थेगछेन छोलिंग, धर्मशाला, हि. प्र., भारत, जब आज प्रातः परम पावन दलाई लामा अपने आवास के द्वार से बाहर पैदल आए तो चुगलगखंग के चारों ओर का प्रांगण लोगों से खचाखच भरा हुआ था। अनुमानित ९००० लोगों में ९०० कॉलेज के छात्र, तिब्बती चिकित्सा एवं ज्योतिष संस्थान के ११२ छात्र, तिब्बती ट्रांजिट स्कूल के १०५ छात्र, टीसीवी स्कूलों के लगभग १४०० छात्र - जो अधिकांश धर्मशाला बौद्ध अध्ययन समूह के कक्षा ९-१२ के थे, २००० से अधिक इच्छुक विदेशी लोग, जिनमें थाई धमा-साला चैरिटेबल सोसायटी के १५० भिक्षु और स्थानीय तिब्बती शामिल थे ।
जनमानस की ओर देख मुस्कुराते तथा अभिनन्दन में हाथ हिलाकर जाते हुए, परम पावन मंदिर पहुँचे। वहां उन्होंने पहले बुद्ध की मूर्ति के समक्ष अपना सम्मान व्यक्त किया तथा सिंहासन पर अपना आसन ग्रहण करने से पूर्व पुराने मित्रों का अभिनन्दन किया।
धर्मशाला बौद्ध अध्ययन समूह के सदस्य, जिसमें पुरुष और महिलाएँ, भिक्षु और आम लोग, तिब्बतियों और विदेशों के लोग शामिल थे, ने अपने शास्त्रार्थ कौशल का प्रदर्शन किया। प्रथम समूह ने 'बोधिसत्वचर्यावतार' में वर्णित प्रणिधान चित्त तथा प्रस्थान चित्त पर चर्चा की। दूसरे समूह ने धर्मकीर्ति की 'प्रमाणवार्तिक' में स्पष्ट किए गए तर्कों के विधियों को जांचा।
सभा को संबोधित करने से पहले परम पावन ने प्रार्थनाओं के लम्बे पाठ छोड़कर दो लघु छंदों का पाठ किया।
"उस गौतम को वंदन जिसने अपनी करुणा वश
सभी दृष्टियों के प्रहाण हेतु
सद्धर्म का उपदेश दिया।
प्रज्ञा पारमिता को वंदन
त्रिकाल के सभी बुद्धों की जननी,
शब्दातीत, अचिन्तनीय, अनिर्वचनीय,
अनुत्पादित और अबाधित, आकाश की प्रकृति में आत्म-जागरूक प्रज्ञा का वस्तुनिष्ठ क्षेत्र
तद्यथा - गते, गते, पारगते, पारसंगते, बोधिस्वाहा।
"हम कई वर्षों से साल के इस समय युवा तिब्बतियों के लिए प्रवचन आयोजित करते हैं, जब दूर-दराज के स्कूलों और कॉलेजों के बच्चे भी इसमें सम्मिलित हो सकें। इस तरह इस अवसर पर मुख्य शिष्य छात्र और स्कूल के बच्चे होते हैं, पर मुझे थाईलैंड के भिक्षुओं का स्वागत करते हुए भी प्रसन्नता हो रही है।
"बुद्ध ने २५०० वर्ष पूर्व भारत में प्रबुद्धता प्राप्त की। चार आर्य सत्यों तथा और उनके सोलह बोध्यांगों की व्याख्या उन्होंने सारनाथ, वाराणसी में दी, जो कि उनकी आधारभूत देशना थी। बाद में, उन्होंने गृद्धकूट पर दी गई शिक्षाओं में इसे व्याख्यायित किया।
"यहाँ उपस्थित थाई भिक्षु बुद्ध के छात्रों के रूप में हमारे लिए वरिष्ठ हैं। वे पालि भाषा में संरक्षित विहारीय अनुशासन या विनय की परम्परा का पालन करते हैं। हम तिब्बत में संस्कृत में संरक्षित एक परम्परा का पालन करते हैं। अतिक्रमण और सिद्धांतों की संख्या को लेकर और इन परंपराओं में कुछ अंतर हैं, उदाहरण के लिए स्थविरवाद परम्परा में एक विनय भिक्षु को अपना चीवर उचित रूप से धारण करने से संबंधित है, जबकि मूलसर्वास्तिवादी परम्परा में चीवर धारण करने के सात विनय दिए गए हैं। विनय के विषय के संदर्भ में हम लगभग समान परम्पराओं को साझा करते हैं, यद्यपि हम तिब्बतियों ने प्रज्ञा पारमिता की, जिन शिक्षाओं को बनाए रखा है वह संस्कृत परंपरा के लिए विशिष्ट है।
"मैं इन थाई भिक्षुओं और अन्य अनुयायियों की उपस्थिति की अत्यंत सराहना करता हूँ। अतीत में इसे प्रोत्साहित करने के प्रयासों के बावजूद पालि तथा संस्कृत परम्पराओं के सदस्यों के बीच बहुत कम सम्पर्क रहा है। १९६० के दशक में, मैंने कुछ तिब्बती भिक्षुओं को थाईलैंड भेजा जहाँ वे विहारों में रहे तथा स्थविरवादी विनयों का पालन किया, पर इस व्यवस्था को नहीं बनाए रखा जा सका। हम इसे पुनः प्रारंभ करने की आशा कर रहे हैं और इस ओर पहला कदम दोनों ही ओर के भिक्षुओं को एक दूसरे की भाषा सीखनी होगी।
"परम्परागत बौद्ध देशों के लोगों के अतिरिक्त अन्य लोग भी हैं जो बौद्ध धर्म में रूचि रखने लगे हैं, फिर चाहे वे जहाँ से आए हों उसका कोई ऐतिहासिक संबंध नहीं है।"
परम पावन ने भारत में संरक्षित धार्मिक परंपराओं की सारणी का उल्लेख किया, कुछ इस देश में जन्मी जैसे सांख्य, जैन और बौद्ध परम्पराएँ और कुछ इब्राहीम परम्पराएँ जैसे यहूदी, ईसाई और इस्लाम, जो बाहर से आईं। ये सभी परम्पराएँ परोपकारिता पर बल देती हैं। वे प्रेम व करुणा की शिक्षा देती हैं। उन्होंने कहा कि चूंकि सभी अतीत में मानवता की सेवा में रत रहीं हैं और भविष्य में भी बनी रहेंगी अतः उनमें अलगाव पैदा करने से कुछ सिद्ध न होगा। उन्होंने सुझाव दिया कि लोग अपनी आस्था को बनाए रखते हुए आपसी सम्मान और सद्भाव उत्पन्न करने का प्रयास करें और घोषणा की कि भारत ने दीर्घ काल से यह दिखाया है कि यह किया जा सकता है।
परम पावन ने माना कि इन विभिन्न परम्पराओं के मध्य दार्शनिक मतभेद हैं - कुछ को ईश्वरवादी कर वर्गीकृत किया कहा जाता है जो एक सृजनकर्ता ईश्वर में विश्वास करते हैं, जबकि अन्य नहीं करते। सांख्य, जैन और बौद्धों की एक शाखा एक निर्माता पर बल नहीं देती, पर उनमें से केवल बौद्ध ही मनो-भौतिक स्कंधों से स्वतंत्र आत्म के अस्तित्व को नकारते हैं। उन्होंने टिप्पणी की कि विभिन्न बौद्ध विचारधाराओं में सभी पुद्गल नैरात्म्य पर ज़ोर देते हैं, कि कोई एक स्वतंत्र आत्म नहीं है जो स्कंधों को नियंत्रित करता हो। परन्तु केवल कुछ चित्त मात्र परम्परा और मध्यम मार्ग परम्पराएँ तथा धर्म नैरात्म्य की चर्चा करती हैं।
घोषणा करते हुए कि शून्यता की परम दृष्टि नागार्जुन द्वारा समझाई गई थी, परम पावन ने पूछा कि इस तरह के दार्शनिक विचारों का उद्देश्य क्या हो सकता है। उत्तर में उन्होंने नागार्जुन को उद्धृत किया, 'कर्म और क्लेशों के क्षय में मोक्ष है, कर्म और क्लेश विकल्प से आते हैं, विकल्प मानसिक प्रपञ्च से आते हैं, शून्यता में प्रपञ्च का अंत होता है। मुख्य बिन्दु विकृत दृष्टिकोण को समाप्त करना है, जो क्लेशों को जन्म देते हैं।
परम पावन ने कहा, "वैज्ञानिकों का मानना है कि आधारभूत मानव प्रकृति करुणाशील है, इस के बाद भी आज के विश्व में लोग एक-दूसरे से दुर्व्यवहार करते हैं और हत्या करते हैं, एक कारण यह प्रतीत होता है कि आधुनिक शिक्षा करुणा की ओर हमारे मूल मानव प्रवृत्ति ले जाने के बजाय भौतिक विकास की प्राप्ति पर अधिक केंद्रित है।
"हम अपने धार्मिक सम्राटों के कृतज्ञ हैं कि तिब्बत में, बौद्ध अध्ययन और अभ्यास की नालंदा परम्परा लाई गई। महान विद्वान शांतरक्षित ने बौद्ध शिक्षाओं की स्थापना की, जबकि पद्मसंभव ने बाधाओं को दूर किया। शांतरक्षित ने संस्कृत से भारतीय बौद्ध साहित्य का भोट भाषा में अनुवाद प्रोत्साहित किया जो 'बोधिसत्चचर्यावतार' की पुष्पिका में परिलक्षित होता है, जो दिखाता है कि अलग-अलग समय में विद्वानों और अनुवादकों के तीन अलग-अलग समूहों ने, जो संस्करण आज हमारे पास है उसे परिष्कृत करने के लिए काम किया।
"यद्यपि मैं प्यार और करुणा के उनके संदेश के लिए सभी धार्मिक परम्पराओं का सम्मान करता हूँ, पर दार्शनिक अंतर्दृष्टि और इस तरह के विद्वानों द्वारा दिए गए तर्क व कारण के उपकरणों के आधार पर हम बौद्ध आधुनिक वैज्ञानिकों के साथ लाभकारी संवाद में संलग्न होने में सक्षम हुए हैं।
"इस वर्ष मैंने सुझाव दिया कि हम 'बोधिसत्वचर्यावतार' का अध्ययन करें। यदि आप व्याकुल व हताश हैं, तो अध्याय छः का पाठ आपको शांत कर सकता है। इसी तरह, आत्मपोषित व्यवहार के कारण हमारे चित्त सरलता से विचलित हो जाते हैं। अध्याय आठ में इसका उपचार पाया जा सकता है जो ध्यान तथा बोधिचित्त के विकास पर केन्द्रित है।
"१९६७ में, जब मैं खुनु लामा रिनपोछे के 'रत्न दीप' को देखा तो मैंने उनसे मुझे उसकी शिक्षा देने को कहा। 'बोधिसत्वचर्यावतार' की शिक्षा देने के उपरांत उन्होंने मुझसे कहा कि जब भी बन पड़े मैं इसे दूसरों को सिखाऊँ। उन्होंने मुझसे कहा कि शांतिदेव ने इसकी रचना ८वीं शताब्दी में की थी और तब से बोधिचित्त से संबंधित इससे कोई श्रेष्ठ पुस्तक नहीं है - यह बुद्ध की शिक्षाओं का सार है।
"आज, कई लोग क्लेशों से अभिभूत हैं। ये पुस्तकें समझाती हैं कि मोह तथा क्रोध जैसी नकारात्मक भावनाएँ, जिनके मूल में यथार्थ की विकृत दृष्टि है, से कैसे निपटा जाए। शून्यता को समझने वाली प्रज्ञा के विकास से हम उन पर काबू पा सकते हैं तथा अपने चित्त का रूपांतरण कर सकते हैं।"
एक अंतराल के दौरान परम पावन ने श्रोताओं में से छात्रों के कई प्रश्नों के उत्तर दिए। जब सत्र पुनः प्रारंभ हुआ, तो उन्होंने प्रारंभ से 'बोधिसत्वचर्यावतार' का निरंतर पाठ प्रारंभ किया। यदा - कदा स्पष्टीकरण देने के लिए रुकते हुए, परम पावन ने प्रथम चार अध्यायों को पूरा किया और वे अध्याय पांच में थे जब उन्होंने विराम लिया। वे अपना पाठ कल प्रातः जारी रखेंगें।
जैसे कि वे अभ्यस्त हैं, मंदिर से नीचे उतरते हुए, परम पावन ने पुराने, नए मित्रों का मुस्कुराते हुए, हाथ हिलाते तथा मिलाते हुए अभिनन्दन किया और अपने आवास तक की अपनी यात्रा पूरी करने हेतु गाड़ी में सवार हो गए।