धर्मशाला, हि. प्र., भारत, आज प्रातः परम पावन दलाई लामा के निवास स्थल के निकट का मुख्य तिब्बती मंदिर, माइंड एंड लाइफ सम्मेलन, जो रीइमाजिनिंग ह्यूमन फ्लरिशिंग (मानवीय सम्पन्नता की पुनर्कल्पना) पर केन्द्रित है, के उद्घाटन का स्थल था। प्रतिभागी प्रस्तुतकर्ता तथा संचालक कम ऊँचाई वाली एक विशाल गोल मेज़ के इर्द गिर्द बैठे हैं जो कि मंदिर के मुख्य भाग के बगल में है। उनके चारों ओर अतिथि और रुचि रखने वाले पर्यवेक्षक हैं - माइंड एंड लाइफ की ओर से १०० तथा अतिरिक्त २००, जिनमें से कई दलाई लामा ट्रस्ट द्वारा आमंत्रित किए गए विद्वान भिक्षु व भिक्षुणियाँ हैं। जब परम पावन वहाँ आए तो मेज के प्रमुख के रूप में आसन ग्रहण करने से पूर्व उन्होंने कई पुराने मित्रों का अभिनन्दन किया।
माइंड एंड लाइफ इंस्टिट्यूट की अध्यक्षा सुसान बाउर-वू ने इस माइंड एंड लाइफ संवाद में जो कुल रूप में ३३वां है और धर्मशाला में १३वां है, में उपस्थित सभी लोगों स्वागत करते हुए प्रारंभ किया। उन्होंने इसे संभव बनाने तथा समर्थन के लिए परम पावन, दलाई लामा ट्रस्ट तथा हर्शे फैमिली फाउंडेशन के प्रति कृतज्ञता व्यक्त की। अपने अस्तित्व के २६वें वर्ष में उन्होंने दुःख को समाप्त करने और मानव सन्पन्नता को बढ़ावा देने के लिए माइंड एंड लाइफ इंस्टिट्यूट के लक्ष्य को दोहराया। इस अवसर पर उद्देश्य यह है कि किस तरह युवाओं को एक अच्छी शिक्षा दी जाए, जो धर्मनिरपेक्ष नैतिकता, एकाग्रता और करुणा, प्रेम और क्षमा की ओर ध्यान देता हो - हृदय की शिक्षा, इस प्रमाण को ध्यान में रखते हुए कि करुणा की शिक्षा दी जा सकती है। उन्होंने २०१३ में मुंडगोड में हुए संवाद की कार्यवाही की नूतन पुस्तक, 'द मोनास्ट्री एंड द माइक्रोस्कोप' की प्रति परम पावन को भेंट करते हुए अपना परिचय समाप्त किया।
आज प्रातः के संचालक किम्बर्ली शॉनर्ट-रेशल ने प्रथम वक्ता रिचर्ड डेविडसन का परिचय दिया। उन्होंने परम पावन को उनके समय और प्रेरणा के लिए धन्यवाद देते हुए प्रारंभ किया और वर्तमान बैठक का एक संक्षिप्त ऐतिहासिक संदर्भ प्रस्तुत किया। उन्होंने वर्तमान बैठक को प्रभावित करने वाले विगत पाँच बैठकों को उद्धृत किया। प्रथम धर्मशाला में १९९५ में आयोजित पांचवां माइंड एंड लाइफ संवाद था जिसमें परोपकारिता, नैतिकता और करुणा पर चर्चा हुई थी। अगला ८वां संवाद भी धर्मशाला में था, जिसमें विनाशकारी भावनाओं पर चर्चा हुई जिससे प्रेरित डान गोलमैन ने एक पुस्तक लिखी जिसने उन विषयों पर सार्वजनिक ध्यान को केंद्रित किया। इस महत्वपूर्ण बिंदु पर, डेविडसन ने सूचित किया कि, परम पावन ने माइंड एंड लाइफ इंस्टिट्यूट के सदस्यों को सद् चित्त का विकास करने तथा विनाशकारी भावनाओं का प्रतिकार करने के व्यावहारिक उपायों के परीक्षण करने का परामर्श दिया था।
'इन्वेस्टिगेटिंग द माइंड' पर तीसरी महत्वपूर्ण बैठक एमआईटी में हुई। यह पुनः महत्वपूर्ण था क्योंकि यह मुख्य धारा के वैज्ञानिक संदर्भ में चित्त तथा विनाशकारी भावनाओं के विषय में प्रश्न खड़े करने की पहली सार्वजनिक बैठक थी। प्रतिष्ठित वैज्ञानिक पत्रिका नेचर ने इसे सूचित किया और इस तरह माइंड एंड लाइफ के उद्देश्य की ओर विश्व का ध्यान आकर्षित हुआ। न्यूरोप्लास्टिसिटी पर केंद्रित चौथी प्रमुख बैठक में सामने आया, कि चित्त का प्रशिक्षण मस्तिष्क में परिवर्तन ला सकता है, जबकि वाशिंगटन, डीसी में पांचवां, विश्व नागरिकों को शिक्षित करने पर केंद्रित था।
इस सम्मेलन के दौरान चर्चा किए जाने वाले विषयों की समीक्षा करने के उपरांत डेविडसन ने प्रारंभिक बाल्यकाल का विकास और सामाजिक भावनात्मक शिक्षण के आज के विषय के तहत अपनी प्रस्तुति प्रारंभ की। उन्होंने प्रारंभिक बाल्यकाल के विकास में न्यूरोप्लास्टिसिटी, आनुवांशिकी की भूमिका, संवेदनशील अवधि और जन्मजात आधारभूत अच्छाई का उल्लेख किया। उन्होंने मस्तिष्क के विकास की समय रेखा के संदर्भ में प्रारंभिक अन्तर्ग्रथनी अधिक उत्पादन, प्रांतस्था छंटाई और प्री फ्रंटल छंटाई के बारे में बात की। कुछ घटनाएँ अतिसंवेदनशीलता की ओर ले जाती हैं, जबकि अन्य लचीलेपन को जन्म देती हैं। उन्होंने बचपन के विकास में संवेदनशील अवधि, जैसे जन्म, स्कूल तथा किशोरावस्था के प्रारंभ का भी संदर्भ दिया।
मस्तिष्क में हुए परिवर्तनों से संबंधित विचारों के संदर्भ में, परम पावन जानना चाहते थे, यदि कोई शारीरिक रूप से सहज होता है तो पहले क्या आता है विचार या मस्तिष्क में परिवर्तन। डेविडसन ने उत्तर दिया कि कई वैज्ञानिक कहते हैं कि विचार व मस्तिष्क की गतिविधि सह-घटित होती है, तथा यह टिप्पणी की, कि यह चित्त तथा और मस्तिष्क के बीच के संबंध से संबंधित है, जिसके बारे में विगत १०० वर्षों में कम वैज्ञानिक प्रगति हुई है। इसने परम पावन को वैज्ञानिकों के साथ उनकी बैठकों के उद्देश्य पर चिंतन करने के लिए प्रेरित किया।
"हमारा उद्देश्य अपने ज्ञान का विस्तार है। कई दशकों के अनुभव ने बताया है कि चित्त की कार्यप्रणाली की प्राचीन भारतीय समझ एकाग्रता के विकास और विश्लेषण के अभ्यासों से आती है - शमथ तथा विपश्यना। इसमें भावनाओं को रूपांतरित करना शामिल है जो आज प्रासंगिक बना हुआ है। दूसरी ओर, विज्ञान पारम्परिक भारतीय ब्रह्माण्ड विज्ञान के लिए एक चुनौती प्रस्तुत करता है, जिसके परिणामस्वरूप मेरु पर्वत को ब्रह्मांड के केंद्र के रूप में विश्वास को मैंने सार्वजनिक रूप से अस्वीकार कर दिया है।
"परन्तु चूँकि विज्ञान ने चित्त का परीक्षण मात्र अभी प्रारंभ किया है, मेरा मानना है कि प्राचीन भारतीय ज्ञान का इसमें योगदान है और इन परम्पराओं को एक साथ लाना महत्वपूर्ण है। १९७९ में, जब मैंने मॉस्को में वैज्ञानिकों के साथ विचार-विमर्श किया तो वे पांच ऐन्द्रिक चेतनाओं को स्वीकार करते हुए खुश थे, परन्तु उन्होंने मानसिक चेतना को यह कहते हुए खारिज कर दिया कि इसका संबंध मात्र धर्म से है।
"इन बैठकों के दूसरे उद्देश्य आज का विश्व भावनाओं के संकट से जुड़ा है जो सम्प्रति हम विश्व में देखते हैं, जो इस विरोधाभास में प्रकट होता है कि हम यहाँ एक साथ शांति का अनुभव कर रहे हैं और विश्व के अन्य भागों में अनुभूत पीड़ा है जहां लोग मारे जा रहे हैं अथवा भुखमरी का शिकार हो रहे हैं। हमें दूसरों के हित की ओर अधिक चिंता व्यक्त करने की आवश्यकता है। हमें सभी मनुष्यों की एकता के बारे में अधिक सोच रखने की ज़रूरत है, यह भावना कि हम सभी एक समुदाय से संबंधित हैं। हमें सौहार्दता को बढ़ावा देने की आवश्यकता है। धर्म इसमें योगदान दे सकते हैं, परन्तु यदा कदा धर्म अधिक विभाजन की ओर ले जाता है। ऐसे संदर्भ में, वैज्ञानिकों द्वारा यह प्रमाण खोजा जाना कि आधारभूत मानव प्रकृति करुणाशील है, आशा का एक स्रोत है।
"वह आधारभूत मानव प्रकृति आत्मविश्वास, विश्वास और पारदर्शिता को जन्म दे सकती है। यह हमें मुस्काने की अनुमति देता है। दूसरों को शंका से देखना खुश रहने का कोई उपाय नहीं है। आज जीवित सात अरब लोगों में एक अरब लोगों की धर्म में कोई रूचि नहीं है, पर वे भी मनुष्य हैं। हम और उन्हें एक अधिक शांतिपूर्ण, सुखी विश्व निर्माण हेतु एक धर्मनिरपेक्ष दृष्टिकोण की आवश्यकता है। उदाहरणार्थ विज्ञान हमें दिखाता है कि हमारे शारीरिक स्वास्थ्य के लिए सौहार्दपूर्णता अच्छी है।
"समय आ गया है कि हम मात्र सीमाओं के भीतर के अपने राष्ट्र के बारे में न सोचकर सम्पूर्ण मानवता के संदर्भ में सोचें। पर्यावरण भी हमें बता रहा है कि हम मनुष्यों को एक समुदाय के रूप में मिलकर काम करना है, जो एकमात्र उपाय है कि हम ऐसे गंभीर मुद्दों का सामना कर पाएँगे जैसे कि जल का बढ़ता अभाव। इसके लिए शिक्षा के प्रति एक नए दृष्टिकोण की आवश्यकता होगी जो वैज्ञानिक निष्कर्षों को साथ ले और जो एक धर्मनिरपेक्ष वैज्ञानिक दृष्टिकोण के आधार पर मानव गुणों का विकास करे।
"यह विश्व अपनी मानव जनसंख्या के साथ कुछ हजार वर्षों तक रह सकता है, परन्तु हमें आगामी पीढ़ी को वस्तुओं को विभिन्न रूप से करने के लिए प्रोत्साहित करना होगा। मैं लगभग ८३ का हूँ और मेरे पास इतना समय नहीं बचा है और जब मैं जाऊंगा तो मैं स्वर्ग जा सकता हूँ, यदि ऐसा कुछ है। पर मैं इस ग्रह पर पुनः जन्म ले सकता हूँ क्योंकि मैं प्रार्थना करता हूँ कि जब तक आकाश है और जब तक सत्व हैं, तब तक लोक के दुख को दूर करने के लिए मैं भी बना रहूँ।
"यह हमारी पीढ़ी का उत्तरदायित्व है कि हम कार्य करें। हमने बहुत युद्ध देखा है। हमने शस्त्रों पर बहुत अधिक खर्च की गई राशि देखी है। बल प्रयोग द्वारा समस्याओं का उत्तर देना तारीख से बाहर है। यह गलत उपाय है पर फिर भी हम इसे २१वीं शताब्दी के प्रारंभ में दोहराते हुए देखते हैं। हमें बदलना होगा, पर हमारी शिक्षा प्रणाली अत्यंत भौतिकवादी है। परन्तु हम इसमें सुधार कर सकते हैं और अब जो काम हम करें उससे सदियाँ प्रभावित हो सकती हैं।"
रिचर्ड डेविडसन ने अपनी प्रस्तुति का समापन करते हुए कहा कि बच्चों और युवाओं के बीच अवसाद और आत्महत्या में वृद्धि हुई है। उन्होंने टिप्पणी की, कि प्रमुख वैज्ञानिकों ने चित्त की कार्यप्रणाली की प्राचीन भारतीय समझ का संभावित योगदान स्वीकार करना प्रारंभ कर दिया है।
चाय के पन्द्रह मिनट के अंतराल के उपरांत मिशेल बोइविन ने बाल्य विकास के अध्ययन पर बात की, विशेषकर जुड़वाँ बच्चों में किस तरह विकास होते हैं उसकी जांच। इस संबंध में कि प्रकृति अथवा पोषण का बच्चे के विकास में अधिक प्रभाव पड़ता है, उन्होंने एक और विशेषज्ञ को उद्धृत करते हुए पूछा कि एक आयताकार के लिए क्या अधिक महत्वपूर्ण है, चौड़ाई या लंबाई।
डेन गोलेमैन ने "रीइमाजिनिंग ह्यूमन फ्लरिशिंग" (मानवीय सम्पन्नता की पुनर्कल्पना) के संदर्भ में सामाजिक और भावनात्मक शिक्षा की चर्चा की। उन्होंने छोटे बच्चों को यह सिखाने की बात की, कि वे सोचें कि किसी स्थिति को क्या बेहतर कर सकता है और क्या उसे बुरा कर सकता है। उन्होंने परम पावन को स्मरण कराया कि उनके मित्र पॉल एकमन ने टिप्पणी की थी कि परिपक्वता आवेग तथा कार्य के बीच में अंतर को अधिक करने के बारे में है। सामाजिक और भावनात्मक शिक्षण के लाभ यह हैं कि यह अधिक आत्म-जागरूकता और आत्म-प्रबंधन कौशल, साथ ही उत्तरदायी नैतिक निर्णय लेने की ओर जाता है।
परम पावन ने टिप्पणी की, कि चित्त परिवर्तित हो सकता है और बच्चे विश्लेषण की शिक्षा को लेकर ग्रहणक्षम होते हैं। उन्होंने प्राचीन भारतीय दृष्टिकोण का उल्लेख किया कि स्पष्टीकरण का पठन अथवा श्रवण पर्याप्त नहीं है। आपको उसे वास्तव में समझने के लिए चिंतन करना होगा। और कुछ समझने के बाद आप को उससे वास्तव में परिचित होना होगा ताकि उस समझ को आप साकार कर सकें।
जैसे ही उद्घाटन सत्र समाप्त हुआ, परम पावन मंदिर से निकले और अपने निवास लौट गए। मध्याह्न में सम्मेलन प्रतिभागियों ने अपनी चर्चा जारी रखी। परम पावन कल प्रातः पुनः उनके साथ सम्मिलित होंगे।