नई दिल्ली, भारत, आज प्रातः नई दिल्ली उपनगर द्वारका के लाल बहादुर शास्त्री इंस्टीट्यूट ऑफ मैनेजमेंट (एलबीएसआईएम) में आगमन पर निदेशक, डॉ डी के श्रीवास्तव और गवर्नर्स बोर्ड के अध्यक्ष अनिल शास्त्री ने परम पावन दलाई लामा का स्वागत किया। चूंकि परम पावन का भारत के द्वितीय प्रधान मंत्री से व्यक्तिगत परिचय था अतः बिना किसी अन्य औपचारिकता के वे लाल बहादुर शास्त्री की प्रतिमा, जो संस्थान के समक्ष एक पीठिका पर लगा कर रखी गई थी, की ओर एक श्वेत स्कार्फ चढ़ाने तथा सम्मान व्यक्त करने के लिए आगे आए।
अकादमिक चोगे और साथ ही टोपी धारण किए परम पावन अकादमिक सभागार के अंदर शोभा यात्रा में सम्मिलित हुए। मंच के एक ओर वे लाल बहादुर शास्त्री के एक चित्र के समक्ष दीप प्रज्ज्वलित करने तथा पुष्पांजलि में शास्त्री के पुत्र अनिल के साथ शामिल हुए।
अनिल शास्त्री द्वारा दीक्षांत समारोह के उद्घाटन की घोषणा के उपरांत एलबीएसआईएम के निदेशक, डॉ डी के श्रीवास्तव ने एक संक्षिप्त स्वागत संबोधन दिया और संस्थान की उपलब्धियों के बारे में एक रिपोर्ट पढ़ी। अगले वक्ता अनिल शास्त्री थे जिन्होंने परम पावन के साथ अपनी मैत्री का स्मरण किया। उन्होंने सूचित किया कि वे उनसे प्रथम बार मिले थे जब वे स्कूल में विद्यार्थीं थे और उन्होंने उनका चरण स्पर्श किया था। बाद में, जब वे वाराणसी के सांसद थे, परम पावन ने उनकी एक पुस्तक का विमोचन किया था और एक अन्य अवसर पर जब परम पावन ने लाल बहादुर शास्त्री स्मारक व्याख्यान दिया था। उन्होंने परम पावन के उद्धरण को दोहराया "यदि आप दूसरों को सुखी देखना चाहते हैं तो करुणा का अभ्यास करें। यदि आप सुखी रहना चाहते हैं तो करुणा का अभ्यास करें," शास्त्री ने समापन में कहा कि परम पावन को विश्व भर में एक महान आध्यात्मिक नेता के रूप में स्वीकार किया जाता है।
तत्पश्चात स्नातकों के डिप्लोमा को प्रदान करने की औपचारिक प्रक्रियाओं का पालन किया गया, जिसके बाद उन सभी ने एकजुट होकर इससे संबद्धित प्रतिज्ञा का पाठ किया। फिर, जैसे जैसे निदेशक श्रीवास्तव ने उनके नाम की घोषणा की, प्राप्तकर्ता मंच पर आए जहाँ परम पावन ने उनका स्नेह भाव से अभिनन्दन किया तथा प्रत्येक को पदक और प्रमाण पत्र प्रस्तुत किया।
दीक्षांत उद्बोधन देने के अनुरोध पर परम पावन ने अनिल शास्त्री से यह कहते हुए प्रारंभ किया कि उनके पिता के साथ उनके विशेष संबंध के कारण वे उनकी गणना एक विशिष्ट भाई के रूप में करते थे। तत्पश्चात उन्होंने उपस्थित सभी को "प्रिय भाइयों और बहनों" कहकर संबोधित किया।
"मैं सदैव अपने व्याख्यान का प्रारंभ इस तरह से करता हूँ क्योंकि मेरा विश्वास है कि वास्तव में आज जीवित ७ अरब मनुष्य भाई और बहनें हैं। हम सभी मानसिक, शारीरिक और भावनात्मक रूप से समान हैं। हम सभी एक सुखी, आनन्दमय जीवन जीना चाहते हैं और वैज्ञानिक कहते हैं कि प्रयोग बताते हैं कि मूल मानव प्रकृति करुणाशील है। जब आप सौहार्दपूर्ण होते हैं तो आपका शारीरिक स्वास्थ्य बेहतर होता है, पर यदि आप निरंतर घृणा और क्रोध से भरे हुए हों तो यह आपकी प्रतिरक्षा प्रणाली को दुर्बल कर देता है।"
परम पावन ने ४०० की संख्या में उपस्थित श्रोताओं से पूछा कि क्या उन्हें क्या देखना अधिक अच्छा लगता है, एक मुस्कुराता हुआ या त्योरी चढ़ा हुआ चेहरा और श्रोताओं की ओर से ज़ोर सा उत्तर आया, "मुस्कुराता।"
उन्होंने कहा, "बिलकुल ठीक और अधिक प्रमाण हैं कि हमारी आधारभूत प्रकृति शांतिपूर्ण तथा करुणाशील है। आखिरकार, हमारा जीवन अपनी मां के प्रेम व स्नेह की देखभाल से प्रारंभ होता है।
"आज हम जिन कई समस्याओं का सामना करते हैं उनमें से कई स्व निर्मित हैं। क्यूं? इसका कारण है बहुत अधिक क्रोध और प्रतिस्पर्धा, भय और चिंता। यही कारण है कि हमें प्रेम व दयालुता की ओर अधिक ध्यान देना चाहिए जो कि हमारी अपनी मूल प्रकृति है। इसके बजाए, समस्याएँ उत्पन्न होती हैं क्योंकि हम अपने बीच के गौण विभिन्नताओं पर बहुत अधिक ध्यान देते हैं - राष्ट्रीयता, जाति, रंग, आस्था, कोई अमीर है या गरीब है, और इस देश में कि वे किस जाति के हैं। यह 'हम' और 'उन' की भावना की ओर ले जाता है, जो बदले में विभाजन और संघर्ष को जन्म देता है। परिणामस्वरूप, हमारी शिक्षा प्रणाली में हमें मानवता की एकता की भावना को बढ़ावा देने की आवश्यकता है।
"परन्तु आधुनिक शिक्षा, बड़े स्तर पर, भौतिक लक्ष्यों की ओर उन्मुख है। और हम अपने मुख्य मस्तिष्क या मानसिक चेतना से जुड़ने के बजाय, अल्पकालिक बाह्य सुखों का पीछा करते हुए ऐन्द्रिक अनुभव खोजते हैं। प्राचीन भारतीय परम्पराओं में भावनाओं की समझ और उन्हें प्रबंधित करने के उपाय सहित चित्त की कार्यप्रणाली का पूर्ण ज्ञान था। इससे करुणा द्वारा प्रेरित अहिंसा का अभ्यास प्रारंभ हुआ।
"शमथ व विपश्यना के विकास के अभ्यासों ने आत्म व नैरात्म्य की धारणा को जन्म दिया। बुद्ध ने इससे इनकार नहीं किया कि एक आत्म है, पर समझाया कि इसका अस्तित्व मात्र शरीर और दिमाग के आधार पर ज्ञापित रूप में उपस्थित है। इससे अलग कुछ और नहीं है।
"आजकल क्वांटम भौतिकविद बल देते हैं कि किसी का भी वस्तुनिष्ठ रूप से अस्तित्व नहीं होता। वे पर्यवेक्षक की महत्वपूर्ण भूमिका पर बल देते हैं। पर जब हम पर्यवेक्षक के बारे में और अधिक जानना चाहते हैं तो उनके पास कोई उत्तर नहीं है।
"प्राचीन भारतीय परम्पराओं ने सकारात्मक और विनाशकारी भावनाओं के अस्तित्व को रेखांकित किया और यह इंगित किया कि यह विनाशकारी भावनाएँ हैं जो वास्तव में दुःख निर्मित करती हैं। चूंकि वे अपने चित्त के परिप्रेक्ष्य में उठती हैं, अतः उनसे निपटना हमारा उत्तरदायित्व है। ईश्वर से प्रार्थना करने या फिर बुद्ध द्वारा हस्तक्षेप करने का कोई प्रभाव न होगा। यही कारण है कि मैं सुझाव देता हूँ कि, जिस तरह हम स्वास्थ्य के कारणों के लिए शारीरिक स्वच्छता बनाए रखते हैं, हमें एक तरह की भावनात्मक स्वच्छता विकसित करने की भी आवश्यकता है।
इसका एक उदाहरण यह सोचना है कि किस तरह स्वयं को क्रोध में भर लेने से आप चित्त की शांति खो बैठते हैं। आप अपने भोजन का आनंद भी नहीं ले सकते। आप स्वयं को चोट भी पहुँचा सकते हैं। इसके बजाय अपने चित्त को प्रशिक्षित करके क्रोध से छुटकारा पाना बेहतर होगा।"
परम पावन ने समझाया कि एक ऐसा समय था जब वैज्ञानिक मात्र इस बात की चर्चा करते थे कि किस तरह मस्तिष्क कार्य करता है। अब उनमें से अधिकांश चित्त की भूमिका को पहचानते हैं, कि चित्त को प्रशिक्षित किया जा सकता है और जब चित्त को प्रशिक्षित किया जाता है तो यह न्यूरोप्लास्टिसिटी, मस्तिष्क में देखने योग्य परिवर्तन को प्रभावित करता है।
परम पावन ने समाप्त करते हुए कहा कि "यही है जो मैं आपके साथ साझा करना चाहता हूँ।"
"अपने कठिन अध्ययन के परिणामस्वरूप आपने डिप्लोमा अर्जित किया है जिसके लिए मैं आपको बधाई देना चाहता हूँ। पर यह उपलब्धि मात्र अपने आप में आपको आंतरिक शांति नहीं देगी। उसे जानने के लिए कि मैं आपको प्राचीन भारतीय मनोविज्ञान पर अधिक ध्यान देने का आग्रह करता हूँ। यह उन क्षेत्रों में से एक है जहाँ भारत एक अधिक करुणाशील विश्व निर्मित करने में योगदान दे सकता है।"
तालियों की गड़गड़ाहट कम होने पर एलबीएसआईएम निदेशक श्रीवास्तव ने परम पावन को उनकी यात्रा का एक स्मृति चिन्ह प्रस्तुत किया। लाल बहादुर शास्त्री की प्रशंसा करते हुए और उनके असामयिक निधन पर उनके खेद व्यक्त करते हुए परम पावन ने टिप्पणी की, "यद्यपि वे अब हमारे बीच शारीरिक रूप से नहीं हैं, पर हम उनकी स्मृति को जीवित रखे हुए हैं।"
मुख्य अतिथि और बोर्ड ऑफ गवर्नर्स के पीछे मंच पर इकट्ठे स्नातकों के समूहों की कई तस्वीरों के लिए जाने के उपरांत सभी मध्याह्न भोजन के लिए स्थगित हुए, जिसके बाद परम पावन अपने होटल लौट आए।