बांबोलिम, गोवा, भारत - आज प्रातः परम पावन दलाई लामा समुद्र के किनारे अपने होटल से ३५ किलोमीटर की दूरी पर सैनक्वेलीम में गोवा इंस्टीट्यूट ऑफ मैनेजमेंट (जीआईएम) जाने के लिए गाड़ी से रवाना हुए। देश के अग्रणी व्यवसाय स्कूलों में से एक मानी जाने वाली इस संस्थान में ६७२ पूर्णकालिक और ९० अंशकालिक छात्र हैं, जिनमें से ४२ % महिलाएँ हैं, और संस्था अपनी २५वीं वर्षगांठ मना रही है।
नभ वर्षा के बादलों से आच्छादित था, खेत तथा वृक्ष हरे भरे थे, परन्तु कुशल पुलिस यातायात प्रबंधन के कारण मार्ग खुले थे। आगमन पर, निदेशक, अजीत पारुलेकर और बोर्ड के अध्यक्ष अशोक चन्द्र ने परम पावन का स्वागत किया, जो उन्हें सभागार होते हुए मंच पर ले गए। जब उन्होंने मंच पर कदम रखा तो सभागार स्नेहभरे हर्षोल्लास से गूंज उठा। जैसी कि परम्परा है, वे दीप प्रज्ज्वलन में सम्मिलित हुए।
संस्थान की ओर से अध्यक्ष अशोक चन्द्र ने परम पावन को बताया कि यह बहुत गौरव का विषय था कि उन्होंने निमंत्रण स्वीकार कर उन्हें सम्मानित किया था। उन्होंने फादर रोमालुअल डी सूजा का भी स्वागत किया, जिन्होंने २५ वर्ष पूर्व संस्थान की स्थापना की थी, और टिप्पणी की, कि संस्थापक के समर्थन के बिना आज कोई जीआईएम संभव नहीं था। उन्होंने कहा कि वे यह मानना चाहते हैं कि जीआईएम विशिष्ट है क्योंकि, एक मनुष्य की तरह, यह स्वयं से पूछता है कि मैं कौन हूँ? मेरे मूल्य क्या हैं? जीआईएम के लिए नैतिकता और मानव मूल्य महत्वपूर्ण हैं, जिन्हें वह जीने का प्रयास करता है तथा अपने छात्रों के मन में उन्हें बिठाता है।
निदेशक अजीत पारुलेकर ने उत्साहित स्वर में जीआईएम और एमआईटी में दलाई लामा सेंटर फॉर एथिक्स एंड ट्रांसफॉर्मेटिव वैल्यूज के बीच एक नई साझेदारी की बात की, जिसका उद्देश्य संस्थान में नैतिकता की शिक्षा को बढ़ावा देना है। उन्होंने उल्लेख किया कि डीएलसीईटीवी के श्रद्धेय तेनज़िन प्रियदर्शी ने आज के समारोह में भाग लेने में असमर्थ होने के कारण खेद व्यक्त किया है। साझेदारी का उद्देश्य नैतिकता और सहानुभूति में प्रशिक्षण के लिए नए मानकों को स्थापित करना है ताकि वे नागरिक समाज के सभी पक्षों में पैठ सकें। एक अनिश्चित और अस्थिर विश्व में इसके लिए एक उत्तरदायी नेतृत्व के उद्भव की आवश्यकता होगी, जिसके लिए जीआईएम प्रभावी योगदान दे सकता है। निदेशक ने यह भी बताया कि जीआईएम गोवा विद्यालयों में एमोरी-तिब्बत साझेदारी द्वारा विकसित सामाजिक, भावनात्मक और नैतिक शिक्षा पाठ्यक्रम के आरंभ की देखरेख करेगा।
फादर रोमुअल डी सूजा ने परम पावन को बताया कि जीआईएम ने प्रारंभ से ही अपने व्यावसायिक पाठ्यक्रमों में तर्कसंगत दृष्टिकोण अपनाते हुए नैतिकता को शामिल किया है। उन्होंने कहा कि संस्थान का उद्देश्य करुणा, क्षमा और दया को प्रोत्साहित कर हृदय तथा मस्तिष्क को शिक्षित करना है।
अपने व्याख्यान के प्रारंभ में ही परम पावन ने फादर डी सूजा से पूछा कि उनकी आयु कितनी थी और यह सुनकर कि वे ९३ वर्ष के थे परम पावन प्रभावित हुए। उन्होंने माना कि वे १० वर्ष छोटे थे, जो उन्होंने अपने परिचय में स्वीकार किया:
"सम्मानित बड़े भाई और आप बाकी भाइयों और बहनों, मैं यहाँ आकर आपके साथ अपने कुछ विचार साझा करते हुए अत्यंत प्रसन्नता का अनुभव कर रहा हूँ।"
सभागार की दीवार पर एक उक्ति से प्रेरित होकर 'जीआईएम में शिक्षण कभी नहीं रुकता', उन्होंने एक तिब्बती विद्वान का उल्लेख किया जिसने प्रसिद्ध सलाह दी कि यदि आप की मृत्यु आने वाली कल को है तो भी आज कुछ अध्ययन और सीखना उचित है क्योंकि उसका चित्त पर सकारात्मक प्रभाव पड़ता है।
उन्होंने आगे कहा, "हम एक ऐन्द्रिक स्तर पर जागरूक हो सकते हैं, परन्तु शिक्षा चैतसिक स्तर पर होती है, यही कारण है कि हमारी मानसिक चेतना पर ध्यान देना महत्वपूर्ण है। हमें अपने जाग्रत अवस्था की तुलना में जिस पर ऐन्द्रिक अनुभव हावी होते हैं, एक गहन स्तर पर चेतना का परीक्षण करने की आवश्यकता है। जब हम स्वप्न देखते हैं तो चेतना सूक्ष्मतर होती है। गहन निद्रा में यह और भी सूक्ष्म होती है, पर मृत्यु के समय चेतना का सूक्षमतम रूप प्रकट होता है। वास्तव में कुछ लोग हैं जो इस स्तर की चेतना तक पहुंचने में सक्षम हैं और उनके शरीर नैदानिक मृत्यु के उपरांत कुछ देर के लिए ताजा रहते हैं। वैज्ञानिक यह समझने के लिए कि क्या हो रहा है इस घटना की जांच कर रहे हैं।
ऐन्द्रिक स्तर पर चेतना सुन्दर दृश्यों, ध्वनियों, गंध, स्वाद और स्पर्श के पहलुओं से संबंधित है, जिसमें यौन क्रिया शामिल है। परन्तु क्रोध और प्रेम ऐन्द्रिक अनुभव नहीं हैं। वे चित्त के स्तर पर होते हैं। आधुनिक शिक्षा भौतिक लक्ष्यों और ऐन्द्रिक अनुभवों पर अधिक प्रवृत्त है। यद्यपि सभी धार्मिक परम्पराएं प्रेम, सहिष्णुता इत्यादि के बारे में सिखाती हैं, भारत में शमथ और विपश्यना के दीर्घकालीन अभ्यासों ने चित्त तथा भावनाओं के प्रकार्य की पूरी तरह से समझ को जन्म दिया है।
"आज के विश्व में जो भावनात्मक संकट का सामना कर रहा है, ऐसा ज्ञान न केवल प्रासंगिक है अपितु यह मूल्यवान है। वैज्ञानिक हमें बताते हैं कि उनके पास प्रमाण हैं कि आधारभूत मानव प्रकृति करुणाशील है। यह शैशव अवस्था में हमारी मां की देखभाल और हमारे बचपन में स्नेह, जिसके बिना हम जीवित नहीं रह सकते, के हमारे सामान्य अनुभव से पैदा हुआ है। वैज्ञानिकों ने यह भी देखा है कि निरंतर क्रोध, भय और संदेह हमारी प्रतिरक्षा प्रणाली को दुर्बल करता है, जबकि एक करुणाशील व्यवहार इसे बनाए रखता है।
"हम सामाजिक प्राणी हैं। परोपकार मित्रों को आकर्षित करता है और लोगों को एक साथ लाता है, क्रोध उन्हें अलग करता है।
"लगभग २०० वर्ष पूर्व तक शिक्षा धार्मिक संस्थानों का क्षेत्र था, जो उनके अनुयायियों में नैतिक सिद्धांत लाने के लिए उत्तरदायी थे। चूंकि शिक्षा और धार्मिक प्रतिष्ठान अलग अलग हो गए अतः यह उत्तरदायित्व समाप्त हो गया। हम सभी को अपनी चित्त की शांति के लिए नैतिक सिद्धांतों की आवश्यकता है, अतः उन्हें हमारी शिक्षा का अंग होना चाहिए। मेरा विश्वास है कि केवल भारत में ही आधुनिक शिक्षा को चित्त तथा भावनाओं के प्राचीन भारतीय ज्ञान के साथ सम्बद्धित किया जा सकता है।"
परम पावन ने कहा कि यद्यपि इस तरह का ज्ञान भारत में विकसित हुआ था, समय के चलते इस ओर रुचि का ह्रास हुआ। परन्तु नालंदा परम्परा को बनाए रखते हुए तिब्बतियों ने इसे जीवित रखा और इसे इसके जन्मस्थल में वापिस लेकर आए हैं। उन्होंने सुझाया कि भारत में चित्त तथा भावनाओं, कारण और तर्क की प्राचीन भारतीय समझ को पुनर्जीवित करने में तिब्बती योगदान दे सकते हैं। उन्होंने उल्लेख किया कि विहारीय विश्वविद्यालयों, अधिकांश कर्नाटक में, की पुनर्स्थापना में १०,००० भिक्षु और भिक्षुणियां शिक्षा देने में प्रशिक्षित और सिखाने के लिए लैस हैं। आज उनमें से कई भोट भाषा के अतिरिक्त अंग्रेजी, हिंदी और कन्नड़ में सम्प्रेषण करने में सक्षम हैं।
उन्होंने दिवाली जैसे त्योहारों को साझा करने और अहिंसा जैसी दीर्घ कालीन भारतीय परंपराओं पर चर्चा करने के लिए विदेशों में रहने वाले भारतीयों को प्रोत्साहित करने और उन्हें आमंत्रित करने के विषय पर बात की। उन्होंने यह भी तर्क दिया कि भारत जैसे विश्व के सबसे अधिक जनसंख्या वाले लोकतांत्रिक देश को विश्व को दिखाना चाहिए कि धार्मिक परंपराओं का सद्भाव में एक साथ रहना संभव है।
"यदि हम अपनी विनाशकारी भावनाओं से निपटें तो हम चित्त की शांति प्राप्त कर सकते हैं, अतः २१वीं शताब्दी को शांति और करुणा का युग बनाने का लक्ष्य संभव है। इसमें वार्ता में समस्याओं का समाधान ढूंढना सम्मिलित होगा, न कि बल प्रयोग। अतः आणविक शस्त्रों की योजनाबद्ध उन्मूलन के रूप में, विसैन्यीकरण एक और लक्ष्य बन जाता है। पर इनमें से किसी भी लक्ष्य को पूरा करने के लिए, इन्हें सबसे पहले आंतरिक निरस्त्रीकरण की भावना पर स्थापित किया जाना चाहिए।"
परम पावन ने श्रोताओं से प्रश्न आमंत्रित किए और पहला प्रश्नकर्ता जानना चाहता था कि दिन-प्रतिदिन के जीवन में प्राचीन भारतीय ज्ञान को किस तरह व्यवहृत किया जा सकता है। उन्होंने उसे सलाह दी कि इसमें तर्कसंगत तार्किक रूप से चित्त व भावनाओं का अध्ययन करना शामिल होगा। उन्होंने कुछ अमेरिकी शहरों को संदर्भित किया, जिसमें से एक ने स्वयं को करुणा का शहर घोषित किया है और दूसरा जिसने स्वयं को दयालुता के रूप में परिभाषित किया है। दयालुता और करुणा उनके साथ जुड़े कार्यक्रमों पर केंद्रित होने के कारण, दोनों शहरों के छात्रों में हिंसा की प्रवृत्ति काफी कम हो गई है और वे दूसरों की सहायता करने के लिए तैयार हैं।
यह पूछे जाने पर कि चित्त की शांति किस तरह प्राप्त की जाए, परम पावन ने जीवन में सामने आने वाली समस्याओं का अधिक समग्र दृष्टिकोण लेने का सुझाव दिया। यदि आप उन्हें केवल एक कोण से देखें तो वे अधिक चुनौतीपूर्ण लग सकते हैं, जबकि व्यापक परिप्रेक्ष्य से वे अधिक प्रबंधनीय लगते हैं। उन्होंने ८वीं शताब्दी के भारतीय आचार्य शांतिदेव को उद्धृत किया जिन्होंने एक चुनौतीपूर्ण स्थिति का विश्लेषण करने का परामर्श दिया ताकि यह पता चल सके कि इसे दूर किया जा सकता है अथवा नहीं। अगर ऐसा हो सकता है तो चिंता करने की कोई आवश्यकता नहीं होगी। इसके बजाय आपको कार्य करना होगा। यदि इस पर काबू नहीं किया जा सकता तो इसे लेकर चिंता करने से कोई सहायता न मिलेगी।
परम पावन को उस समय के बारे में बात करने के लिए आमंत्रित किया गया जब वे भयभीत हो गए थे और उन्होंने १७ मार्च १९५९ की रात को ल्हासा से पलायन को संदर्भित किया। चीनी साम्यवादियों शक्तियों के साथ मध्यस्थता के उनके प्रयास विफल हो गए थे और वहां से पलायन करने के अतिरिक्त कोई विकल्प दिखाई नहीं दे रहा था। पर इसमें अंधेरे में चीनी सैन्य शिविर और एक बड़ी नदी को पार करना शामिल था। वह इतने भयभीत थे क्योंकि वे नहीं जानते थे कि वे अगले दिन की प्रातः देख पाएँगे अथवा नहीं। पर एक बार जब उन्होंने पहली घाटी को पार किया तो उनका डर कम हो गया।
"चीनी साम्यवादी इस आधार पर काम करते हैं कि शक्ति बंदूक की नली से आती है। पर तिब्बत की शक्ति सत्य में निहित है। बंदूक की शक्ति अस्थायी रूप से निर्णायक है, पर दीर्घकाल में यह सत्य की शक्ति है जो लंबे समय तक बनी रहती है।" श्रोताओं की तरफ से करतल ध्वनि गूंजी।
"हमने संयुक्त राष्ट्र में तिब्बत के प्रश्न को उठाया, पर जिसका बहुत कम प्रभाव हुआ। नेहरू ने मुझसे कहा था कि अमेरिका तिब्बत के प्रश्न पर चीन के साथ युद्ध नहीं करेगा और उस समय या बाद में हमें चीन के साथ चर्चा करनी होगी। १९७६ से हमने स्वतंत्रता की मांग नहीं की है। इसका अतीत से कोई संबंध नहीं है। चीनी ऐतिहासिक अभिलेख बताते हैं कि ७वीं, ८वीं और ९वीं सदी में चीनी, मंगोलियाई और तिब्बती साम्राज्यों का विकास हुआ। आज, मैं यूरोपीय संघ की भावना की प्रशंसा करता हूं जिनके सदस्य राष्ट्रीय संप्रभुता से पहले आम हित को समक्ष रखते हैं। ऐसी भावना से, अगर हम चीनी संविधान के तहत हमें दिए गए अधिकारों को सुरक्षित रखते हैं तो पीआरसी के साथ बने रहने में हमें लाभ हो सकता है।"
नकारात्मक भावनाओं के प्रभाव में गलत निर्णय लेने की संभावना के प्रतिकार के लिए, परम पावन ने एक बार फिर स्थिति की अधिक समग्र दृष्टिकोण लेने की सराहना की। परम पावन ने कहा कि महत्वपूर्ण बात यह है कि निर्णय लेने का उत्तरदायित्व आपके अपने कंधों पर है। सावधानीपूर्वक विचार करने के बाद आपको अपने निर्णय तक पहुंचना चाहिए, फिर उसके बाद उसके साथ बनें रहें और उसका पालन करें।
उन्होंने समझाया कि विनाशकारी भावनाएं अज्ञानता से उत्पन्न होती हैं, विशेष रूप से यह कि वस्तुएँ वस्तुओं के दृश्य रूप को लेकर भ्रांति। उनके स्वतंत्र आंतरिक सत्ता के लिए हुए दिखाई देने के बावजूद, जब हम समझते हैं कि वस्तुओं की उत्पत्ति अन्य कारकों पर निर्भर होकर होती है तो नकारात्मक भावनाओं के काबू में आने की हमारी प्रवृत्ति दुर्बल हो जाती है।
एक अंतिम प्रश्नकर्ता ने पूछा कि परम पावन ने क्या सोचा था जब उन्हें दलाई लामा के रूप में पहचाना गया। उन्होंने बताया कि उनकी मां ने उनसे कहा था कि जिस दिन तिब्बती सरकार की खोज पार्टी उनके घर पहुंची थी, वह विशेष रूप से उत्साहित थे। वह उनकी ओर भागे और उनमें से कइयों को पहचान लिया - संभवतः कुछ विगत स्मृतियों का परिणाम हो।
दलाई लामा के संस्थान के भविष्य के रूप में, परम पावन ने १९६९ से यह स्पष्ट कर दिया है कि १५वें दलाई लामा के होने का निर्णय तिब्बती लोगों का होगा।
"अब मेरा उत्तरदायित्व यह देखना है कि मेरा दिन-प्रतिदिन का जीवन सार्थक हो ।निम्नलिखित प्रार्थना मेरा मार्ग निर्देश करती है:
"जब तक हो अंतरिक्ष स्थित
और जब तक जीवित हों सत्व
तब तक मैं भी बना रहूँ
संसार के दुख दूर करने के लिए।"
"मैं इसका पालन करने के लिए दृढ़ संकल्पी हूँ। एक व्यक्ति परिवर्तन ला सकता है। मनुष्य के रूप में, आप सभी एक सुखी जीवन जीना चाहते हैं। जो कुछ मैंने कहा उसमें यदि आपको कुछ भी रुचिकर लगा हो तो इसे अपने दोस्तों के साथ साझा करें - इसी तरह विचार प्रसारित होते हैं। यदि मैंने जो कहा उसमें आपकी कोई रुचि नहीं है तो कृपया इसे भूलने के लिए स्वतंत्र हों। धन्यवाद।"
सभागार पुनः सौहार्दपूर्ण करतल ध्वनि से गूंज उठा।
निदेशक ने उन सभी को धन्यवाद दिया जिन्होंने इस कार्यक्रम को सफल बनाने में योगदान दिया था। परम पावन आमंत्रित अतिथियों के साथ मध्याह्न के भोजन में सम्मिलित हुए जिसके बाद वे अपने होटल लौट गए। कल वे बंगलुरु की यात्रा करेंगे।