कारगिल, लद्दाख, जम्मू-कश्मीर, भारत, आज प्रातः कारगिल में अपने होटल में मीडिया प्रतिनिधियों के एक छोटे समूह के साथ बैठक में परम पावन ने सर्वप्रथम अपनी तीन प्रतिबद्धताओं को रेखांकित किया।
"एक मनुष्य के रूप में, मैं जानता हूँ कि हम सभी शारीरिक, मानसिक और भावनात्मक रूप से समान हैं और हम सभी एक सुखी जीवन जीना चाहते हैं। वैज्ञानिकों का कहना है कि हमारी आधारभूत प्रकृति करुणाशील है। यह स्पष्ट है कि प्रेम व स्नेह लोगों को साथ लाता है। यहां तक कि जानवर भी अपने साथियों के प्रति सीमित परार्थ दिखाते हैं। जब झुंड में एक मर जाता है तो हाथी शोक करते प्रतीत होते हैं।
"जब हम पैदा होते हैं तो हम में से अधिकांश अपनी मां के अत्यधिक प्रेम व स्नेह का आनंद लेते हैं। और उसी से हम करुणा का पहला बीज प्राप्त करते हैं। हम धर्म में विश्वास रखते हों अथवा नहीं, अधिक करुणाशील होना अच्छा है। यह हमें अधिक सुखी व्यक्ति बनाता है जिसका हमारे परिवारों और जहाँ हम रहते हैं वहां के पड़ोसियों पर सकारात्मक प्रभाव पड़ता है। जब कोई एक दयालु जीवन जीता है तो लोग उन्हें स्मरण करते हैं और ऐसा कहते हैं। पर जब एक क्रोधी, लोभी, महत्वाकांक्षी, क्रूर व्यक्ति मरता है, तो राहत की भावना होती है। अतः मैं जहां भी जाता हूँ, सौहार्दता का अभ्यास करने का प्रयास करता हूं।
"मेरी दूसरी प्रतिबद्धता अंतर्धार्मिक सद्भाव को प्रोत्साहित करना है और तीसरा प्राकृतिक पर्यावरण की रक्षा करना है। ये वे क्षेत्र हैं जहां मुझे लगता है कि मीडिया के सदस्यों पर जनता को सतर्क करने और शिक्षित करने का उत्तरदायित्व है।"
पहले प्रश्नकर्ता ने परम पावन को बताया कि लोग कितने खुश थे कि वे दूसरी बार कारगिल की यात्रा कर रहे थे। परम पावन ने उत्तर दिया कि कल हुसैनी बगीचे में जो कुछ उन्होंने कहा था, लोगों द्वारा उस पर ध्यान देने से उन्हें प्रभावित किया था और उनके मर्म को छुआ था। उन्होंने अखिल भारतीय मुस्लिम सम्मेलन आयोजित करने की संभावना को लेकर हाल ही में हुई चर्चाओं का उल्लेख किया जिसका दृष्टिकोण विश्व के अन्य भागों के मुसलमान भाइयों और बहनों के साथ यह साझा करना होगा कि भारत में मुसलमान कैसे अन्य धर्मों के साथ सद्भाव से रहते हैं और किस तरह इस्लाम की सुन्नी और शिया शाखाओं के बीच कोई कलह नहीं है।
एक युवती ने मैत्री के बारे में पूछा और परम पावन ने उसे बताया कि वास्तविक स्थायी मैत्री विश्वास पर आधारित है और किस तरह जब आप दूसरों के कल्याण के लिए चिंता व्यक्त करते हैं तो विश्वास बढ़ता है। उन्होंने एक ईसाई पुजारी, विवाह सलाहकार की सलाह का स्मरण किया जिन्होंने उनसे कहा था कि वे प्रायः विवाह करने वाले जोड़ों को सलाह देते हैं कि वे विवाह में जल्दबाज़ी न करें, अपितु पहले एक-दूसरे को जानें। शारीरिक आकर्षण की तुलना में एक दूसरे के प्रति विश्वास और सम्मान को विकसित करना सरल स्थायी विवाह के लिए एक बहुत ही अच्छा आधार है।
विश्व में संघर्ष सुलझाने के संबंध में, परम पावन बल के प्रयोग के विरोध और संवाद को प्रोत्साहित करने को लेकर दृढ़ थे।
होटल के बाहर लॉन पर कारगिल के बौद्धों के एक समूह से बात करते हुए परम पावन ने टिप्पणी की, कि विभिन्न धार्मिक परम्पराओं में नालंदा परम्परा कारण, तर्क और विश्लेषणात्मक सोच के उपयोग के लिए उल्लेखनीय है। उन्होंने कहा कि बुद्ध ने शंका को प्रोत्साहित किया, जब उन्होंने अपने अनुयायियों से कहा कि जो कुछ उन्होंने कहा है वे उसे आस्था के आधार पर स्वीकार न करें, पर उसकी उस तरह जांच करें जिस तरह स्वर्णकार सोने की जांच करता है और उसे उसके योग्य प्रमाणित होने पर ही स्वीकार करें।
"सभी धार्मिक परम्पराएं व्यक्तियों को बेहतर बनने के लिए सहायता करने में सक्षम हैं क्योंकि वे प्रेम और करुणा, सहिष्णुता और क्षमा के मूल्य का एक आम संदेश सम्प्रेषित करती हैं। ईश्वरवादी आस्थाएँ एक सृजनकर्ता ईश्वर में विश्वास करती हैं, अनीश्वरवादी परम्पराएं जैसे जैन धर्म और बौद्ध धर्म विश्वास नहीं करतीं और एक अलग दृष्टिकोण अपनाती हैं। वे व्यक्तिगत उत्तरदायित्व और अपने चित्त को प्रशिक्षित करने और क्रोध, घृणा और ईर्ष्या जैसी विनाशकारी भावनाओं को कम करने के महत्व पर बल देती हैं।
"बौद्ध साहित्य में चित्त के प्रकार्य और ऐसी विनाशकारी भावनाओं से निपटने के उपायों की समृद्ध समझ है। मैं लोगों को यह बताने का प्रयास करता हूँ कि मात्र भौतिक विकास सुख का कोई वादा नहीं है - मुख्य कारक चित्त की शांति है। बुद्ध शाक्यमुनि के अनुयायियों के रूप में हमारे लिए उनकी शिक्षाओं पर ध्यान देने और चित्त को परिवर्तित करना अच्छा होगा।
"८वीं शताब्दी के नालंदा आचार्य शांतिदेव ने 'बोधिसत्वचर्यावतार' लिखा, और उसमें दी गई सलाहों का मैंने ध्यान से पालन किया और अपनी स्वयं की भावनाओं को परिवर्तित किया। क्षांति से संबंधित अध्याय छः में क्रोध को कम करने के बारे में अमूल्य सलाह है। अध्याय आठ चर्चा करता है कि हम क्यों और किस तरह बोधिचित्त को विकसित कर सकते हैं।"
परम पावन ने कई अंग्रेज़ी तथा हिन्दी अनुवाद की प्रतियाँ लोगों को दीं।
"हम बौद्धों को २१वीं शताब्दी का बौद्ध होना चाहिए, आस्था पर कम निर्भर होना चाहिए और इस समझ पर अधिक कि चित्त किस तरह कार्य करता है। हाल ही में तवांग फाउंडेशन ने हिमालयी क्षेत्र के लद्दाख से तवांग तक मौजूदा मंदिरों, विहारों और भिक्षुणी विहारों में शिक्षण केंद्रों के प्रसार का संकल्प किया है। मेरा उनके लिए पूर्ण समर्थन है।"
परम पावन ने कारगिल से गाड़ी द्वारा १९९२ में मुलबेक में स्थापित स्प्रिंग डेलस पब्लिक स्कूल तक की ४० कि मी की दूरी तय की। परम पावन का स्कूल के मैदान के समक्ष एक मंच पर अनुरक्षण किया गया, जहाँ २३० छात्र, उनके माता-पिता और संबंधी स्कूल के कर्मचारी और रुचि रखने वाले लोग एकत्रित हुए थे।
प्रधानाचार्य नोरबो का स्वागत भावप्रवण था। उन्होंने परम पावन को बताया कि उन्हें कितनी निराशा हुई थी, जब २०१४ में खराब मौसम के कारण वे स्कूल देखने नहीं आ सके थे। पर उन्होंने आशा नहीं छोड़ी और उन्होंने कृतज्ञता का अनुभव किया जब अध्यक्ष हाजी अली ने उन्हें कारगिल में आमंत्रित किया और मुलबेक आने की सुविधा प्रदान की। प्रधानाचार्य ने सूचित किया कि स्कूल और उसके शिक्षक आश्वस्त हैं कि यदि वे एक मैत्रीपूर्ण और देखभाल भरे वातावरण में समग्र शिक्षा प्रदान करें तो छात्र अपनी सहज रचनात्मकता को अपने और दूसरों के लाभ के लिए उपयोग करना सीखेंगे।
उन्होंने दलाई लामा ट्रस्ट से दिए जा रहे स्कूल के समर्थन के लिए कृतज्ञता व्यक्त की, विशेषकर उनकी छात्रावास परियोजना के लिए, जो सर्दियों के महीनों में स्कूल की गतिविधियों का बहुत विस्तार करने की आशा रखता है। उन्होंने समाप्त करते हुए कहा "हम बच्चों को अच्छी गुणवत्ता वाली शिक्षा प्रदान करने के लिए समर्पित हैं और आप परम पावन के प्रोत्साहन और समर्थन के लिए आप का धन्यवाद करते हैं।"
परम पावन ने प्रधानाचार्य के रिपोर्ट की सराहना की "आप उन बातों को क्रियान्वित करने का प्रयास कर रहे हैं जिनके विषय में मैं बोलता हूं, अतः मेरे पास जोड़ने के लिए बहुत कुछ नहीं है।
"हम अब २१वीं शताब्दी में हैं और जब हम विगत शताब्दी को देखते हैं तो यह पीड़ा और युद्ध से भरा हुआ प्रतीत होता है। जबकि मेरा संबंध २०वीं शताब्दी से है, आप यहां के छात्र २१वीं सदी के हैं। आजकल, हम सोचने के पुराने तरीकों के कारण विश्व में संकट देखते हैं - मुख्य रूप से समस्याओं को हल करने के लिए हथियार और बल का उपयोग। यद्यपि दृष्टिकोण बाद में बदल गया था पर २०वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में लोगों को उनकी शक्तिशाली सेनाओं पर गर्व था, ठीक उसी तरह जैसे कि उन्हें बाद में अपने आणविक शस्त्रों पर गर्व था।
"परन्तु द्वितीय विश्व युद्ध के बाद, लोग शांति के महत्व की सराहना करने लगे। फ्रांसीसी और जर्मन नेताओं, डी गॉल और एडनॉयर ने यूरोपीय संघ स्थापित करने के लिए काम किया और परिणामस्वरूप उस समय से यूरोप में शांति बनी हुई है। मैं राष्ट्रीय हितों पर आम अच्छे को बढ़ावा देने की भावना की वास्तव में प्रशंसा करता हूं।
"द्वितीय विश्व युद्ध के बाद भी, जापान के नेतृत्व में परमाणु विरोध आंदोलन उभरा। मैं हिरोशिमा और नागासाकी गया हूँ जहां इन भयानक शस्त्रों का उपयोग किया गया था। अभी हाल ही में, इराक संकट के दौरान, विश्व के कई अलग-अलग हिस्सों में कई लोगों ने हिंसा और युद्ध का विरोध किया।
"यहाँ चेक गणराज्य के स्वयंसेवकों से भेंट ने मुझे राष्ट्रपति व्वक्लेव की याद दिला दी, जो इस तरह के शांति आंदोलनों का समर्थन करते थे। जब चेकोस्लोवाकिया स्वतंत्र हुआ और सोवियत प्रभुत्व से मुक्त हो गया तो उन्होंने मुझे समारोह में आमंत्रित किया। मैं उनका प्रशंसक था। उनकी मृत्यु एक बड़ी क्षति थी। हमें उनके जैसे अधिक नेताओं की आवश्यकता है।
"यहां भारत में, महात्मा गांधी ने अहिंसा के माध्यम से स्वतंत्रता संग्राम में लगे रहे। उन्होंने सिखाया कि राजनीतिक संदर्भ में अहिंसा के प्राचीन भारतीय अभ्यास को कैसे कार्यान्वित किया जाए।
"इराक संकट के समय, मुझे मध्यस्थता हेतु बगदाद जाने के लिए कहा गया, पर मुझे नहीं लगा कि मैं प्रभावी होने के लिए किसी को जानता था। मैंने राष्ट्रपति हावेल को लिखा कि एक प्रतिनिधिमंडल, उदाहरण के लिए, नोबेल शांति विजेता, जो किसी सरकार का प्रतिनिधित्व नहीं करता, केवल शांति में रुचि रखता है, घटनाओं को प्रभावित करने में सक्षम हो सकता है। मुझे अभी भी लगता है कि युद्ध से बचा जा सकता था।
"न्यूयॉर्क और वाशिंगटन में ११ सितंबर की घटना के बाद, मैंने राष्ट्रपति बुश को अपनी प्रार्थनाएँ और संवेदनाएं प्रस्तुत कीं। मैंने यह आशा भी व्यक्त की कि कोई भी प्रतिक्रिया अहिंसक हो। मैंने कहा, 'आज एक बिन लादेन है, पर यदि आप हिंसा का सहारा लें और बल का उपयोग करें तो आप सौ बिन लादेन बनाने का संकट रखते हैं।' हिंसा प्रतिकार के रूप में कभी न समाप्त होने वाली हिंसा को उकसाती है।"
परम पावन ने कहा कि विभिन्न विचारों के परिणामस्वरूप मनुष्यों के बीच सदैव असहमति होगी, पर उनके समाधान के उपाय संवाद है। उन्होंने यह मानते हुए शांतिपूर्ण शताब्दी बनाने की आवश्यकता पर बल दिया कि हम सभी मानव समुदाय से संबंधित हैं, पर यह भी स्मरण रखते हुए कि शांति व्यक्तिगत स्तर पर शुरू होती है।
उन्होंने टिप्पणी की, कि मनुष्य सामाजिक प्राणी हैं और यह प्रेम है जो हमें एक साथ लाता है, जबकि क्रोध हमें अलग करता है। वैज्ञानिकों ने दिखाया है कि जहां निरंतर क्रोध और घृणा हमारी प्रतिरक्षा प्रणाली को दुर्बल करती है, करुणा हमारे स्वास्थ्य को मजबूत बनाती है। परम पावन ने टिप्पणी की, कि यह आगामी जीवन, स्वर्ग या निर्वाण के बारे में नहीं है। हमारे दैनिक जीवन में अधिक शांतिपूर्वक और सुख से रहने के लिए, हमें सौहार्दता की आवश्यकता है।
"ये कुछ चीजें हैं जो मैंने देखी हैं। मैं २०वीं शताब्दी का हूँ, पर आप में से जो २१वीं सदी की पीढ़ी के हैं, उन्हें सम्पूर्ण विश्व को साथ लेने की आवश्यकता है। इस शताब्दी को शांति का युग बनाने का कोशिश करें। आधुनिक शिक्षा को इस ओर ध्यान देना चाहिए कि आंतरिक शांति किस तरह विकसित की जाए। जैसे हमें शारीरिक रूप से ठीक होने की आवश्यकता है, हमें मानसिक रूप से ठीक होने की भी आवश्यकता है। और जैसे हम अपने स्वास्थ्य को बनाए रखने के लिए शारीरिक स्वच्छता को बनाए रखना सीखते हैं, हमें भावनात्मक स्वच्छता की भी आवश्यकता होती है जो हमारी विनाशकारी भावनाओं का सामना करने से है।
"आज हम जिन कई समस्याओं का सामना कर रहे हैं उनमें से कई स्वनिर्मित हैं। एक अधिक शांतिपूर्ण विश्व बनाने के लिए एक शांत चित्त और शांत हृदय की आवश्यकता होती है। मानव भाइयों और बहनों के रूप में हमें सहिष्णुता और स्नेह के साथ रहना चाहिए। एक कदम जो हम उठा सकते हैं वह अंतर्धार्मिक सद्भाव को प्रोत्साहित करना है। भारत विश्व को दिखा सकता है कि विश्व की धार्मिक परंपराओं के लिए मैत्री और सम्मान से सह अस्तित्व रखना संभव है।"
परम पावन ने जलवायु परिवर्तन के खतरे और पर्यावरण की अधिक देखभाल करने की तात्कालिकता के बारे में भी बात की। उन्होंने बताया कि पिछले ६० वर्षों में धर्मशाला में बर्फबारी तेजी से कम हो रही है। परिणाम जल का अभाव होगा। उन्होंने स्मरण किया कि जब वह तिब्बत में थे तो किसी के मन में शुद्ध जल को लेकर कोई प्रश्न न था। यह केवल निर्वासन में ही उन्होंने जाना कि प्रदूषण के कारण कुछ जल पीने के उपयुक्त नहीं है। परन्तु उन्होंने कहा, उपचारात्मक कदम सफलता के साथ लिए जा सकते हैं। एक समय स्टॉकहोम, स्वीडन में नदियों में जल इतना प्रदूषित हो गया था कि उनमें कोई मछली न थी, परन्तु प्रदूषण को खत्म करने के प्रयासों के बाद, मछलियाँ लौट आई हैं।
अंत में, परम पावन ने बल देते हुए कहा कि वे एक बौद्ध हैं, नालंदा परम्परा के छात्र हैं, जिसने उन्हें समालोचनात्मक बुद्धि के बारे में शिक्षित किया है।
"बुद्ध एक महान शिक्षक थे, पर वे एक महान विचारक भी थे, एक दार्शनिक, जिन्होंने कारण और प्रयोग को प्रोत्साहित किया। नागार्जुन, आर्यदेव, बुद्धपालित, चंद्रकीर्ति, दिङ्नाग और धर्मकीर्ति भी महान दार्शनिक थे। हम अभी भी उन्होंने जो लिखा उसका अध्ययन करते हैं। कंग्यूर और तेंग्यूर के ३०० से अधिक खंडों में से अधिकांश भारतीय ग्रंथों के अनुवाद शामिल हैं। अनुवाद की प्रक्रिया के दौरान भोट भाषा समृद्ध और परिष्कृत हुई। परिणामस्वरूप आज बौद्ध दर्शन और मनोविज्ञान को समझाने के लिए यह सबसे सटीक माध्यम है। इसलिए, भोट भाषा को जानना लाभकर है।
आज, चीनी विद्वान भी नालंदा परम्परा के वैज्ञानिक दृष्टिकोण की सराहना करते हैं जिसे हमने तिब्बत में जीवित रखा।"
परम पावन ने बच्चों को 'मंजुश्री स्तुति' और उनके मंत्र का संचरण कर समाप्त किया। उन्होंने शिक्षा के महत्व को दोहराया तथा श्रोताओं को बताया कि बिना शिक्षा के आप विकास नहीं कर सकते।
परम पावन 'सत्य के शब्दों की प्रार्थना' के गायन में स्प्रिंग डेल के छात्रों से जुड़े जिसके उपरांत चेक संगीतकार इवा बिट्टोवा ने पारंपरिक चेक गीत प्रस्तुत किया।
आमंत्रित अतिथियों के साथ मध्याह्न भोजन के बाद, परम पावन ने नए छात्रावास भवन को देखा और कारगिल वापस जाने से पहले छात्रों, चेक स्वयंसेवकों, शिक्षकों और कर्मचारियों के साथ तस्वीरों के लिए पोज़ किया। कल, वे लेह लौट जाएंगे।