पदुम, जांस्कर, जम्मू-कश्मीर, भारत, परम पावन दलाई लामा ने आज प्रातः अपने निवास से निकलते समय कई लोगों के समूह में से, जो उनकी प्रतीक्षा कर रहे थे, तिब्बती चिल्डर्न विलेज स्कूल के पूर्व छात्रों से बात करने के लिए समय निकाला। उन्होंने उन्हें स्मरण कराया कि चीन के साथ उपयोगी संबंधों के बावजूद, तिब्बत के धार्मिक राजाओं ने भोट भाषा और साहित्य को विकसित करने के लिए भारतीय स्रोतों को आधार के रूप में चुना। इसी तरह, उन्होंने तिब्बत में बौद्ध धर्म स्थापित करने के लिए भारत से शिक्षकों को आमंत्रित किया था। परिणामस्वरूप हिम भूमि वह स्थान है जहां नालंदा परम्परा, कारण व तर्क के आधार पर बुद्ध की शिक्षाओं के दृष्टिकोण को जीवित रखा गया है। उन्होंने उनसे बौद्ध विचारों को व्यक्त करने और उसके अध्ययन में कारण और तर्क की महत्वपूर्ण भूमिका के रूप में भोट भाषा के मूल्य को सबसे सटीक माध्यम के रूप में स्मरण रखने का आग्रह किया।
परम पावन अंजुमन मोएन-उल-इस्लाम के निमंत्रण पर गाड़ी से पदम में मॉडल पब्लिक स्कूल गए। उनके प्रवक्ता ने परम पावन को बताया कि शांति, सांप्रदायिक सद्भाव और भातृत्व के अवतार के रूप में उनका स्वागत करते हुए वे कितने खुश थे।
परम पावन ने उत्तर दिया, "मैं भी यहां एक बार पुनः आकर और अपने मुसलमान भाइयों और बहनों के साथ कुछ समय बिताते हुए खुश हूं। मैं जहां भी जाता हूं, मानवता की एकता के बारे में बात करता हूं - कि किस तरह हम सभी मनुष्य शारीरिक, मानसिक और भावनात्मक रूप से समान होते हैं। हर कोई एक सुखी जीवन जीना चाहता है और कोई भी दुःख नहीं चाहता। परन्तु महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि किस तरह सुख प्राप्त करें और दुःख को कम करें?
"यह बाहर से, धन तथा ख्याति से नहीं आता। जो लोग ऐन्द्रिक अनुभव के आधार पर स्थायी सुख खोजने के बारे में सोचते हैं और वे जो सुंदर चीजें देखते या सुनते हैं, स्वाद और सुगंध या स्पर्श करने पर निर्भर होते हैं, वे निराश हो सकते हैं। चाहे आप सभी ऐन्द्रिक सुखों के बारे में सोच सकें, जो आपके लिए उपलब्ध हो जाएं, पर यदि आपका चित्त परेशान और विचिलत हो तो वे आपको सुख न दे पाएंगे। क्या आप यह उन लोगों के बीच देखते हैं जिन्हें आप जानते हैं? क्या यह सच नहीं है कि ऐसे लोग हैं जिनके पास वह सब कुछ है जिसकी वे इच्छा करते हैं पर फिर भी वे चिंतित, तनावग्रस्त और परेशान रहते हैं? दूसरी ओर हम सभी उन परिवारों के बारे में जानते हैं जो खास सम्पन्न नहीं हैं, पर सुखी हैं क्योंकि उनमें सौहार्दता है और वे एक दूसरे के प्रति प्रेम व स्नेह रखते हैं।
"एक कैथोलिक भिक्षु थे जिसने अपने मठ के ऊपर पहाड़ों में रहते हुए पांच वर्ष बिताए थे जो केवल अल्प भोजन और सुविधाओं पर जीवित थे - लगभग कोई ऐन्द्रिक सुख नहीं। मैंने उनसे उनके अभ्यास के बारे में पूछा और जब उन्होंने मुझे बताया कि वे प्रेम पर ध्यान करते थे तो उनकी आंखों की चमक ने स्पष्ट कर दिया कि उन्हें सच्चा सुख प्राप्त हुआ है।
"मैं अब एक वृद्ध व्यक्ति हूं और सोलह वर्ष की आयु से मुझे कठिनाइयों का सामना करना पड़ा है, पर मैंने चित्त की शांति उत्पन्न करने का प्रयास करना बहुत उपयोगी पाया है।
"भाइयों और बहनों आधुनिक विश्व में भौतिक उद्देश्यों पर बहुत अधिक बल दिया जाता है जबकि हमारे लिए बेहतर होगा यदि अपनी भावनाओं से निपटना सीखें। जिस प्रकार हमारी शिक्षा में शारीरिक रूप से ठीक रहने के लिए बुनियादी स्वच्छता का प्रशिक्षण शामिल है, हमें मानसिक रूप से ठीक रहने के लिए एक तरह की भावनात्मक स्वच्छता की आवश्यकता है। शमथ तथा विपश्यना के अभ्यास से आए प्राचीन भारतीय ज्ञान में चित्त तथा भावनाओं के प्रकार्य के बारे में बहुत कुछ शामिल है। हम आज के अकादमिक, धर्मनिरपेक्ष संदर्भ में इसका अच्छा उपयोग कर सकते हैं।"
परम पावन ने उल्लेख किया कि वैज्ञानिकों को प्रमाण मिल रहे हैं जो सुझाते हैं कि आधारभूत मानव प्रकृति करुणाशील है। उन्होंने कहा कि यह उन सभी का आम अनुभव है जिन्होंने अपने जन्म के क्षण से अपनी मां के प्रेम व स्नेह का आनंद प्राप्त किया है। वैज्ञानिकों ने यह भी पाया है कि जहाँ निरन्तर क्रोध और घृणा हमारी प्रतिरक्षा प्रणाली को दुर्बल करती है, करुणा के विकास से हमारे शारीरिक और मानसिक लाभ बढ़ जाते हैं।
इस तथ्य की ओर इशारा करते हुए कि भारत में विश्व के सभी प्रमुख धर्म फलते फूलते हैं, जो स्वदेशी हैं और जो कहीं और से आए हैं, परम पावन ने घोषणा की कि यह भारत की महानता का अंग है कि ये परम्पराएं सद्भावपूर्ण ढंग से एक साथ रहती हैं। यह बाकी के विश्व के लिए एक उदाहरण है।
"लद्दाख में बौद्धों और मुसलमानों के बीच कुछ मनमुटाव हुआ है और यहां तक कि यहां जांस्कर में भी। फिर भी हमारे सभी धर्म एक ही संदेश सम्प्रेषित करते हैं, प्रेम, करुणा और संतुष्टि का प्रोत्साहन। अतः हमारे लिए मैत्री तथा सद्भाव से एक साथ रहने में सक्षम होना चाहिए। यह समुदाय में अधिक प्रगति और विकास में योगदान देगा। स्वयं को जांस्करियों के रूप में सोचें। मुस्लिम और बौद्ध प्रतिनिधियों के बीच में हाल की बैठक और उनके बीच मतभेदों को सुलझाने के उनके प्रस्ताव की सूचना मुझे मिली है और मैं इसकी सराहना करता हूं।
"बस इतना ही, धन्यवाद," परम पावन ने तालियों की गूंज के बीच समाप्त किया। "यदि आप अपनी जगह बैठे रहें तो मैं आप के बीच आकर खड़ा हूंगा और हम एक साथ तसवीर ले सकते हैं।"
परम पावन का अगला पड़ाव नई चिकित्सा सुविधा थी जो तिब्बती चिकित्सा एवं ज्योतिष संस्थान के नाम से जाना जाता है। श्रद्धेय छोसफल ज़ोपा ने खचाखच भरे जनमानस को बताया कि परम पावन की दया के कारण पारंपरिक तिब्बती और एलोपैथिक उपचार प्रदान करने वाली संस्था का प्रारंभ हुआ था। उन्होंने उनको धन्यवाद दिया और न केवल उनसे पुनः जांस्कर लौटने का अपितु एक बार पुनः कालचक्र अभिषेक प्रदान करने का भी अनुरोध किया।
"परम पावन ने उत्तर दिया," चूंकि इस तरह के एक दूरस्थ स्थान पर उचित स्वास्थ्य सेवा प्राप्त करना मुश्किल था, अतः हमने पारम्परिक सोवा रिगपा और एलोपैथिक उपचार प्रदान करने के लिए सुविधाओं के स्थापना की चर्चा की। "मुझे यह जानकर बहुत खुशी हुई कि यह सहायक प्रमाणित हो रहा है। मैं विशेष रूप से चिकित्सा कर्मियों को आपके सभी अच्छे कामों के लिए धन्यवाद देना चाहता हूँ।
"मैं नालंदा परम्परा का अनुयायी हूं, कारण और तर्क में प्रशिक्षित हूं, जिसने मुझे मेरी यहां की यदा कदा यात्राओं पर चीजों को स्पष्ट रूप से देखने में सक्षम बनाया है। मेरे पास कहने के लिए बहुत कुछ नहीं है, पर मैं देख सकता हूं कि आपने मुझे समझा है और मेरी सलाह का पालन किया है। मैंने भिक्षु विहारों और भिक्षुणी विहारों में बौद्ध शिक्षाओं के गहन अध्ययन को प्रोत्साहित किया है और अब आम लोग भी रुचि दिखा रहे हैं।
"जो दार्शनिक और मनोवैज्ञानिक विचार हम बौद्ध ग्रंथों में देखते हैं उन्हें मात्र धार्मिक दृष्टिकोण से देखने की आवश्यकता नहीं है। इनका अध्ययन एक व्यावहारिक शैक्षणिक रूप में भी किया जा सकता है। इसी कारण मैंने सुझाया है कि पंडित नेहरू के समय स्थापित तिब्बती विद्यालयों में धार्मिक शिक्षकों की बजाय अब हमें दर्शन के प्रशिक्षकों की नियुक्ति करनी चाहिए। प्रेम व करुणा के संबंध में सलाह के अतिरिक्त जो सभी धर्मों में आम है, बौद्ध धर्म नैरात्म्य के बारे में समझाता है। और यह कुछ ऐसा है जिससे सब सीख सकते हैं।
"मैंने अभी मुसलमान स्कूल में पर्यावरण की देखभाल करने की आवश्यकता के बारे में बात की थी। मैंने उल्लेख किया है कि धर्मशाला में जहां मैं रहता हूँ वहां बहुत कम बर्फ पड़ती है। शायद यहां भी वही है। हमें जल की आपूर्ति को सुनिश्चित करने के लिए जलाशयों को तैयार करने की आवश्यकता है। दस वर्षों में वस्तु स्थिति और अधिक बिगड़ सकती है तथा लद्दाख और जांस्कर में आपको जल के संबंध में गंभीर कठिनाइयों का सामना करना पड़ सकता है। वृक्षारोपण करने तथा जल संचयन को क्रियान्वित करने की आवश्यकता है।
"जब मैंने इज़राइल की यात्रा की तो मैंने देखा कि किस तरह इजरायली आवासों में उनके पास अधिकतम प्रभाव के लिए पानी की हर बूंद के उपयोग के उपाय हैं, अतः उनका परिवेश हरा भरा है। इस बीच फिलीस्तीनी इलाके शुष्क रेगिस्तान की तरह थे। शायद इज़राइली विशेषज्ञता यहां सहायक हो सकती है।
"जलवायु परिवर्तन का अर्थ है कि हम विगत १००० वर्षों से जिस तरह रहते आए हैं, उस तरह और नहीं रह सकते। मौसम पहले से कहीं अधिक गर्म है, पर साथ ही हम अत्यधिक वर्षा के कारण बाढ़ का सामना कर रहे हैं। प्राकृतिक आपदाएं बढ़ रही हैं और ऐसा लगता है कि जलवायु परिवर्तन तथा वैश्विक उष्णीकरण के और बिगड़ने की संभावना है।
"११ बज चुके हैं और मुझे जाना होगा। खुश रहें। यद्यपि श्रद्धेय छोसफल ज़ोपा ने मुझसे लौटने और पुनः कलचक्र देने के लिए कहा है, पर यह मुश्किल हो सकता है। पर मैं पुनः आ पाऊं अथवा नहीं, मैं आपको नहीं भूलूंगा।"
पदुम के एक अन्य कोने में लमडोन मॉडल स्कूल में, स्कूल के अध्यक्ष गेशे दमछो ने एक संक्षिप्त परिचय दिया। उन्होंने उल्लेख किया कि स्कूल की स्थापना १९८८ में हुई थी और तब से ८७० छात्रों ने स्नातक की उपाधि प्राप्त की है। इनमें से आठ एमबीबीएस चिकित्सा प्रशिक्षण में गए थे, सात छात्रों ने विभिन्न विषयों में पीएचडी का चयन किया और कई अन्य भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आईआईटी) में प्रवेश लिया। उन्होंने परम पावन से छात्रों और कर्मचारियों को संबोधित करने का अनुरोध किया।
"हिमालयी क्षेत्र के लोग साधारणतया उसी संस्कृति का पालन करते हैं जैसे हम तिब्बती" परम पावन ने प्रारंभ किया। "पर आप अपनी संस्कृति और धर्म को संरक्षित करने के लिए स्वतंत्र हैं। हम तिब्बतियों ने अपना देश खो दिया है और हर तरह की कठिनाइयों का सामना कर रहे हैं, पर वस्तु स्थिति में परिवर्तन होगा। कुछ महीनों पूर्व श्रीनगर से एक तिब्बती मुसलमान मुझे देखने आया था। परिष्कृत ल्हासा बोली में उसने पूछा, 'रिनपोछे, हम ल्हासा कब लौटेंगे?' वह भी हमारी तरह अपनी मातृभूमि को नहीं भूला है।
"जैसा मैं कह रहा था, हिमालय क्षेत्र के लोग तिब्बत की बौद्ध परंपराओं का पालन करते हैं, नालंदा परम्परा। मैंने सुझाव सुना है कि कंग्यूर और तेंग्यूर को सिक्किमी और लद्दाखी बोलियों में अनुवाद किया जाना चाहिए, पर लोगों के लिए भोट भाषा को समझना या उसकी समझ में सुधार करना अपेक्षाकृत सरल होगा। यदि आप भाषा की अपनी समझ को अनदेखा करते हैं तो आप के लिए जो शास्त्र कह रहे हैं उसे समझना और समझाना कठिन होगा। जैसे की उक्ति है 'यदि आपके हाथ में एक रत्न है पर आप इसके मूल्य को पहचानने में विफल रहते हैं, इसके खोने के बाद शिकायत करने में कोई औचित्य नहीं है।' हाल ही में, तवांग फाउंडेशन ने हिमालय में मंदिरों तथा विहारों को शिक्षण केंद्रों के रूप में विस्तारित करने की योजना की घोषणा की है, जो एक उत्तम बात है।
"विगत ५० या ६० वर्षों में लद्दाख और जांस्कर दोनों ने महत्वपूर्ण भौतिक प्रगति देखी है जिसमें इस तरह के स्कूलों की स्थापना शामिल है। मैं बच्चों को शिक्षित करने में शिक्षकों तथा कर्मचारियों सभी के प्रयासों की सराहना करता हूं। मुझे यह देखते हुए भी हर्ष होता है कि जब शिक्षा की बात आती है तो कोई धार्मिक भेदभाव नहीं है और स्कूल मुस्लिम छात्रों को भी प्रवेश देता है।"
परम पावन ने पूछा कि क्या छात्र 'मंजुश्री स्तुति' जानते थे और यह सुनकर कि वे जानते थे, उन्होंने सुझाया कि वे उनके साथ इसका पाठ करें। उन्होंने उनसे अपने सर के ऊपर मंजुश्री की कल्पना करने के लिए और यह कल्पना करने के लिए कहा कि उनसे आती प्रकाश की किरणें उनके ज्ञान और बुद्धि को बढ़ा रही हैं। उसके बाद उन्होंने मंजुश्री मंत्र ऊँ अरपचनधीः के पाठ में उनका नेतृत्व किया।
तत्पश्चात 'सत्य के शब्दों की प्रार्थना' का एक भाव प्रवण पाठ हुआ जिसमें सबसे छोटे बच्चों ने भी उत्साहपूर्वक गीत की धुन पर शब्दों का उच्चारण किया। अंत में प्रार्थना एक इच्छा व्यक्त करती है: 'प्रणिधि की सभी व्यापक प्रार्थनाएं जो नाथ अवलोकितेश्वर ने बौद्धों और उनके बोधिसत्व वंशज की उपस्थिति में तिब्बत के लिए की थी, अभी त्वरित रूप से यहां फलित हों।' परम पावन ने टिप्पणी की, कि कई चीनी जो सही तथा गलत का अंतर करने में सक्षम हैं जो तिब्बत की समस्या के समाधान का एक उपाय खोज सकते हैं। परन्तु, अज्ञानतावश कुछ ऐसे लोग हैं जो सोचते हैं कि इसका बलपूर्वक समाधान निकाला जाना चाहिए। यह सत्तावादी सोच का एक पहलू है जिसे बदलना होगा।
"तिब्बती धर्म और संस्कृति में चीनी लोगों को लाभान्वित करने की संभावना है। भौतिक विकास के मामले में, चीन तिब्बत की सहायता कर सकता है। यह आधार है कि हम अलग होने की मांग नहीं कर रहे हैं, अपितु पारस्परिक लाभ हेतु एक समाधान ढूंढ रहे हैं।
"इस संबंध में मैं वास्तव में यूरोपीय संघ की प्रशंसा करता हूं, जिसे द्वितीय विश्व युद्ध के बाद स्थापित किया गया था। परिणामस्वरूप पूर्व वैरियों के बीच ७० वर्षों से शांति बनी हुई है। युद्ध के बाद, राष्ट्रपति डी गॉल और चांसलर एडनॉयर ने सामान्य समझ से काम लिया। वे समझ गए कि राष्ट्रीय संप्रभुता पर संकीर्ण रूप से ध्यान केन्द्रित करने की बजाय एक आम हित की खोज बेहतर थी। जिस यूरोपीय संघ को उन्होंने साकार किया वह एक अद्भुत उपलब्धि है।
"७वीं, ८वीं और ९वीं सदी में, चीनी इतिहास पुस्तकें चीन, मंगोलिया और तिब्बत को तीन संप्रभुता राष्ट्र के रूप में चित्रित करती हैं। तांग से लेकर मांचू राजवंश के चीनी अभिलेखों में कोई उल्लेख नहीं है कि तिब्बत चीन का हिस्सा है। १९७४ से हमने चीन से अलगाव की मांग नहीं की है। परन्तु चीनी संविधान द्वारा हमें दिए गए अधिकारों को पूरा किया जाना चाहिए। इस समय चीन परिवर्तित हो रहा है और हमारा द्वार खुला है।
"चीनी कट्टरपंथी दलाई लामा को 'अलगाववादी' के रूप में संदर्भित करते रहते हैं, परन्तु सम्पूर्ण विश्व जानता है कि यह सच नहीं है। संभवतः वे नहीं जानते कि अपनी धुन कैसे बदलें, या फिर किसी भी तरह से यह कहना जारी रखना उनके लिए उपयोगी है। जो भी हो उनकी आलोचना कम हो रही है। चाहे अगला वर्ष या उसके बाद का वर्ष हो, मेरा विश्वास है कि परिवर्तन आएगा।"
परम पावन फिर मध्याह्न के भोजन के लिए फोडंग गए। कल, वह जांस्कर से प्रस्थान और कारगिल की यात्रा करने वाले हैं।