थेगछेन छोएलिङ, धर्मशाला, हि. प्र- आज सुबह परमपावन के मुख्य मंदिर में पहुंचने के पूर्व ‘हृदय सूत्र’ का रूसी संघ के बौद्ध गणराज्य, कलमीकिया, बुरातिया और तुवा की भाषाओं में तीन बार पाठ हो चुका था । जब परमपावन पहुँचे तो उन्होंने श्रद्धेय लामाओं और श्रद्धालुओं का अभिवादन किया और सिंहासन पर आसन ग्रहण किया । एक बार फिर रूसी भाषा में 'हृदय सूत्र' का पाठ हुआ ।
परमपावन ने कहा “प्रवचन की इन श्रृंखलाओं की समाप्ति करने के लिए, आज हम बोधिचित्त उत्पन्न हेतु अनुष्ठान करेंगे । जहां तक बोधिचित्त का संबन्ध है, हमें यह समझने की आवश्यकता है कि हम एक ऐसी अवस्था को प्राप्त करना चाहते हैं जहां सभी क्लेशों और दोषों को समाप्त कर दिया गया है तथा पूर्ण बोध – सर्वज्ञता – की प्राप्ति हुयी है । बोधिचित्त उत्पन्न करने का लक्ष्य एक अद्वितीय बुद्धत्व की प्राप्ति है । आप सब संसार के प्राणियों के हित के लिए बुद्ध बनने की आकांक्षा रखते हैं । आचार्य चन्द्रकीर्ति मध्यमकावतार में लिखते हैं-
जो बोधिचित्त के प्रथम स्तर पर रहता है, वह,
श्रावक और प्रत्येकबुद्ध से पुण्य संचयन में,
श्रेष्ठतर है तथा उसका पुण्य अधिक संवृद्ध है ।
दूरंगमाभूमि प्राप्त करने पर वह अपनी बुद्धि में भी श्रेष्ठ बन जाता है ।
इसी तरह मध्यमकावतार के छठवां अध्याय के अन्त में वे लिखते हैं-
जिस प्रकार हंस के राजा के पिछे सभी हंस आगे बढ़ते हैं,
संवृत्ति एवं परमार्थरूपी चौड़े श्वेत पंखों को पूरी तरह फैलाकर ।
वे पुण्यबल के तेज पवन द्वारा उड़ते हुये,
मुनि-गुण स्वरूप समुद्र के अन्तिम छोर के उस पार जाते हैं ।
इसी तरह मध्यमकावतार के मंगलाचरण में आचार्य चन्द्रकीर्ति इन प्रभावशाली पंक्तियों को लिखते हुये करुणा की स्तुति करते हैं-
करुणा, अद्वयाभास की बुद्धि और,
बोधिचित्त जिनपुत्र के हेतु हैं ।”
“हमारी साधना में करुणा पूर्व में, मध्य में तथा अन्त में अत्यावश्यक तत्व है । मैत्रेय के प्रार्थना में उल्लेख है-
जिससे दुर्गति का मार्ग नष्ट होता है,
सुगति के मार्ग को प्रदर्शित करता है ।
तथा अजर-अमर में स्थापित करने वाले,
ऐसे बोधिचित्त को नमन है ।
तथागत बुद्ध के काल से ही जिन्होंने भी उनका अनुसरण किया सभी ने बोधिचित्त का उत्पाद किया है । इसीलिए बुद्धत्व के पथ पर हम बुद्ध को एक गुरु स्वरूप, धर्म को यथार्थ शरण और संघ- जैसेकि आचार्य नागार्जुन इत्यादि को एक मित्र के रूप में मानते हैं ।”
“बुद्धत्व की प्राप्ति के लिए हमें शून्यता का भी अभिज्ञान करना होगा । आचार्य नागार्जुन द्वारा प्रस्तुत मध्यममार्ग अत्यन्त ही महत्वपूर्ण है । आचार्य भावविवेक ने अपने मध्यमकहृदय ग्रन्थ में आर्यअसंग और आचार्य वसुबंधु द्वारा योगाचार की सिद्धांत की स्थापना करने पर उनकी आलोचना की है । यदि हम केवल आचार्य नागार्जुन के शास्त्रों का अध्ययन करते हैं तो हमें एक गम्भीर दर्शन का ज्ञान नहीं हो पायेगा क्योंकि दूसरे पक्ष द्वारा शास्त्रों में उठाये गये दार्शनिक चुनौतियों का निदान करने पर ही हमारे विवेक को व्यापकता तथा समृद्धि प्राप्त होती है । विभिन्न शास्त्रों का तुलनात्मक अध्ययन करने से हमारा दृष्टिकोण अधिक स्पष्ट हो जाता है ।”
“बुद्ध ने स्वयं पथ पर चलकर अपने अनुभवजन्य ज्ञान द्वारा किस प्रकार क्लेश, अविद्या और अवशिष्ट मलों का परित्याग करना है, उसकी देशना की है । चूंकि तथागत बुद्ध एक सर्वश्रेष्ठ गुरु हैं, यदि हम उनका अनुसरण करते हैं तो हम सब भी क्लशों का प्रहाण कर पायेंगे”
परमपावन ने 18वीं शताब्दी के लामा ञेनगोन सुंगराब द्वारा निर्दिष्ट उपभेद का सन्दर्भ देते हुये कहा “बौद्धधर्म की साधना में सामान्य बुद्ध शासन की प्रमुखता तथा व्यक्तिगत साधना की प्रमुखता दो प्रकार से भेद किया जा सकता है । सूत्र से संबन्धित देशनाएं तथा आचार्य नागार्जुन के 'मूलमध्यमककारिक' इत्यादि बुद्ध शासन की प्रमुखता के अन्तर्गत रखा जा सकता है जिसका कोई भी अनुसरण कर सकता है । तंत्र शास्त्र, जैसेकि कालचक्र- जिसमें नाड़ी, वायु, बिन्दु की व्याख्या है, व्यक्तिगत साधना की प्रमुखता के अन्तर्गत आता है ।”
परमपावन ने बोधिचितोत्पाद के अनुष्ठान के लिए बुद्ध एवं बोधिसत्वों तथा सभी परम्परागत गुरुओं का यहां साक्षात आकाश में विराजमान होने की परिकल्पना करने को कहा । तत्पश्चात् उन्होंने कहा कि ये सभी हमारे गम्भीर एवं व्यापक मार्ग की साधना में एक आदर्श स्वरूप हैं । उन्हें साक्षी मानकर बोधिचित्तोत्पाद करने से अनन्त पुण्यार्जन तथा ऊर्जा का संचार होता है । आचार्य शान्तिदेव बोधिचर्यावतार में बोधिचितोत्पाद की अनुशंसा का सारांश निकालते हुये कहते हैं –
इस लोक में जितने भी सुख हैं,
वे सब दूसरों की सुखेच्छा से उत्पन्न हुआ है ।
इस लोक में जितने भी दुःख हैं,
वे सब स्वयं की सुखेच्छा से उत्पन्न हुआ है ।
यदि मेरे सुख और दूसरों के दुःख को,
सम्यक् रूप से परिवर्तन नहीं करता हूँ ।
तो, बुद्धत्व की प्राप्ति नहीं होगी और,
संसार में भी सुख का अनुभव नहीं होगा ।
“हमें बोधिचित्त का मुख्य साधना के रूप में अभ्यास करना चाहिए । जब मैं लगभग 13 साल का था, ङोडुब छ़ोगञी के सक्रिय प्रोत्साहन से मैंने शून्यता में अत्यन्त ही रूचि ली, लेकिन ऐसा लगता था कि बोधिचित्त का अभ्यास मेरे लिए टेढ़ी खीर है । हालांकि, निर्वासन में आने के पश्चात् जब मुझे नेगी रिन्पोछे से बोधिचर्यावतार की व्याख्या प्राप्त हुयी तब से मैंने अपने दैनिक साधना में बोधिचित्त को अंगीकार करना आरम्भ कर दिया । इस तरह प्रयास करते हुये समय के साथ यह मेरे जीवन का एक अंग हो गया है । आप सबको भी ऐसा ही करना चाहिए । बोधिचित्त उत्पन्न कर उसका अभ्यास करते रहेंगे तो जो अनुभव मुझे हुआ है आपको भी होगा ।”
परमपावन ने सभी को अपने दाहिने घुटने के बल बैठने के लिए कहा, और इससे पूर्व बुद्ध, बोधिसत्व एवं परम्परागत गुरुओं की जो परिकल्पना की थी उस दृश्य का स्पष्ट रूप से स्मरण करते हुये सप्तांग पूजा का पाठ करने के लिए कहा जिसमें- वन्दना, पूजना, पापदेशना, अनुमोदन, धर्मचक्र प्रवर्तन हेतु अध्येषणा करना, अनिर्वाण प्राप्ति हेतु याचना, परिणामना । इसके बाद परमपावन ने सभी से इन श्लोंको को दोहराने के लिए कहा-
सभी सत्त्वों की मुक्ति के आशय से,
बुद्ध, धर्म और संघ में ।
बुद्धत्व की प्राप्ति तक,
सदैव शरण मैं जाता हूँ ।
प्रज्ञा और करुणा से युक्त होकर,
प्राणियों के हित के लिए वीर्यपूर्वक ।
बुद्ध के समक्ष स्थित रहकर,
बोधिचित्तोत्पाद करता हूँ ।
जब तक आकाश स्थित हो,
जब तक सत्त्व स्थित हो ।
तब तक मैं भी स्थित रहकर,
प्राणियों के दुःख दूर करुँ ।
अन्त में परमपावन ने वहां एकत्रित सभी लोगों को इन प्रार्थनाओं को प्रतिदिन सुबह और शाम तीन-तीन बार पाठ करने को कहा । उन्होंने आगे कहा कि किस तरह से प्रातःकाल में बोधिचित्तोत्पाद करने तथा बुद्धत्व प्राप्ति की कामना करने से पूरा दिन एक खुशनुमा ढ़ंग से बीतता है और आप अपना समय सार्थक रूप से दूसरों के कल्याण में लगा पाते हैं । और इस प्रकार शांम को आप उन कुशल कर्मों को सभी की भलाई के लिए परिणामना करते हुये प्रसन्न होंगे । परमपावन ने समन्तभद्र प्रणिधान के कुछ श्लोकों का पाठ करते हुये अपने प्रवचन को समाप्त किया ।