सुमुर, नुबरा घाटी, लद्दाख, जम्मू-कश्मीर, भारत, आज प्रातः परम पावन दलाई लामा समतेनलिंग विहार के ऊपर अपने निवास से निकले और नीचे मंदिर जाने के लिए पैदल गए। बरामदे में उन्होंने भव चक्र के चित्र को देखा और उसके बाद बुद्ध शाक्यमुनि, जे चोंखापा और सहस्र भुजा अवलोकितेश्वर की मूर्तियों को देखने और उनके समक्ष सम्मान व्यक्त करने के लिए अंदर गए। धूप में बाहर आते हुए, वे पश्चिम के लोगों के समूह से बात करने के लिए रुके और उनसे कहा कि सभी इंसान शारीरिक, मानसिक और भावनात्मक रूप से समान हैं, इसलिए मानवता की एकता को स्वीकार करना आवश्यक है। उन्होंने स्वीकार किया कि हमारे बीच धर्म, राष्ट्रीयता, जाति, समृद्धि इत्यादि को लेकर अंतर हैं, पर वे गौण महत्व के हैं।
विहार के नीचे की सीढ़ियों पर लद्दाखियों का एक समूह उनका अभिनन्दन करने हेतु प्रतीक्षा कर रहा था। परम पावन ने कुछ लोगों के साथ हाथ हिलाया, कुछ के साथ नोक झोंक की और समूह में उनके साथ तस्वीरों के लिए पोज़ किया। वे प्रवचन स्थल के लिए चलते रहे जहाँ वे उसके उद्घाटन को चिह्नित करने के लिए मंगल प्रार्थनाओं में सम्मिलित हुए तथा ज्ञान का दीप प्रज्ज्वलित किया। जैसा वे करते आए हैं, परम पावन ने मुस्काते और हाथ जोड़कर हर दिशा में ८००० से अधिक लोगों के जनमानस में जितना संभव था उतने लोगों को अभिनन्दित करने का प्रयास किया। जब उन्होंने स्कूल के बच्चों को देखकर हाथ हिलाया तो उत्तर में उन्होंने भी आनन्द पूर्वक अभिनन्दन में हाथ हिलाया।
गदेन ठिसूर रिज़ोंग रिनपोछे, जो समतेनलिंग के उपाध्याय के रूप में इस महा ग्रीष्मकालीन शास्त्रार्थ कार्यक्रम के मेजबान हैं, पहले बोले। उन्होंने सभी का स्वागत किया तथा बौद्धों के लिए बोधिचित्तोत्पाद, जो कि प्रेम व करुणा से उत्पन्न होता है, को प्रज्ञा, शून्यता की स्पष्ट समझ से जोड़ने के महत्व का उल्लेख किया। उन्होंने आगे बुद्ध के शिक्षाओं की अनूठी गुणवत्ता को स्पष्ट किया - प्रतीत्य समुत्पाद पर आश्रित स्वभाव सत्ता की शून्यता - यही कारण है कि बुद्ध को एक अतुलनीय शिक्षक के रूप में जाना जाता है।
उन्होंने एक भविष्यवाणी का उल्लेख किया जिसमें बुद्ध ने भविष्यवाणी की थी कि जे चोंखापा आएंगे और गदेन नाम के एक विहार की स्थापना करेंगे, जो कि हिमालयी क्षेत्र के लोगों के लिए, साथ ही तिब्बती लोगों के लिए कुछ महत्व का है। गदेन ठिसूर रिज़ोंग रिनपोछे ने आगे बुद्ध की अन्य भविष्यवाणियों का उल्लेख किया जिसमें बोधगया के उत्तर में हिमभूमि में अवलोकितेश्वर का प्रकट होना था। भारत और तिब्बत में छयालीस प्रकट रूप जिसमें प्रारंभिक धर्म राजा और दलाई लामा की परम्परा शामिल थी।
रिनपोछे ने तिब्बती समुदाय को लोकतंत्र प्रारंभ करने और तिब्बत की समस्याओं के समाधान के लिए स्पष्ट रूप से अहिंसक मध्यम मार्ग दृष्टिकोण का प्रस्ताव रखने पर परम पावन की उपलब्धियों को संदर्भित किया। रिनपोछे ने परम पावन की शिक्षाओं के संबंध में लोगों की इच्छा को पूरा करने की क्षमता को संदर्भित किया, फिर चाहे वे खुद को ञिङमा, सक्या, कर्ग्यू या गेलुग मानें। उन्होंने श्रोताओं को सलाह दी कि वह वे स्वयं को भाग्यशाली मानें कि वे परम पावन को देखने और सुनने में सक्षम हैं और कहा कि वे उनके दीर्घायु होने की कामना करें। उन्होंने टिप्पणी की, जिस तरह परम पावन करते हैं कि बुद्ध की शिक्षाओं को आगम व अधिगम में वर्गीकृत किया जा सकता है - तथा उन्हें संरक्षित करने का उपाय अध्ययन और अभ्यास है।
उन्होंने समतेनलिंग में तर्क और शास्त्रार्थ के उपयोग की स्थापना के लिए जो इस महा ग्रीष्मकालीन शास्त्रार्थ का मंचन करने में परिपक्व हुआ है, गेशे येशे ज्ञलछेन को धन्यवाद दिया।
अपनी बारी आने पर, गेशे येशे ज्ञलछेन, जो लद्दाखी भी हैं, ने समझाया कि १९९८ में, रिजोंग रिनपोछे, जो तब जंगचे छोजे थे, ने उन्हें समतेनलिंग आने व दर्शन सिखाने के लिए आमंत्रित किया था। तब से, दक्षिण भारत में पुनर्स्थापित गोमंग महाविहार में अध्ययन तथा प्रशिक्षण के लिए हर वर्ष दस भिक्षुओं को भेजना संभव हुआ है। ये भिक्षु परम पावन के समक्ष शास्त्रार्थ करने में पर्याप्त रूप से कुशल हो गए हैं। उन्होंने कहा कि उन्होंने नालंदा परम्परा को जीवित रखने के लिए अपना सर्वश्रेष्ठ प्रयास किया है, जिसके परिणामस्वरूप आम लोग भी इन दिनों बौद्ध दर्शन का अध्ययन कर रहे हैं।
अंत में उन्होंने उस प्रस्ताव के बारे में राय और सलाह मांगी जो उन्होंने उनके द्वारा शिक्षित भिक्षुओं के लिए किया है, जिन्होंने गेशे के रूप में स्नातक की उपाधि प्राप्त की है। उनके स्नातक होने के बाद वे उन्हें अध्ययन के पांच महाविद्याओं में से एक का चयन करने और उस पर और अधिक अध्ययन केंद्रित करने के लिए प्रोत्साहित करते हैं।
परम पावन ने तुरंत उत्तर दिया कि दक्षिण भारत के महाविहारों में १००० पूरी तरह से योग्य गेशे हैं। "एक बार वे स्नातक हो जाते हैं," तो मंद हंसी के साथ उन्होंने कहा, "कुछ संयुक्त राज्य अमेरिका और यूरोप जाना चाहते हैं, पर अन्य अध्ययन जारी रखने के लिए यहीं रहते हैं। निश्चित रूप से, तर्क, माध्यमक, प्रज्ञापारमिता इत्यादि को चुन कर उनका गहन रूप से अध्ययन करना अच्छा होगा। इसमें तेंग्यूर में पाए गए महान भारतीय आचार्यों के भाष्य से बेहतर परिचय शामिल होगा। जब मैं सितु रिनपोछे के विहार, शेरबलिंग गया तो भिक्षुओं ने बस यही किया था - और वे बहुत प्रभावशाली थे। इसी तरह मैंने दक्षिण में नमडोललिंग विहार के भिक्षुओं से भी कहा है कि वह स्वयं को शांतरक्षित के तत्त्वसंग्रह से परिचित करें।
"यहाँ गेशे येशे ज्ञलछेन ने धर्म के लिए महान सेवा की है।"
तत्पश्चात नुबरा घाटी मुस्लिम समुदाय के अध्यक्ष मोहम्मद अकरम ने अपनी बात रखी और सभी गणमान्य व्यक्तियों तथा अतिथियों, विशेष रूप से परम पावन का स्वागत किया। उन्होंने उन्हें पुनः नुबरा आमंत्रित करने के लिए रिज़ोंग रिनपोछे और ठिकसे रिनपोछे का धन्यवाद किया। उन्होंने कुछ गौरव के साथ स्मरण किया कि परम पावन शुक्रवार को दिस्कित में नई मस्जिद गए थे, मुसलमानों का पावन दिन, और एक ख्वाइश के साथ समाप्त किया कि दुनिया में अमन, सद्भाव और दोस्ती बढ़े।
लद्दाख बौद्ध संघ के अध्यक्ष, छेवांग ठिनले ने महा ग्रीष्मकालीन शास्त्रार्थ की सफलता के बारे में बात की, जो अब लद्दाख में अपने छठे वर्ष में है। उन्होंने यह भी टिप्पणी की, कि लोगों की इसके बारे में जागरूकता लगातार बढ़ रही है कि वास्तव में बौद्ध धर्म क्या है। उन्होंने टिप्पणी की, कि डिगुङ कर्ग्यू के सदस्यों ने भविष्य में महा ग्रीष्मकालीन शास्त्रार्थ की मेजबानी में रुचि व्यक्त की है। उन्होंने दोहराया कि सभी लद्दाखियों का यह उत्तरदायित्व है कि समुदाय में व्यापक रूप से शांति और सद्भाव कायम रहे।
टिगुर के आम लोगों के अध्ययन समूह के सदस्य, जिनमें से अधिकांश महिलाएँ थीं, ने त्रिरत्न के गुणों पर शास्त्रार्थ किया।
अपनी टिप्पणी में, गोमंग महाविहार के उपाध्याय, जो लद्दाखी भी हैं, ने हर्ष व्यक्त किया कि छठा महा ग्रीष्मकालीन शास्त्रार्थ का आयोजन किया गया है। इसी तरह का शास्त्रार्थ तिब्बत के संगफू महाविहार में होता था। एक अंतर यह है कि तिब्बत में सारी व्यवस्था भिक्षु करते थे, जबकि यहां लद्दाख में भिक्षु, भिक्षुणियाँ, साधारण लोग और यहां तक कि मुस्लिम समुदाय के सदस्यों ने भी काम किया है और इसे सफल बनाया है। उन्होंने इसे सहयोग का ऐतिहासिक चिन्ह बताया।
उन्होंने गेशे येशे ज्ञलछेन को उनके कठोर परिश्रम के लिए धन्यवाद दिया जिसके फलस्वरूप उनके कई छात्र रिजोंग रिनपोछे, जो अंततः गदेन पीठधारी बने, का अनुपालन कर रहे हैं। समतेनलिंग एक छोटा विहार है, पर इसके बावजूद इसने कई अच्छे विद्वानों को जन्म दिया है। यद्यपि तिब्बती भारत में शरणार्थी हैं, हिमालयी क्षेत्र के लोग जो उनके भिक्षु व भिक्षुणी विहारों में शामिल होते हैं, उन्हें अध्ययन तथा समुदाय की सेवा करने के समान अवसर प्रदान किए जाते हैं, जिसके लिए उन्होंने परम पावन का धन्यवाद किया।
स्थानीय विधायक तेनज़िन नमज्ञल ने कहा बढ़ते भौतिकवादी और प्रतिस्पर्धी विश्व में, बुद्ध की शिक्षाएं ईमानदारी लाने में सहायक हो सकती हैं। उन्होंने चित्त के प्रकार्य तथा क्लेशों से निपटने के बारे में जो सीखा जा सकता है, उसे लागू करने की सिफारिश की । सांसद थुबतेन छेवांग ने कहा कि जहाँ भौतिक विकास दोनों आवश्यक और वांछनीय है, लेकिन यह आंतरिक शांति की कीमत पर नहीं हो सकते। अतः हमें सीखना है कि चित्त की शांति किस तरह प्राप्त करें और बनाए रखें।
इस अवसर के स्मृति चिह्न पहले परम पावन को, जिसके बाद गदेन ठिसूर रिज़ोंग रिनपोछे को दिए गए जिसके बाद परम पावन को सभा को संबोधित करने के लिए आमंत्रित किया गया।
"मंजुश्री को नमन" उन्होंने प्रारंभ किया। "मेरे महान शिक्षक ठिसूर रिनपोछे जिनसे मुझे गहन शिक्षाएं मिली हैं और आप सभी अन्य भाइयों और बहनों का स्वागत है। इस महा ग्रीष्मकालीन शास्त्रार्थ की व्यवस्था में शामिल सभी को धन्यवाद, आपने अच्छी व्यवस्था की है। चूंकि मैं आगामी कुछ दिनों में शिक्षा दूंगा, मेरे पास आज कहने के लिए बहुत कुछ नहीं है।
"जैसा कि पहले ही किसी ने उल्लेख किया है, अतीत में तिब्बत में कंग्यूर और तेंग्यूर में मात्रा के आधार पर हमने पांच महाविद्याओं का अध्ययन किया: बौद्ध आध्यात्मिक, भाषा, तर्क, चिकित्सा और कला और शिल्प और व्याकरण के पांच लघु विद्या इत्यादि का आंतरिक विज्ञान।
"हम चाहे आध्यात्मिक मार्ग का पालन करें या नहीं, हमें अपनी शिक्षा में सुधार लाने की आवश्यकता है। और इसमें, तर्क और मनोविज्ञान बहुत उपयोगी हो सकता है। यद्यपि बौद्ध साहित्य से महान अंतर्दृष्टि प्राप्त की जा सकती है, पर हमें धर्म के दृष्टिकोण से इसे देखने की आवश्यकता नहीं है, हम शैक्षणिक दृष्टिकोण ले सकते हैं।
"प्राचीन भारत में जो तर्क व मीमांसा प्रचलित थी वह आधुनिक समय में समाप्त हो गई है, पर हम तिब्बतियों ने उन्हें अपने विहारों में जीवित रखा है। हमारे अध्ययन श्रमसाध्य हैं। हम ग्रंथों को शब्दशः कंठस्थ करते हैं, उन पर टिप्पणियों का अध्ययन करते हैं तथा शास्त्रार्थ में संलग्न होते हैं जिस दौरान हम दूसरों की स्थिति का खंडन करते हैं और अपनी स्थिति पर अड़े रहते हैं तथा आलोचना का उत्तर देते हैं।
शांतरक्षित व कमलशील द्वारा दिए गए परंपरा का अनुपालन करते हुए, हमने नालंदा परम्परा को जीवित रखा। और मेरा मानना है कि इस आधार पर आज हम विश्व में सकारात्मक योगदान दे सकते हैं।
"प्राचीन भारत का मनोविज्ञान हमें यह दिखाने में सक्षम करते हुए कि किस तरह नकारात्मक भावनाएँ नकारात्मक परिणामों का कारण बनती हैं, एक आंतरिक परिवर्तन ला सकता है। यह हमारे चित्त तथा भावनाओं के प्रकार्य को प्रकट कर उन पर काबू पाने और उनका उन्मूलन करने में हमारी सहायता कर सकता है। जिस तरह हम सीख सकते हैं कि प्रेम व और करुणा कितने सहायक हो सकते हैं, हम यह समझ सकते हैं कि क्रोध, गर्व, ईर्ष्या और अहंकार हानिकारक हो सकते हैं। हम दूसरों को हेय दृष्टि से देखने के अहंकार से भरे गर्व तथा प्रतिभा, जो हमारे आत्मविश्वास को बढ़ाता है, में अंतर करना भी सीख सकते हैं।
"आंतरिक परिवर्तन आस्था या प्रार्थना का विषय नहीं है। इसमें कारण और मानव बुद्धि का उपयोग शामिल है। एक शांत और स्वस्थ चित्त का हमारे शारीरिक स्वास्थ्य तथा कल्याण पर बहुत सकारात्मक प्रभाव पड़ता है।
"जैसा मैंने पहले उल्लेख किया था, संस्कृत बौद्ध साहित्य के आगम ग्रंथ अद्भुत हैं, पर इनमें निहित अंतर्दृष्टि को उपयोगी रूप से एक सरल शैक्षणिक संदर्भ में स्थानांतरित किया जा सकता है।
"जो भी हो, मैं जहाँ भी मैं जाता हूं, मैं कभी भी सुझाव नहीं देता कि बौद्ध धर्म सर्वोत्तम है या इसे प्रचारित करने का प्रयास करता हूँ। ऐसा करना इस तरह का दावा करना होगा कि एक औषधि दूसरों की तुलना में बेहतर है फिर चाहे जो रोगी की परिस्थितियाँ या स्थिति कैसी भी हो। यहाँ तक कि बुद्ध ने भी अलग-अलग लोगों को अलग-अलग समय में विभिन्न शिक्षा दी, क्योंकि उन्होंने उनकी क्षमता और स्वभाव के अनुसार उन्हें शिक्षित किया।
"नालंदा परम्परा कारण और तर्क के उपयोग कारण विशिष्टता रखता है। यह नागार्जुन की रचनाओं में स्पष्ट होता है, जिन्होंने अपनी 'प्रज्ञानाममूलमध्यमकारिका' में लिखा,
न तो स्वयं से और न ही पर से
न ही दोनों से,
बिना किसी हेतु के
कुछ भी, कहीं भी उत्पादित नहीं होता ।
"कारण और तर्क के प्रशिक्षण ने हमें आधुनिक वैज्ञानिकों के साथ परस्पर लाभकारी चर्चाओं में उपयोगी रूप से शामिल होने में सक्षम बनाया है। हमने बाहरी विश्व के बारे में और अधिक सीखा है और उन्होंने चित्त के बारे में सीखा है।
"इस तरह की प्रगति के बावजूद, हम में से कई अभी भी एक सरल रूप में बौद्ध धर्म का पालन करते हैं। हमें बेहतर रूप से समझने की आवश्यकता है कि बुद्ध ने क्या सिखाया- यही है, जो मैं आने वाले दिनों में समझाऊंगा।"
समापन में धन्यवाद ज्ञापन करते हुए आयोजकों के प्रतिनिधि ने परम पावन के आने के लिए उनके प्रति कृतज्ञता दोहराई। उन्होंने अपने प्रायोजकों, विशेष रूप से स्थानीय परिवारों के प्रति भी कृतज्ञता व्यक्त की, जिन्होंने आज तथा कल के मध्याह्न भोजन की व्यवस्था की है तथा एक अन्य परिवार, जो प्रवचनों के अंतिम दिन मध्याह्न के भोजन की व्यवस्था कर रहा है।
मध्याह्न भोजन के पूर्व दर्शकों के लिए कई सांस्कृतिक कार्यक्रम प्रस्तुत किए गए। लमडोन विद्यालय के बच्चों ने गीत व नृत्य प्रस्तुत किया। उनके बाद पारम्परिक लद्दाखी पोशाक में महिलाओं के एक समूह, जिन्होंने अपने सिरों को फिरोज़ा से सजाया था गाते हुए नृत्य प्रस्तुत किया। उनके बाद महिलाओं के एक और समूह ने श्रृंग वाद्य तथा ढोल के साथ गीत गाया व नृत्य किया।
मुस्कुराते, हाथों को अभिनन्दन में हिलाते हुए, परम पावन धीरे-धीरे मंच से निकले और नीचे द्वार तक पहुँचकर विहार तक जाने के लिए गाड़ी में चढ़े। वे कल जे चोंखापा के 'मार्ग के तीन प्रमुख आकार' तथा 'बोधिचित्तोत्पाद' पर प्रवचन देंगे।