नई दिल्ली, भारत – लामा थुपतेन येशे और लामा ज़ोदपा रिन्पोछे द्वारा स्थापित तुषित महायान ध्यान केन्द्र, दिल्ली के 40वें वर्षगांठ मनाने के लिए आज संस्था के सदस्यगण एवं समर्थक परमपावन दलाई लामा को समारोह में शामिल होने के लिए आमंत्रित करने पहुंचे। समारोह का आयोजन स्थल राजधानी के बीचोंबीच स्थित सेंट. कोलम्बा स्कूल में था जहां 5000 से भी अधिक संख्या में लोग मौजूद थे । इनमें दिल्ली के अन्य स्कूलों के छात्र भी परमपावन के सम्बोधन सुनने के लिए आये थे ।
परमपावन जब कार्यक्रम स्थल पर पहुंचे तब तुषित के निदेशक डॉ. रेणुका सिंह और सेंट. कोलम्बा स्कूल के प्राध्यापक ब्रो ईएल मिराण्डा ने उनका स्वागत किया । परमपावन ने मुस्कराते हुये हाथ जोड़कर श्रोताओं का अभिवादन कर आसन ग्रहण किया । परमपावन ने डॉ. रेणुका सिंह द्वारा उनके (परमपावन के) पुस्तकों से संकलित सुक्तियों से सुसज्जित ‘दैनिक प्रेरणा’ नामक पुस्तक का अनावरण किया । इस पुस्तक में वर्ष के प्रत्येक दिन के लिए प्रेरणादायी सुक्तियां अंकित हैं । परमपावन ने सभा को सम्बोधित करते हुये कहा-
“प्रिय भाईयों एवं बहनों, युवाओं और बुज़ुर्गों ।” परमपावन ने युवाओं से मिलने पर प्राप्त होने वाली खुशी के बारे में जिक्र करते हुये कहा कि वे अब 85 वर्ष के करीब पहूंच चुके हैं लेकिन युवाओं के साथ संवाद करके उन्हें भी युवा होने का एहसास होता है ।
“समय सदैव गतिशील होता है, इसे कोई रोक नहीं सकता । यहां प्रश्न यह है कि क्या हम समय का सदुपयोग कर रहे हैं या नहीं । हम अतीत को बदल नहीं सकते हैं लेकिन भविष्य में क्या होगा यह हमारे अभी के कर्मों पर निर्भर है । हम एक आनन्द और शांतिमय भविष्य या फिर संकटपूर्ण भविष्य का निर्माण कर सकते हैं । 21वीं सदी की पीढ़ियों के पास इस परिस्थिति का सामना करने के लिए अवसर और दायित्व दोनों हैं । हमारी अधिकतर समस्याओं, जैसे कि युद्ध इत्यादि, का कारण हम स्वयं हैं, इसलिए उन्हें दूर करने की क्षमता हममें है ।”
“युद्ध और हिंसा क्रोध, स्वार्थ और संकीर्ण विचारों से आती है । यदि हमें मानव मात्र की एकता की भावना पर बल देना है तो समाज में ‘हम’ और ‘वे’ का कोई स्थान नहीं होना चाहिए और न ही दूसरों को प्रताडित करने की गुंजाइश ।”
“मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है जो उस समुदाय पर निर्भर रहता है जहां वह जीवन यापन करता है । पूर्व में यह समुदाय केवल अपने स्थानीय क्षेत्रों तक सीमित था लेकिन अब विश्व के पूरे 7 अरब लोग एक समुदाय के रूप में हैं । बौद्ध सभी प्राणियों के सुख के लिए प्रार्थना करते हैं । यहूदी, ईसाई और इस्लाम के लोग पूरी सृष्टि को ईश्वर की रचना मानते हैं और सभी मनुष्यों को उस ईश्वर के बच्चों के रूप में देखते हैं । इसलिए सभी को अपने भाई और बहन स्वरूप मानते हैं । जैन, बौद्ध और कुछ सांख्य सिद्धान्तवादी सृष्टिकर्त्ता में विश्वास नहीं रखते हैं और करुणा और अहिंसा का आचरण कर अपने कर्म-बल पर विश्वास करते हैं । इन साधनाओं का अभ्यास करने पर स्वतः करुणावान और शांत चित्त वाले बन जाते हैं ।”
“हमारा आधुनिक शिक्षण व्यवस्था भौतिकता की ओर उन्मुख है, लेकिन हम इसे उस विद्या के साथ संयोजित कर सकते हैं जो मन को नियंत्रण करने तथा हानिकारक भावनाओं से सामना करने की शिक्षा देती है ।”
“आज यह अत्यन्त ज़रुरी है कि हम 21वीं सदी के बौद्ध बने, जो केवल श्रद्धा पर आश्रित न होकर तर्क और हेतुओं पर आश्रित हो । तथागत गौतम बुद्ध ने अपने अनुयायियों से कहा था कि बिना प्रश्न किये कुछ भी मत मानना तथा विश्लेषण और परिक्षण करने के बाद ही उसे स्वीकारना । बुद्ध ने व्यक्ति और वस्तुओं को स्वभाव शून्य कहा था, लेकिन अपने अनुयायियों को अपने स्तर पर परिक्षण करने का आग्रह किया था ।”
परमपावन ने चित्त शोधन की अष्टपदावली पर व्याख्यान प्रारम्भ करते हुये कहा कि हमें जीवन में बारम्बार इस प्रश्न को स्वयं से पूछना चाहिए कि ‘मैं’ कौन है, क्या है, कहां है? ग्रन्थ में आया यह पंक्ति- “हमें सदैव दूसरों को स्वयं से अधिक महत्त्व देना चाहिए”, हमारे स्वार्थपूर्ण विचारों को दूर करने में अत्यन्त उपयोगी है । एक सच्ची करुणा का परिक्षण तब होता है जब हमारा अपने शत्रुओं से सामना होता है । परमपावन ने एक घटना को याद करते हुये कहा कि जब सन् 2008 को ल्हासा में आन्दोलन के समाचार ने मुझे आशंकित किया तब मैंने यह साधना की थी । मैंने ऐसी कल्पना की कि मैं चीनी अधिकारी जो उस घटना में सम्मिलत थे उनके क्रोध और शत्रुता को अपने ऊपर ले रहा हूँ और उन्हें शांति और खुशी दे रहा हूँ ।
परमपावन के व्याख्यान के बाद डॉ. रेणुका सिंह ने श्रोताओं के प्रश्नों को ‘हां’ या ‘ना’ की विधि द्वारा पढ़ा-
प्रश्न- करुणा और प्रज्ञा में कौन पहले आता है ?
उत्तर- प्रज्ञा अपने विकास में समय लेता है, लेकिन आत्मीय भावना (करुणा) तुरन्त उत्पन्न होता है।
प्रश्न- आप स्वयं को कैसे देखते हैं ?
उत्तर- एक मनुष्य जैसा- आम्दो प्रांत से।
प्रश्न- हम परीक्षाओं की चिंता से कैसे निजात पा सकते हैं ?
उत्तर- जब मैं परीक्षाएं देता था तब मैं चिंतत होता था । लेकिन, मैंने 13 वर्ष तक अध्ययन किया है और जब भी परीक्षा का समय निर्धारित होता था, मैं गम्भीर होकर अध्ययन करता था, इसलिए मैं ज़्यादा चिंता नहीं करता था ।
प्रश्न- हम शिक्षा में कैसे सफल हो सकते हैं तथा मन की शांति कैसे प्राप्त कर सकते हैं ?
उत्तर- आप ऐसा विचार किजिए कि आप दूसरों की सेवा करने के लिए शिक्षा ग्रहण कर रहे हैं ।
प्रश्न- ऐसा विचार कि ‘मैं दूसरों से निम्न हूँ’, क्या यह निरुत्साह की ओर नहीं ले जायेगा ?
उत्तर- यदि आपने दूसरों के कल्याण के लिए ठानी है तो आप निरुत्साहित नहीं होंगे ।
प्रश्न- आज की इस अराजकता में, ऐसे कौन से तत्त्व हैं जो आपको मानवता में विश्ववास दिलाता है ?
उत्तर- हम सब एक सुखी जीवन जीना चाहते हैं, ऐसे में हमें स्वयं से पूछना चाहिए कि वे ऐसे कौन से तत्त्व हैं जिनसे हमारे सुखी जीवन सुनिश्चित होते हैं और जिनसे उसका पतन होता है ।
प्रश्न- छात्रों में मानसिक अवसाद के क्या कारण हैं ?
उत्तर- आत्मकेन्द्रित विचार और मन और भावनाओं के विषय में अज्ञानता ही इसके कारण हैं ।
प्रश्न- आज के युवाओं को ध्यान कितना आवश्यक है ?
उत्तर- यह अत्यन्त आवश्यक है । कक्षा के प्रारम्भ में मौन बैठकर मन के बारे में विचार करें ।
प्रश्न- गुरु आवश्यक क्यों हैं ?
उत्तर- तिब्बत के महान गुरु जे-च़ोंखापा ने ‘महा-मार्गक्रम’ में लिखा है कि जो दूसरों को अनुशासित करना चाहता हो उसे पहले स्वयं को अनुशासित करने आना चाहिए । और ‘उत्तरतंत्र’ ग्रन्थ में अंकित गुरु के दस गुणों में सबसे आवश्यक गुण गुरु का करुणावान और स्नेही होना लिखा है ।
प्रश्न- खुशी क्या है ?
उत्तर- यदि आप प्रफुल्लित रहते हैं तो समस्याओं से आपकी खुशी में कोई कमी नहीं आयेगी ।
प्रश्न- आप तिब्बत से कैसे सुरक्षित निकल पाये ?
उत्तर- यह एक लम्बी कहानी है । मैंने नौ वर्षों तक चीनियों से अच्छे सम्बन्ध बनाये रखने का प्रयास किया । यहां तक कि सन् 1954 को मैं चीन गया और वहां के पार्टी के नेताओं से मिला जिनमें माओं च़ेतुङ भी शामिल हैं । वहां चीन में आज़ादी नहीं था, पत्रकारों को आज़ादी नहीं था । 10-17 मार्च, 1959 तक मैंने स्थिति को शांत बनाने का प्रयास किया । चीनियों द्वारा तिब्बत के पूर्वी क्षेत्रों में हिंसापूर्वक दमन किया जा रहा था । और यह संकेत मिल रहे थे कि ल्हासा में भी इस प्रकार की दमनकारी हिंसा हो सकती है और परिस्थिति ऐसी थी की वहां से जाने का समय आ गया था ।
प्रश्न- शोक से कैसे निपटना चाहिए ?
उत्तर- बुद्ध का देहांत हुआ था । नागार्जुन का देहांत हुआ था । यह स्वाभाविक है ।
प्रश्न- क्या राष्ट्रवादी होना अच्छा है ?
उत्तर- आपको इस पर विचार करना चाहिए कि क्या यह संकीर्ण विचार, अदूरदर्शी भावना है, या फिर सभी के बारे में सोचने वाला एक व्यापक विचार । यह बहुत अच्छा विचार नहीं है, क्योंकि यह भेदभाव की ओर ले जाता है ।
सेंट. कोलम्बा स्कूल के प्राध्यापक ब्रो ईएल मिराण्डा ने धन्यवाद ज्ञापन किया तथा परमपावन से पुनः स्कूल में पधारने का अनुरोध किया । अन्त में एक आयरिश गान के साथ कार्यक्रम का समापन हुआ ।
पगडंडी आपसे मिलने के लिए खड़े हों,
हवा के झोंके सदैव आपके पिछे हों,
सूरज आपके चेहरे पर तेज विखेरती रहे ।
आपके खेतों में मन्द वर्षा बरसती रहे,
और जब तक दुबारा हम मिलें,
प्रभु आपको अपनी हथेलियों में पकड़े रखें ।