५ सितम्बर, २०१९
थेगछेन छोएलिङ, धर्मशाला, हि. प्र. – परमपावन दलाई लामा आज सुबह जब च़ुगलागखाङ में पहुंचे तो उन्होंने सबसे पहले वहां उपस्थित लामागण एवं अतिथियों का अभिवादन किया । उन्होंने सिंहासन ग्रहण करने से पहले मंच के किनारे आकर मुस्कुराते हुये श्रद्धालुओं की ओर हाथ हिलाया । इसके बाद थाई बौद्ध भिक्षुओं द्वारा पाली मे ‘मंगल सुत्त’ तथा वियतनाम के भिक्षुओं एवं जन-साधारण द्वारा वियतनामी में ‘हृदय सूत्र’ पाठ के साथ आज का सत्र प्रारम्भ हुआ ।
परमपावन ने तेज़ी से ‘प्रज्ञापारमिता स्तुति’ का पाठ किया-
अचिन्तनीय एवं अवर्णनीय प्रज्ञापारमिता,
अनुत्पन्न एवं अनिरोध गगन-स्वभाव,
विषय में प्रत्यात्मज्ञान वाले,
त्रिकाल जिन-जननी को नमन है ।
तद्यथा गते-गते पारगते पारसम्गते बोधि स्वाहा ।
परमपावन ने प्रवचन प्रारम्भ करते हुये कहा – “कल मैंने बोद्धधर्म पर सामान्य परिचय दिया था । आज हम ‘बोधिचित्त विवरण’ ग्रन्थ को पढ़ेंगे । इन प्रवचन-सत्रों को एक औपचारिक प्रवचन के बजाय मैं ऐसा विचार करना पसन्द करता हूँ कि मैं आप लोगों का कक्षा ले रहा हूँ । हम सब इस ग्रन्थ को पढ़ेंगे और बाद में आप लोगों को प्रश्न पूछने का अवसर होगा ।”
“इस ग्रन्थ के तीन परिच्यात्मक गद्य का पहला श्लोक गुह्यसमाजतन्त्र से लिया गया है । आचार्य नागार्जुन ने पहले इनका अध्ययन और अभ्यास किया तथा बाद में इसे लिखा है । उन्होंने चित्तोत्पाद के स्तरों की व्याख्या की तथा ‘पंचक्रमों’ में सम्यक् सम्बुद्ध के बारे में विस्तार से वर्णन किया है । उनके शिष्य आचार्य नागबोधि ने ‘क्रम-प्रस्तुति’ की रचना की जिसमें उन्होंने जन्म, मरण एवं पुनर्जन्म की तीन अवस्थाओं को बुद्ध के तीन कायों में परिवर्तित करने की विधियों को बताया है । इसी प्रकार आचार्य नागार्जुन के शिष्य आर्यदेव एवं चन्द्रकीर्ति ने भी गुह्यसमज पर टीकाएं लिखा है जो प्रज्ञा के स्रोत हैं ।”
“मुझे इस ‘बोधिचित्त विवरण’ ग्रन्थ का मुखागम भूतपूर्व गादेन-ठीपा रिज़ोङ रिन्पोछे से प्राप्त हुआ जो आज यहां पर उपस्थित हैं । संस्कृत में इसे बोधिचित्त विवरण कहते हैं । तिब्बत के राजा सोङच़ेन गाम्पो ने तिब्बती लेखन-भाषा का निर्माण किया और उसके बाद जब आचार्य शान्तरक्षित तिब्बत में आये तो उन्होंने राजा ठीसोङ देच़ेन से भारतीय बौद्ध साहित्यों को तिब्बती भाषा में अनुवाद करने का सुझाव दिया । तिब्बत के च़ाङ में स्थित साम्ये मठ में एक अलग से अनुवाद विभाग बनाया गया ।”
“जब से हम निर्वासन में आये हैं, हम तिब्बती लोगों ने विश्व के अन्य भूभाग में पूर्व की अपेक्षा व्यापक रूप से सम्बन्ध स्थापित किया है जिसके फलस्वरूप तिब्बती भाषा में उपलब्ध इन ग्रन्थों का विश्व के अन्य भाषाओं में अनुवाद हुआ है । हमने ऐसे साहित्यों का संरक्षण किया है जो आज विश्व के लिए बहुमूल्य उपहार स्वरूप है ।”
“हम इन थाई भिक्षुओं की भांति शील, समाधि और प्रज्ञा का अनुपालन करते हैं तथा साथ ही साथ नालन्दा परम्परा का अनुसरण करते है जो हेतु और कारणों पर आधारित अध्ययन परम्परा है । तिब्बत में पूर्व एवं बाद के दो बुद्ध-शासन प्रचलित हैं । आचार्य जे-च़ोङखापा ने पूर्व की इन शिक्षाओं का अध्ययन किया और गेलुग परम्परा की स्थापना की । सम्पूर्ण तिब्बत में बौद्ध साहित्यिक शास्त्रों को हेतु और कारणों पर आधारित कर अध्ययन किया जाता है । हमने बुद्ध की सभी शिक्षाओं को तन्त्र सहित जीवित रखा है ।”
“भगवान बुद्ध ने इस प्रकार विचार किया - ‘गम्भीर एवं शांत, सभी प्रपञ्चों से रहित, असंस्कृत प्रभास्वर, मैंने अमृत रूपी धर्म का अधिगम किया है । यदि मैं इस धर्म की देशना करता हूँ तो कोई भी इसे समझ नहीं पायेगा । इसलिए मैं यहीं इस वन में मौन धारण किये रहता हूँ ।’ इस ग्रन्थ का शिर्षक ‘बोधिचित्त’ केवल सांवृत्तिक बोधिचित्त को सन्दर्भित नहीं करता है बल्कि यह प्रभास्वर को भी निर्देशित करता है । इसमें भी चित्त के सूक्ष्म स्तर हैं और जो अति सूक्ष्म है वह स्वाभाविक और सहज प्रभास्वरता की उत्पत्ति को सन्दर्भित करता है । यह हमारा स्थूल चित्त नहीं है तथा यह बाद में बुद्धत्व चित्त में परिणत हो जाता है ।”
“परम प्रभास्वर चित्त शून्यता में समाहित हो जाता है जो क्लेशों के मूल का प्रतिपक्ष के रूप में कार्य करता है । इसे ही यहां बोधिचित्त कहा गया है । भगवान बुद्ध ने भिक्षु चीवर धारण कर अनेकों देशनाएं की है, लेकिन ऐसे अनेक अन्य देशनाएं हैं जिन्हें उन्होंने तांत्रिक देव के रूप में प्रकट होकर की है । इनके द्वारा हमारे स्थूल चित्त और ऊर्जा का निषेध कर स्वाभाविक प्रभास्वरता साक्षात्कार किया जाता है ।”
“सामान्य जन को मृत्यु के समय प्रभास्वर प्रदर्शित होता है, लेकिन, चूंकि तब उसके पश्चात् बुद्धत्व प्राप्ति की समीपस्थ कृष्ण-दृश्य की स्मृति न होने के कारण यह मार्ग में प्रशस्त नहीं हो पाता है, जबकि अभ्यस्त साधक मृत्यु के समय इसे केन्द्रीय नाड़ी के भीतर हृदय-चक्र में प्रदर्शित करते हैं । मृत्यु की ओर अग्रसर साधक तत्त्वों के विलय के दौरान ध्यानबल से 80 विकल्पनाओं का निरुद्ध कर प्रभास्वता को प्रदर्शित करते हैं । अपने जीवन काल में किये गये साधना के प्रभाव से वे समृति और सम्प्रजन्य को बनाये रखते हैं और प्रभास्वरता का साक्षात्कार करते हैं । ऐसे साधक नींद के दौरान भी प्रभास्वरता का साक्षात्कार करते हैं तथा इसे शून्यता के ध्यान में नियुक्त करते हैं । मृत्यु के दौरान विलयन की प्रक्रिया पर ध्यान करने तथा प्रभास्वरता को प्रदर्शित करने पर यह अति सूक्ष्म चित्त के क्लेशों के प्रतिपक्ष के रूप में कार्य करता है । इस प्रकार के सूक्ष्म चित्त का तन्त्र में विस्तृत व्याख्या है ।”
“अबौद्ध विचारक एक ऐसी आत्मा को मानते हैं जो नित्य, एकाकी और स्वतंत्र है । लेकिन, बौद्ध वैचारिकों ने इसका खण्डन करते हुये काय और चित्त के समन्वय को पुरुष के उपचारित आधार माना है । हालांकि, काय और चित्त का यह समन्वय वैसा नहीं है जैसाकि यह हमें दिखाई देता है और इसलिए जब तक इस पर आसक्ति रहेगी तब तक शून्यता का अवबोधन नहीं किया जा सकता है ।”
परमपावन ने ग्रन्थ पर प्रकाश डालते हुये कहा – “इस ग्रन्थ का विषय परम प्रभास्वर और शून्यता में संलग्न रहने की विधियों से सम्बन्धित है । सूत्र और तन्त्र दोनों में इन्हें सामान्य रूप से निर्देशित किया गया है । ऐसा चित्त जो सभी प्रकार के मलों और क्लेशों से मुक्त है वह असाधारण चित्त है । श्रावकयानी अर्हतों ने सूक्ष्म चित्त के आवरणों के मलों का त्याग नहीं किया है । इसलिए, इनके त्याग के लिए एक ऐसे बोधिचित्त उत्पाद करने की आवश्यकता होती है जो प्रभास्वरता से संयोजित हो । यह ग्रन्थ हमें यह शिक्षा देती है कि हमें दूसरों के कल्याण के लिए कार्य करना है ।”
“जब हम प्रभास्वर चित्त को शून्यता के ध्यान में संलग्न करते हैं तब चित्तमात्र वैचारिकों के दर्शन अनुसार साधना कर सकते हैं, लेकिन जब चित्त सूक्ष्म तथा एकांत अवस्था में पहुंचती है तब चित्तमात्र वैचारिकों का पक्षधर साधक का दृश्य माध्यमिक दर्शनवादी पक्षधर में परिवर्तित हो जाता है । जैसाकि आचार्य नागार्जुन लिखते हैं-
जो प्रतीत्यसमुत्पाद है,
उसे शून्यता कहा गया है ।
वह आश्रित होकर आरोपित है,
यही मध्यम मार्ग है ।
ऐसे कोई धर्म नहीं हैं,
जो प्रतीत्यसमुत्पन्न नहीं हैं ।
इसलिए, ऐसे कोई धर्म नहीं हैं,
जो शून्य नहीं हैं ।”
परमपावन ने ‘हृदय सूत्र’ में वर्णित आर्यावलोकितेश्वर के वाक्य को सन्दर्भित करते हुये कहा कि चार प्रकार की शून्यताएं हैं - रूप शून्य है, शून्यता रूप है । शून्यता रूपों के अलावा अन्य नहीं है और रूप भी शून्यता के अलावा अन्य नहीं हैं । यह काय और चित्त के संयोजन पर भी लागू होता है ।
“जब साधक को शून्यता का बोध होता है तो वह दर्शन मार्ग में प्रवेश करता है । उसके पश्चात् ऊपर के बोधिसत्व भूमियों में साधना करते हुये सातवीं भूमि पर पहुंचने पर सभी प्रकार के क्लेशों का निराकरण होता है । शून्यता का दर्शन उच्छेदवादी दर्शन नहीं है क्योंकि सभी पदार्थ एक दूसरे पर आश्रित होकर उत्पन्न होते हैं ।”
परमपावन ने कुछ प्रश्नों का उत्तर देते हुये कहा कि ‘हृदय सूत्र’ में वर्णित चार प्रकार की शून्यताओं का अर्थ खाली के अर्थ से नहीं है, क्योंकि शून्यता भी दूसरे प्रत्ययों पर आश्रित है- किसी भी पदार्थ को शून्य कहने के लिए उसका आश्रय होना आवश्यक है । उन्होंने कहा कि रूप और शून्यता एक ही स्वभाव के हैं, लेकिन वैचारिक तौर पर अलग-अलग हैं । उन्होंने स्पष्ट करते हुये कहा कि जब हम यह कहते हैं कि किसी पदार्थ को ढूंढ़ा नहीं जा सकता तो इसका अर्थ यह नहीं है कि वह पदार्थ अस्तित्व में ही नहीं है । उन्होंने तिब्बत के विद्वान डोम्तोन्पा के एक उदाहरण का सन्दर्भ देते हुये कहा कि हाथ और आग स्वभाव सिद्ध नहीं हैं, लेकिन यदि हम अपने हाथ को आग में लगाते हैं तो वह जल जायेगा । विश्लेषण करने पर हमें हाथ और आग की स्वभाव सत्ता प्राप्त नहीं होगी । लेकिन ये दोनों सांवृत्तिक रूप से अस्तित्व में हैं ।
दैनिक जीवन में बोधिचित्त उत्पन्न से सम्बन्धित एक दूसरे प्रश्न के उत्तर में परमपावन ने कहा कि जब हमें यह समझ आती है कि हमारे इन दुःखो से मुक्ति पाने के उपाय हैं, तो दूसरों की सहायता करने के लिए हमें तत्पर रहना चाहिए । बोधिचित्त प्रेम और करुणा के विचारों पर आधारित है । इसे सभी धर्मों में बताया गया है, लेकिन विशेषकर इसमें बुद्धत्व प्राप्ति की इच्छा होना ज़रुरी है जिससे दूसरों का सबसे उत्तम उपाय द्वारा कल्याण किया जा सके ।
कल परमपावन ‘बोधिचित्त विवरण’ ग्रन्थ पर प्रवचन जारी रखेंगे ।