रों एवं गुरु पूजा के पाठ द्वारा किया गया । वहां उपस्थित जनसमूह को सम्बोधित करते हुये परमपावन ने कहा कि वे संस्कृत मंत्रोंचार से अत्यन्त प्रभावित हैं । परमपावन ने कहा-
“जब में युवा था तब मैंने संस्कृत के कलाप व्याकरण का अध्ययन किया था, हालांकि वह काफी कठिन था । भारत की प्राचीन दार्शनिक परम्पराओं में से एक सांख्य दार्शनिकों ने संस्कृत का प्रयोग किया और इसी प्रकार जैन और बौद्धों ने भी किया । बौद्ध साहित्य पाली और संस्कृत दोनों भाषाओं में लिखी गयी है । लेकिन नालन्दा विश्वविद्यालय के आचार्य नागार्जुन, आर्यअसंग एवं बुद्धपालित आदि ने संस्कृत में ही बौद्ध साहित्यिक ग्रन्थों की रचना की । दरअसल, आज के विद्वानों ने मुझसे कहा है कि आचार्य नागार्जुन के ‘मूलमध्यमककारिका’ और आचार्य धर्मकीर्ति के ‘प्रमाणवार्त्तिक’ की लेखन शैली अत्यन्त उच्च स्तरीय है । तिब्बत में हम जिन पञ्च महाविद्याओं का अध्ययन करते थे उनमें संस्कृत एवं व्याकरण भी शामिल था । इसलिए हम सब संस्कृत के प्रति अत्यन्त श्रद्धा भाव रखते हैं । मैं आप सभी को इस सुन्दर मंत्रोचार एवं पाठ के लिये धन्यवाद देता हूँ ।”
“भारतीय प्राचीन ज्ञान परम्परा के केन्द्र में ‘करुणा’ से अभिप्रेरित ‘अहिंसा’ था, जिसकी प्रासंगिकता आज भारत में ही नहीं बल्कि सम्पूर्ण विश्व में है । भारत के इन्हीं सदगुणों के चलते यह देश सदियों से धार्मिक सहिष्णुता का मिसाल बना हुआ है, जहां से दुनिया के देश सीख ले सकते हैं । भारतीयों को विज्ञान और तकनीक की शिक्षाओं के साथ-साथ प्राचीन भारत में विकसित मन और भावनाओं की क्रियाशैली पर आधारित ज्ञान का भी अध्ययन करना चाहिए । मुझे विश्वास है इससे धर्म को मानने वाले या न मानने वाले सभी 7 अरब लोगों को लाभ मिलेगा ।”
परमपावन ने उल्लेख किया कि वैज्ञानिकों का कहना है कि बुनियादी मानवीय स्वभाव करुणामय है । इसलिए हमरी शिक्षा व्यवस्था ऐसी होनी चाहिए जो इन मानवीय गुणों के विकास और विस्तार पर ध्यान दे । परमपावन ने कहा कि कितना अच्छा होता यदि छात्रों को आंगनवाड़ी से लेकर विश्वविद्यालयीय स्तर तक मानसिक शांति की प्राप्ति तथा विनाशकारी क्लेशों को दूर करने की विधियों से अवगत कराने के लिए भावनाओं की शुचिता हेतु प्रशिक्षित किया जाता । उन्होंने विश्वास जताया कि महाराज जी एवं आश्रम के सदस्यगण ऐसी प्राचीन परम्परा के संरक्षण में प्रयासरत हैं ।
परमपावन ने दोपहर का भोजन महाराज जी एवं आश्रम के बटुकों के साथ फर्श पर बैठकर किया । पारम्परिक रीति से पत्तों और मिट्टी के कटोंरों में भोजन परोसे जाने के बाद आश्रम के बटुकों ने अत्यन्त ही सुन्दर श्लोंको का उच्चारण किया ।
दोपहर भोजन के बाद परमपावन एवं महाराज जी ने कल के कार्यक्रम के बारे में संक्षिप्त चर्चा की जिसमें परमपावन ने आशा व्यक्त की कि कल सुबह वे एक साथ ध्यान साधना में कुछ समय बिता पायेंगे ।