नई दिल्ली, भारत, आज प्रातः नई दिल्ली, हौज खास में हरियाली से भरे आईआईटी परिसर में आगमन पर, वेलोसिटी ४८ की संस्थापिका सुश्री पारुल राय और अभिनेता तिस्का चोपड़ा ने परम पावन दलाई लामा का स्वागत किया। उन्होंने सभागार में परम पावन का अनुरक्षण किया जहाँ १५०० की संख्या में श्रोता प्रतीक्षा कर रहे थे।
मंच पर परम पावन और उनके मेजबानों ने साथ मिलकर कार्यक्रम का उद्घाटन करने के लिए एक पारम्परिक दीप प्रज्ज्वलित किया। संचालिका साधना श्रीवास्तव ने आईआईटी के निदेशक, प्रो वी रामगोपाल राव और आईआईटी कार्यकारी काउंसिलर संजीव जैन को औपचारिक रूप से पुष्पों और एक सफेद स्कार्फ के साथ परम पावन का स्वागत करने के लिए आमंत्रित किया। सुश्री पारुल राय ने समझाया कि यह उनका स्वप्न रहा है कि वह लोगों को ख्याति प्राप्त जीवित व्यक्तियों को सुनने का अवसर प्रदान कर सकें, अतः उन्हें अत्यंत प्रसन्नता हुई कि परम पावन ने उनका निमंत्रण स्वीकार किया। उन्होंने विनोदपूर्वक कहा कि यह मात्र संयोग था कि परम पावन के साथ मंच पर पैनल में सभी महिलाएँ थीं।
अपने स्वागत के शब्दों में तिस्का चोपड़ा ने कहा कि उन्हें आईआईटी में बोलने और परम पावन का परिचय देना चुनौतीपूर्ण प्रतीत होता है, जिन्हें न्यूयॉर्क टाइम्स ने विश्व के सबसे विख्यात व्यक्ति के रूप में वर्णित किया है। उन्होंने कई प्रश्नों का उल्लेख किया जिनके उत्तर वे चाहती थीं - क्या यह हमारा लक्ष्य सुखी होना है? क्या करुणा सीखी जा सकती है? और एक अच्छी जी हुई जिंदगी क्या है?
सुश्री श्रीवास्तव ने परम पावन को अपना व्याख्यान प्रारंभ करने के लिए आमंत्रित किया, जो उन्होंने किया।
"सम्मानित प्रिय बहनों और भाइयों, मेरे कई मित्रों और विशेष रूप से पूर्व आयरिश राष्ट्रपति मेरी रॉबिन्सन ने मुझे नारीवादी दलाई लामा कहा है क्योंकि मैं एक ऐसे समय में महिलाओं को नेतृत्व करने का समर्थन कर रहा हूँ जब हमें करुणा को अधिक बढ़ावा देने की आवश्यकता है। प्रयोगों ने महिलाओं को दूसरों की पीड़ा के प्रति अधिक संवेदनशील और उत्तरदायी होते हुए दिखाया है। हम सभी एक माँ से आते हैं और हम में से अधिकांश उसके स्नेह और देखभाल के परिणामस्वरूप जीवित हैं।
"मानव इतिहास में योद्धा, जो मारते हैं, परंपरागत रूप से पुरुष हैं। कसाई अधिकांश रूप से पुरुष हैं। इसलिए, जैसा कि मैंने पहले कहा, ऐसे समय जब हमें प्यार और करुणा को बढ़ावा देने के लिए एक विशेष प्रयास की आवश्यकता है, मेरा मानना है कि महिलाएँ एक विशेष भूमिका निभा सकती हैं।
"जहाँ तक सुख और तनाव मुक्त जीवन का प्रश्न है, हर सत्व जो व्यक्ति आनन्द या पीड़ा का अनुभव करता है, उसमें सुखी होने की इच्छा होती है। सुख के कई विभिन्न स्तर हैं क्योंकि जानवर, जिनमें पक्षी कीड़े - मकोड़े और मछली शामिल हैं, के पास ऐसे मस्तिष्क नहीं हैं जो हमारे पास हैं। उनके जीवन सीधे ऐन्द्रिक अनुभव की ओर निर्देशित हैं। इसी पर उनका अस्तित्व निर्भर करता है, यही कारण है कि कुछ जानवरों में मनुष्यों की तुलना में अत्यंत तेज इंद्रियां होती हैं।
"दूसरी ओर हमारे पास परिष्कृत भाषा और विचार है पर मात्र वह हमारे चित्त को यदा - कदा गडबड़ी पैदा करने से नहीं रोकता। भविष्य के बारे में बहुत अधिक आशा अथवा अतीत को लेकर बहुत सोच हमें तनाव और चिंता में डाल सकती है।
"हमारी मूल मानव प्रकृति करुणामय तथा सौहार्द भाव है क्योंकि इसी रूप में हमारा जीवन प्रारंभ होता है। प्रेम व स्नेह के बिना हम जीवित न रह पाते। अतः हमें अपनी सहज बुद्धि को सौहार्दता से जोड़ना होगा। सौहार्दता आंतरिक शक्ति और आत्मविश्वास लाती है, यह हमें ईमानदार और सच्चा बनने में सक्षम करती है ताकि हमारा आचरण पारदर्शी हो, जो विश्वास और मैत्री को आकर्षित करता है।
"हमारा अस्तित्व और हमारा भविष्य अन्य मनुष्यों पर निर्भर करता है, जो हमारे सुख के स्रोत हैं। यदि मैं इस पुष्प को देख कर मुस्कुराता हूँ तो यह उत्तर नहीं देता। पर यदि मैं किसी मनुष्य की ओर देख मुस्कुराता हूँ तो वह आम तौर पर प्रत्युत्तर में मुस्कुराती या मुस्कुराता है। दूसरों के प्रति एक सौहार्दपूर्ण चिंता व्यक्त किए बिना हम सुखी नहीं हो सकते।
"जैसा कि मैंने पहले ही कहा, हमारे पास एक अद्भुत, प्रखर मस्तिष्क है। पर यदि यह मस्तिष्क क्रोध, प्रतिस्पर्धा और ईर्ष्या से प्रेरित हो तो इसे भय और चिंता से दूर किया जा सकता है। आत्म-केंद्रितता के हावी हो जाने पर, हममें नैतिक सिद्धांतों और दूरदर्शिता का अभाव होता है। परन्तु जब हम अपने बुद्धिमान मस्तिष्क को सौहार्दता से जोड़ते हैं तो हम दूसरों के अधिकारों का सम्मान करते हैं, ईमानदारी से उनके सुखी होने की कामना करते हैं और कभी उनके लिए संकट उत्पन्न नहीं करते।
"जब भावनाएँ हमारे मस्तिष्क पर हावी हो जाती हैं तो हम अपनी बुद्धि का उपयोग करने में असमर्थ होते हैं, सीधा सोच नहीं पाते तथा यथार्थ को पकड़ नहीं सकते। ऐसा करने के लिए हमारे चित्त को शांत, स्पष्ट और निष्पक्ष होना चाहिए। एक पूर्ण तस्वीर प्राप्त करने के लिए, जिससे भी हम निपट रहे हैं उसे विभिन्न कोणों से देखने की आवश्यकता है। यदि हम ऐसा कर सकते हैं तो हम अधिक खुश रहेंगे और कम तनाव का सामना करेंगे।"
इसके पश्चात परम पावन ने धर्मनिरपेक्षता की भारत की १००० वर्षीय परम्परा की ओर अपना ध्यान आकर्षित किया, जिसमें सभी आध्यात्मिक परंपराओं का सम्मान है और यहाँ तक कि उनके विचारों का भी, जिनकी कोई आस्था नहीं है। सभी धार्मिक परम्पराएँ प्रेम व करुणा का संदेश सम्प्रेषित करती हैं, जो शांति, सुख व संतोष ला सकती है। पर फिर भी, चूँकि आज जीवित सात अरब मनुष्यों में से एक अरब ऐसे हैं जिनकी धर्म में कोई रूचि नहीं है अतः ये धार्मिक संदेश सभी को आकर्षित नहीं करेंगे। ऐसा करने के लिए धर्मनिरपेक्ष नैतिकता की आवश्यकता है।
परम पावन ने ईश्वरवादी ओर अनीश्वरवादी धार्मिक परंपराओं की बात की। किस तरह यहूदी धर्म, ईसाई धर्म, इस्लाम और हिंदू धर्म की कुछ शाखाएँ एक सृजनकर्ता ईश्वर में विश्वास करती हैं, जो प्रेममय है। उनके अनुयायी मानते हैं कि उन्हें भी उन अन्य प्राणियों से संबंध रखना चाहिए जिनका निर्माण ईश्वर ने प्रेम व करुणा के साथ किया है। उन्होंने इसे एक शक्तिशाली विचार के रूप में वर्णित किया। उन्होंने आगे यह समझाया कि सांख्य, जैन और बौद्धों की एक शाखा जैसी अनीश्वरवादी परम्पराएँ मानती हैं कि जीवन का कोई प्रारंभ नहीं है, अतः पुनर्जन्म और कर्म है। परन्तु जहाँ जैन और सांख्य एक आत्मा एक स्वतंत्र आत्म में विश्वास करते हैं, बौद्ध धर्म नैरात्म्य की शिक्षा देता है, कि कोई स्वतंत्र आत्मा नहीं है, अपितु शरीर और चित्त के आधार पर ज्ञपित आत्मा है।
परम पावन ने आगे कहा "नैरात्म्य के विषय में शिक्षा देने का उद्देश्य, हमारी भावनाओं से निपटने में हमारी सहायता करना है। मेरे अमरीकी मित्र, संज्ञानात्मक मनोवैज्ञानिक हारून बेक, जो क्रोध से जूझ रहे लोगों के साथ काम करते हैं, ने मुझे बताया है कि जब वे क्रोधित होते हैं तो उनकी नकारात्मकता भावनाएँ ९०% मानसिक प्रक्षेपण होती हैं। यह नागार्जुन द्वारा शिक्षित धारणात्मक प्रपञ्च से मेल खाता है। नागार्जुन के छात्र के रूप में, मेरा व्यक्तिगत अनुभव है कि उनके स्पष्टीकरण के बारे में सोचते हुए कि किसी का भी स्वतंत्र अस्तित्व नहीं होता क्लेशों की प्रबलता को कम करने में सहायक है। शांति तथा सुख लाने का यह एक और उपाय है।
"साथ ही, शांतिदेव अपने ग्रंथ 'बोधिसत्चर्यावतार' में समझाते हैं कि किस प्रकार एक आत्म केंद्रित दृष्टिकोण भी क्रोध की तरह नकारात्मक भावनाओं को जन्म देता है और उस क्रोध का प्रतिकार परोपकार व सौहार्दता से किया जा सकता है।
"तो, हम जो कुछ कर सकते हैं वह हमारे क्लेशों से निपटने का प्रयास करना है, सौहार्दता के विकास से चित्त की शांति प्राप्त करना है। फिर हम अपने अनुभव को अपने मानव बहनों और भाइयों के साथ साझा कर सकते हैं।"
आईआईटी बेंगलुरू की सुश्री निवृत्ति राय ने प्रश्नोत्तर सत्र का संचालन किया। परम पावन ने सलाह दी कि मनुष्य परिवर्तित हो सकते हैं। उदाहरण के लिए, वे जांच सकते हैं कि क्रोध और निराशा का क्या कोई मूल्य है, और यह समझ सकते हैं कि क्रोध सदैव व्यर्थ होता है। परन्तु करुणा कई क्लेशों का प्रतिकार है। क्योंकि क्रोध और करुणा विरोधी हैं तो जब एक बढ़ता है तो दूसरा कम हो जाता है। परम पावन ने इन चीजों के बारे में सोचने, दृढ़ विश्वास तक पहुँचने और इसका गहन परिचय प्राप्त करने के महत्व पर बल दिया।
यह पूछे जाने पर कि जब कोई प्रियजन गुज़र जाता है तो किस तरह मजबूत बना रहा जाए, परम पावन ने यथार्थवादी होना सुझाया। उन्होंने कहा, किसी भी जीवित वस्तु, फिर चाहे वह एक फूल हो अथवा हमारा शरीर, का एक प्रारंभ है और एक अंत। जन्म और मृत्यु जीवन का अंग हैं।
परम पावन ने समझाया, "जब मेरे शिक्षक का देहांत हुआ तो वह एक चट्टान खोने जैसा था जिस पर मैं निर्भर था और मैं उदास हो गया था। परन्तु मैंने अनुभव किया कि कि उदास चेहरा बनाए रखने के बजाय मुझे उनकी इच्छाओं को पूरा करने के लिए काम करना चाहिए।"
उन्होंने किसी और को बताया जो इस बात को लेकर अनिश्चित थे कि किस तरह का विषय लिया जाए, कि पहली बात अपनी बुद्धि का उपयोग करना है और बिना किसी जल्दबाजी के इसके बारे में सावधानी से सोचना है। विश्वसनीय मित्रों से सलाह लें। इस तरह के उपायों से एक निर्णय तक पहुँचे, और उन्होंने कहा, जब आपने ऐसा कर लिया हो तो उस पर दृढ़ संकल्प के साथ कार्य करें।
परम पावन ने इस प्रश्न का उत्तर दिया कि क्यों अच्छे और निर्दोष लोग दुःख झेलते हैं और सुझाया ऐसे लोगों के मामले में जो भूखे हैं, इसका कारण है कि वे उन लोगों द्वारा उपेक्षित हैं जिनके पास उनकी सहायता करने के साधन हैं, पर ऐसा करने हेतु नैतिक सिद्धांतों की कमी है।
अंत में, श्रोताओं में से एक ने पूछा कि क्या हम सभी मूल रूप से स्वार्थी नहीं हैं। परम पावन ने सहमति व्यक्त की कि स्वयं की देखरेख करना स्वाभाविक है, पर ऐसा करने के लिए सुझाया कि वे बुद्धिमानी से करें, मूर्खतापूर्वक नहीं। यह देखते हुए कि हम एक दूसरे पर कितने आश्रित हैं, मात्र स्वयं के बारे में सोचना अवास्तविक है, अतः स्व हित को पूरा करने का बुद्धिमान तरीका दूसरों के हितों की देखभाल करना है।
बैठक के समाप्त होने पर परम पावन ने लोगों को उन्हें सुनने हेतु आने के लिए धन्यवाद दिया। उन्होंने उनसे जो उन्होंने सुना है उस पर सोचने के लिए और जो उन्होंने सुना है उसे कार्यान्वित करने के लिए कहा।
लोग धीरे घीरे सामने आए क्योंकि वे परम पावन के साथ संक्षेप में बातचीत करने की आशा लिए थे। परम पावन धीरे धीरे द्वार की ओर बढ़े और अपने होटल लौटने के लिए भवन से बाहर निकले। कल प्रातः वे वापस धर्मशाला के लिए उड़ान भरेंगे।