थेगछेन छोएलिङ, धर्मशाला, हि. प्र – आज मुख्य मन्दिर और उसके प्रांगण में अनुमानित तौर पर 7500 लोग एकत्रित हुये थे । परमपावन के मन्दिर पहुंचने के मार्ग को फूलों और गुलदस्ते की मालाओं से समृद्ध रूप से सजाया गया था । मन्दिर के खम्भे अत्यन्त ही भव्य रूप से रंग-बिरंगे कपड़ों में लिपटे हुए थे । परमपावन जैसे ही च़ुगलाखाङ में पधारे उनका टाशी-शोपा, ग्यालशे और लामो नर्तकियों ने बहुत ही भावपूर्ण ढ़ंग से अभिवादन किया ।
मन्दिर के अन्दर तिब्बत की धार्मिक परम्पराओं के प्रतिनिधि उपस्थित थे । बोन परम्परा से मेनरी लोपोन ठीनले ञीमा रिन्पोछे, गेलुक परम्परा से जांगच़े छोजे गोसोग रिन्पोछे, और गादेन ठी-रिन्पोछे जेच़ुन लोबज़ाङ तेनज़िन, साक्य परम्परा के साक्या ठीज़िन रत्ना वज्रा रिन्पोछे । इस तरह गेलुक परम्परा से शारपा छोजे लोबज़ाङ तेनज़िन, करमा काग्यु परम्परा से सीतु रिन्पोछे और ञीङमा परम्परा से रिंगु टुल्कु उपस्थित थे ।
परमपावन के सिंहासन के दायीं ओर गादेन ठीज़ुर रिज़ोङ रिन्पोछे तथा सेरा, गादेन, डेपुङ, टाशी लुन्पो, ग्युमेद तथा ग्युतोद मठों के मठाधीश मौजूद थे जबकि बायीं ओर वर्तमान तथा भूतपूर्व कालोन उपस्थित थे । परमपावन ने सिंहासन पर बैठने से पहले सभी को गहरी मुस्कान के साथ अभिवादन किया । श्रद्धालुओं को देखते हुए उन्होंने थाईलैंड के छह भिक्षुओं को देखा और निर्देश दिया कि उन्हें अन्य मठाधीशों के साथ मंच पर बिठाया जाये ।
इस समारोह आरम्भ करते हुये नामग्याल, ग्युतोद तथा कीर्ती मठ के भिक्षुओं ने नालन्दा के 17 महापण्डितों की स्तुति का पाठ किया । परमपावन की दीर्घायु की प्रार्थना का अनुष्ठान पांचवे परमपावन द्वारा रचित अमितायु अनुष्ठान पर आधारित था जिसका तिब्बती राष्ट्रीय नेछुङ ओरेकल ने तिब्बती नववर्ष के दौरान सुझाव दिया था ।
समारोह के इस क्रम में डाकिनियों के प्रस्थान के पश्चात् नेछुङ ओरेकल तथा दूसरे ओरेकल दोर्जे यामाक्योङ, ञेनछेन थाङला और खाराक ख्युङ छ़ुन नृत्य और प्रार्थना करते हुये परमपावन के पास पहुँचे । उनके पीछे तिब्बती धार्मिक परम्परा के प्रतिनिधि भी वहां पहुँचकर परमपावन को प्रार्थना और श्रद्धा भेंट किया ।
जब साक्या ठीज़िन परमपावन को दीर्घायु स्थिति की प्रार्थना अर्पण कर रहे थे निर्वासित तिब्बती प्रशासन के सीक्योङ डा. लोब्ज़ाङ साङगे भी उनके साथ खड़े थे । इन प्रार्थनाओं में उल्लेख किया गया था कि परमपावन तिब्बती लोगों के लिए अचिंतनीय रूप से दयालु हैं । तथा आपने पूरे विश्व को ज्ञान दिया है । आपने दुनियां की सभी धार्मिक परम्पराओं के मध्य धार्मिक सहिष्णुता को बढ़ावा देने, पर्यावरण की सुरक्षा और तिब्बती सांस्कृतिक विरासत के संरक्षण के के लिए अचिंतनीय कार्य किया है तथा अहिंसा के सिद्धान्त को स्थापित करने हेतु अनवरत प्रयास किया है । आपने कंग्युर और तेंग्युर संग्रह में निहित ज्ञान को दर्शन, विज्ञान और धर्म में वर्गीकृत कर सभी के हित के लिए धर्मनिरपेक्ष नैतिकता को बढ़ावा दिया है ।
प्रार्थना का अन्त इस प्रकार हुआ, “आपका जीवन एक अभेद्य वज्र के समान दृढ़ हो । तिब्बती लोगों का पुनर्मिलन हो और आप तिब्बत में लौटकर पोताला राजमहल के सिहांसन पर विराजमान हों । कृपया हमें जन्म-जन्मान्तर तक मार्गदर्शन करते रहें । हम आपसे हमारी प्रार्थना स्वीकार करने का अनुरोध करते हैं । इसके साथ ही साक्य ठीज़िन ने परमपावन को अमितायु की एक मूर्ति भेंट किया तथा आठ मंगल चिह्न, सात राज्य-रत्न और आठ मंगल द्रव्य भी भेंट किया । उसके बाद अन्य राजनीतिक प्रतिनिधियों और गन्यमान्य लोगों ने उन्हें खातक (तिब्बती पारम्परिक अंगवस्त्र) भेंट किया ।
परमपावन ने सभा को संबोधित करते हुये कहा “तिब्बत के तीन प्रांतों की जनता, आध्यात्मिक परम्पराओं के प्रतिनिधि और राजा ठीसोङ देच़ेन के समय शपथ लेने वाले देवताओं ने इस दीर्घायु पूजा का आयोजन किया है । मैं आप सभी को धन्यवाद देना चाहता हूँ ।”
“हाल ही में जब मैं अस्वस्थ हुआ तब तिब्बत में रह रहे तिब्बतियों तथा तिब्बत के बाहर रह रहे तिब्बतियों सहित दुनिया भर के कई लोगों ने मेरे लिए प्रार्थना की, फिर से मैं सभी को धन्यवाद देना चाहता हूँ । कर्म ऐसा है कि यदि आपने कुछ नहीं किया है, तो आप फल को नहीं भोगेंगे, और न ही किसी और के कर्म का फल आपको फलीभूत होगा । हालांकि, एक परिवार के भीतर घनिष्ठ सम्बन्ध तथा गुरु और शिष्यों के बीच के आतमीय सम्बन्ध का प्रभाव एक-दूसरे पर निश्चित रूप से पड़ता है । जिन लोगों ने मेरे लिए प्रार्थना की, उन्होंने ईमानदारी से किया है - मुझे यकीन है कि यह शक्तिशाली और प्रभावी रहा होगा । धन्यवाद ।”
“मैं अपने पिछले जीवन के बारे में बात नहीं कर सकता, लेकिन इस जीवन में मैं एक भिक्षु बना और मैंने शास्त्रों का अध्ययन और साधना की है । जैसेकि जे-रिन्पोछे ‘बुद्ध-स्तुति प्रतीत्यसमुत्पाद’ प्रार्थना के अन्त में लिखते हैं –
तथागत बुद्ध का अनुसरण कर एक भिक्षु बना,
बुद्धवचनों के अध्ययन में प्रमाद नहीं किया ।
योग आचरण में यत्न करने वाले एक भिक्षु,
महायोगी का इस प्रकार आदर करता है ।”
परमपावन ने नालंदा के 17 महापण्डितों के प्रति उनके गहरे सम्मान का उल्लेख किया । उन्होंने कहा कि पहले केवल छह अलंकार और दो श्रेष्ठों की स्तुति की जाती थी जिससे अन्य दूसरे आचार्यों की उपेक्षा हुयी थी जिनके कृतित्व का प्रभाव तिब्बत में रहा है । इसलिए उन्होंने नालान्दा के 17 महापण्डितों की स्तुति की रचना की और लोगों को उन आचार्यों के शास्त्रों का अध्ययन करने के लिए प्रोत्साहित किया ।
“मैंने शून्यता पर गम्भीर विचार किया है । मैं, मेरे सहायक ङोडुब छ़ोगञी के सक्रिय प्रोत्साहन का अत्यन्त ही आभारी हूँ । बाद में, जब मैंने दूसरे दलाई लामा द्वारा रचित 'सम्यक् दृष्टि का गायन' पर चिंतन किया और क्याबजे लिंङ रिन्पोछे को अपना अनुभव बताया, तो उन्होंने कहा कि 'बहुत ही जल्द आप 'गगन-योगी' होंगे । जैसेकि चोने लामा रिन्पोछे ने कहा है, 'मेरे गुरुओं के शरण में जाकर उनकी दया के कारण ही मैं शून्यता, चित्त के प्रभास्वरता और बोधिचित्त पर कुछ कह पा रहा हूँ ।”
“जहां तक बोधिचित्त का सवाल है, जब सन् 1967 में नेगी रिन्पोछे से ‘बोधिचर्यावतार’ की व्याख्या का श्रवण किया तब मैंने यह पाया कि मेरा चित्त परिवर्तन हो गया है । मुझे बोधिचित्त के व्यापक मार्ग और शून्यता के दर्शन का कुछ अनुभव हुआ है और मैंने इसे दूसरों के साथ साझा किया है क्योंकि इनके अनुभव से हमें लाभ मिलता है । मैं प्रतिदिन बोधिचित्तोत्पाद करता हूँ और आचार्य शांतिदेव के इन श्लोकों पर विचार करता हूँ -
इस लोक में जितने भी सुख हैं,
वे सब दूसरों की सुखेच्छा से उत्पन्न हुआ है ।
इस लोक में जितने भी दुःख हैं,
वे सब स्वयं की सुखेच्छा से उत्पन्न हुआ है ।
यदि मेरे सुख और दूसरों के दुःख को,
सम्यक् रूप से परिवर्तन नहीं करता हूँ ।
तो, बुद्धत्व की प्राप्ति नहीं होगी और,
संसार में भी सुख का अनुभव नहीं होगा ।
जब तक आकाश स्थित हो,
जब तक सत्त्व स्थित हो ।
तब तक मैं भी स्थित रहकर,
प्राणियों के दुःख दूर करुँ ।”
“इस जीवन में मैं तिब्बती लोगों और तिब्बती परम्परा की सेवा करने में सक्षम रहा हूँ और मैं दूसरों को यह दिखाने में सक्षम रहा हूँ कि एक परोपकारी चित्त हमारे लिए कितना लाभप्रद हो सकता है । शिकारी जानवर केवल तब शिकार करते हैं जब वे भूखे होते हैं, लेकिन मनुष्य लगभग किसी भी बहाने एक दूसरे को नुकसान पहुँचाते हैं । ऐसे सन्दर्भ में हमें अधिक परोपकारी बनने की आवश्यकता है ।”
परमपावन ने बुद्धवचन को उद्धृत करते हुए कहा, “बुद्ध ने कहा है - हे भिक्षुओं अथवा विद्वानों ! जिस प्रकार स्वर्ण को तपाकर, काटकर तथा रगड़कर उसकी परीक्षा की जाती है उसी प्रकार मेरे वचनों को भी श्रद्धा मात्र से नहीं बल्कि भलीभांति परीक्षण करने के पश्चात् ही स्वीकार करना चाहिए ।”
“केवल तथागत बुद्ध ने ही इस तरह के संदेहपूर्ण और तर्कपूर्ण दृष्टिकोण को प्रोत्साहित किया है । बुद्ध ने प्रथम धर्मचक्र प्रवर्तन में चार आर्यसत्यों और सैंतीस बोधिपाक्षिक धर्म और द्वितीय धर्मचक्र में प्रज्ञापारमिता की देशना तथा तृतीय धर्मचक्र प्रवर्तन में चित्त की प्रभास्वता की देशना की जो तन्त्र साधना का आधार है । इस प्रकार से बुद्ध ने अपने देशनाओं को विकासशील शैली में प्रवर्तन किया है ।”
परमपावन ने आगे कहा कि एक सामान्य मनुष्य के तौर पर उनकी पहली प्रतिबद्धता मनुष्य की सेवा है । एक बौद्ध होने के नाते उनकी दूसरी प्रतिबद्धता धार्मिक सौहार्द की भावना को बढ़ावा देना है जो भारत में लम्बे समय से अहिंसा और करुणा के रूप में फलता-फूलता रहा है । सभी धर्मों का उद्देश्य शांति की स्थापना करना है । परमपावन की तीसरी प्रतिबद्धता तिब्बत देश को लेकर है । एक तिब्बती के रूप में उन्होंने निर्वासन में तिब्बतियों को शिक्षित करने के लिए भरसक प्रयास किया है । हालाँकि, उनके लिए तिब्बत में बहुत प्रभावी होना कठिन था, निर्वासन में उन्होंने तिब्बत की सांस्कृतिक विरासत के संरक्षण और उसे समृद्ध करने के लिए जो किया जा सकता था वह उन्होंने किया है ।
“तिब्बत में बौद्धधर्म की एक सम्पूर्ण परम्परा - थेरवाद, महायान तथा तन्त्रयान की स्थापना हुयी है । भारतीय आचार्य शान्तरक्षित जो एक दार्शनिक तथा तर्कशास्त्री थे, उन्होंने तिब्बत में बौद्धधर्म की स्थापना की थी । आचार्य साक्य पण्डित ने उनका अनुसरण करते हुये एक अत्यन्त ही प्रभावशाली ‘हेतु और तर्कविद्या निधि’ नामक ग्रन्थ की रचना की । इसी के आधार पर ही आज हम आधुनिक वैज्ञानिकों के साथ पारस्परिक हित के लिए सफलतापूर्वक परिचर्चा कर रहे हैं । मैंने पिछेले 60 वर्षों में सभी के कल्याण के लिए कुछ योगदान दिया है, लेकिन तिब्बत में रह रहे लोगों की अद्मय उत्साह मेरी प्रेरणा रही है । यह उनकी वजह से ही है कि हम अपनी संस्कृति को जीवित रखने में सफल हुये हैं ।”
“प्रथम दलाई लामा, ग्यालवा गेदुनडुब 84 वर्ष तक जीवित रहे थे, उनकी इच्छा शुद्ध-क्षेत्र में पैदा होने की नहीं थी । चूंकि मेरे पास प्राणियों को लाभ पहुँचाने का अवसर है, इसलिए अच्छा होगा कि मैं लम्बे समय तक जीवित रह सकूँ । मैं ग्यालवा गेदुनडुब के आशीर्वाद के लिए उनसे प्रार्थना करता हूँ कि मैं 10-15 साल और जी सकूँ ।”
“एक बार मुझे एक सपना आया था जिसमें मैं तैर रहा था, भले ही मैं तैर नहीं सकता, और पालदेन ल्हामो मेरे पीठ पर सवार थे । उन्होंने कहा- 'इसमें कोई संदेह नहीं कि आप 110 साल की उम्र तक जीवित रहेंगे ।' अन्य लोगों ने भी सपना देखा है कि मैं 113 साल तक जीवित रह सकता हूँ । जैसा कि मैंने लद्दाख में लोगों से कहा- आप क्या पसंद करेंगे, कि आप मुझे यहां-वहां आने के लिए कहें या मैं लम्बे समय तक जीवित रहूँ ?
“आप सभी लोगों और देवताओं ने इस दीर्घायु प्रार्थना-अर्पण का आयोजन किया है । मुझे विश्वास है कि इसका सकारात्मक प्रभाव होगा और मुझे आशा है कि मैं 110 तक जीऊँगा ।”
अन्त में सभी के द्वारा ‘सत्य शब्द’ नामक ग्रन्थ का पाठ किया गया और इस दौरान पूर्व तथा वर्तमान मंत्रिमंडल के सदस्यों ने परमपावन के प्रति सम्मान व्यक्त करते हुए उनका दर्शन किया ।