थेगछेन छोलिंग, धर्मशाला, हि. प्र, भारत, आज प्रातः मानसून के कम होते ही छटते नभ के नीचे परम पावन दलाई लामा अपने निवास से चुगलगखंग तक मुस्कुराते, लोगों की तरफ देख अभिनन्दन में हाथ हिलाते पैदल गए। अनुमानित ६००० लोग मुख्य मंदिर, इसके आसपास और नीचे प्रांगण में उनकी प्रतीक्षा कर रहे थे। इनमें से १२०० लोग पूर्व और दक्षिण-पूर्व एशियाई देशों --- कोरिया, मलेशिया, वियतनाम, थाईलैंड, इंडोनेशिया और सिंगापुर से थे, जिनमें प्रव्रजित और साधारण लोग शामिल थे। विश्व के अन्य भागों के ७१ देशों के अनुमानित १७०० लोगों में से सबसे बड़ा दल इजरायल से था।
मंदिर के अंदर, परम पावन ने सिंहासन पर अपना आसन ग्रहण करने से पूर्व श्रोताओं की ओर देख अभिनन्दन में हाथ हिलाया, वरिष्ठ थाई और कोरियाई भिक्षुओं के साथ साथ गदेन पीठ धारक का अभिनन्दन किया। पहले थाई भिक्षुओं के एक समूह द्वारा पालि में मङ्गल सुत्त का पाठ किया गया जिसके पश्चात चीनी में 'हृदय सूत्र' का पाठ किया गया, जिसका समापन निम्नलिखित छंद से हुआ:
हम तीन विषों को दूर कर
और प्रज्ञा दीप प्रज्ज्वलित करें
सभी बाधाएँ दूर हों और
हम बोधिसत्व कर्मों में संलग्न हों।
परम पावन ने 'अभिसमयालंकार' और नागार्जुन के 'मूलमध्यमकारिका' से बुद्ध वंदना के श्लोकों का पाठ किया।
"इस प्रवचन के लिए बहुत से लोग पूर्वी और दक्षिण-पूर्व एशिया से यहां एकत्रित हुए हैं," उन्होंने श्रोताओं की ओर देखते हुए कहा, "जिनमें पारम्परिक रूप से पालि परम्परा का पालन करने वाले देशों के भिक्षु हैं। मैं आप सबका अभिनन्दन करता हूँ।
"अब, मैं विश्व में जहां भी होता हूं, मैं आमतौर पर जो बात करता हूं, वह यह कि मैं मानव हूँ, बहुत से लोगों में से एक। यदि विश्व के लोग सुखी हैं तो मैं खुश हूँ। जब विश्व में उथलपुथल है तो मैं दुखी हूँ। हम सब मनुष्य सुख की इच्छा रखने और दुखी नहीं होना चाहने में एक समान हैं पर फिर भी जिन समस्याओं का सामना हम करते हैं उनमें से कई हमारी स्वनिर्मित हैं। हम बाहरी वस्तुओं में सुख ढूँढते हैं, यह अनुभूत किए बिना कि जब हमारे अंतर में समस्याएँ होती हैं तो वे सहायता नहीं करते। इसके स्थान पर हमें उस सुख पर केंद्रित होने की आवश्यकता है जो चित्त की शांति के साथ आता है और जो भी हो जाए हमें सुखी रखने में सहायता करता है।
"बार्सलोना के पास, मॉन्टसेराट के मठ में मैंने एक भिक्षु से भेंट की जो मुझसे मिलना चाहते थे। वह पहाड़ों में एक सन्यासी का जीवन जी रहे थे, वे मात्र चाय व रोटी पर जीवित था। मैंने उनसे उसनके अभ्यास के बारे में पूछा और उन्होंने मुझे बताया कि वह प्रेम पर ध्यान कर रहे थे। वह जब यह कह रहे थे तो मैं उनकी आंखों की चमक में देख पा रहा था कि, शारीरिक आराम छोड़ने के बावजूद, वे सुख से पूरित थे।
"तिब्बतियों में भी 'सांस्कृतिक क्रांति' के दौरान कइयों को बन्दी बनाया गया था, जिन्होंने इस अवसर को अपने अभ्यास के लिए मूल्यवान माना। उनमें से एक जिन्हें मैं अच्छी तरह से जानता था उसने मुझे बताया कि कई बार वह संकट का अनुभव कर रहा था और मैंने उसे समझाने के लिए कहा, यह सोचते हुए कि उसके कहने का अर्थ था कि उसका जीवन संकट में था। इसके बजाय उसने मुझे बताया कि कई बार वह अपने उत्पीड़ितों के प्रति करुणा खोने के संकट में था।
"हमने कई क्षेत्रों में बहुत भौतिक प्रगति की है, पर इसका आवश्यक रूप से चित्त की शांति के आधिक्य में रूपांतरण नहीं हुआ है। परन्तु वैज्ञानिकों ने हाल ही में प्रमाण पाएं हैं कि आधारभूत मानव प्रकृति करुणाशील है, जिसे मैं आशा के संकेत के रूप में लेता हूँ। इस बीच उन्होंने यह भी पाया है कि निरंतर क्रोध, भय और चिंता हमारी प्रतिरक्षा प्रणाली को दुर्बल करते हैं।"
परम पावन ने टिप्पणी की कि एक मां ने हममें से प्रत्येक को जन्म दिया है। हमारे प्रारंभिक वर्षों के दौरान उसकी दया के कारण हम जीवित रहे। हमारे जीवन के प्रारंभ से ही जो प्रेम व स्नेह हमें उससे प्राप्त हुआ से उससे हमें शांत और सुरक्षित अनुभव करने की शक्ति प्राप्त हुई। उन्होंने सुझाया कि परिणामस्वरूप जो हमारी प्रेम व करुणा की आंतरिक भावना है उसे प्रशिक्षण द्वारा प्रबल बनाया जा सकता है और बढ़ाया जा सकता है।
उन्होंने दोहराया कि प्रेम व करुणा सभी सुखों का मूल है जैसा कि हम देख सकते हैं कि जब हम एक गरीब परिवार, जो सुखी हैं क्योंकि वे एक दूसरे के प्रति प्रेम व सोच रखते हैं, उसकी तुलना में एक अमीर परिवार, जो दुखी हैं क्योंकि वे संदेह से भरे हुए हैं।
"मैं जिनसे भी मिलता हूँ, मैं उन्हें एक मानव के रूप में देखता हूं जो कि बिलकुल मुझ जैसे एक और मनुष्य है। हम शारीरिक, मानसिक और भावनात्मक रूप से समान हैं। यदि हम यह स्मरण रखें कि अन्य लोग अनिवार्य रूप से हमारे समान हैं, तो हम उन्हें वैर भाव से नहीं देखेंगे। एक सामाजिक प्राणी होने के नाते हम उस समुदाय पर निर्भर हैं जिसमें हम रहते हैं। जबकि प्रेम और करुणा चित्त की शांति लाती है और हमारी ओर मित्रों को आकर्षित करती है, क्रोध लोगों को दूर करता है। अतः मैं न केवल दूसरों को इन गुणों को विकसित करने की सलाह देता हूं, क्योंकि वे बहुत महत्वपूर्ण हैं, मैं स्वयं भी उनके अभ्यास का प्रयास करता हूँ।
"सुख के भोज में एक बौद्ध अभ्यासी के रूप में मैं सभी सत्वों को अपने अतिथियों के रूप में निमंत्रित करता हूँ। मैं चार ब्रह्म विहार इच्छाओं को विकसित करता हूँ - जो प्रतिदिन सत्वों की अनगिनत संख्या की ओर उपेक्षा, प्रेम, करुणा और आनन्द का उत्पाद है। हम प्रार्थना करते हैं कि सत्व किसी पीड़ा का अनुभव न करें, पर फिर भी एकमात्र सत्व जिनकी हम वास्तव में सहायता कर सकते हैं, वे मनुष्य हैं जिनके साथ हम इस धरती को साझा करते हैं। हम अन्य आकाशगंगाओं के प्राणियों के लिए केवल प्रार्थना कर सकते हैं और हमारे आस-पास के जानवरों, कीड़े मकोडों और मछलियों को मुक्ति दिलाने के लिए बहुत कुछ नहीं कर सकते।"
परम पावन ने टिप्पणी की कि एक बौद्ध अभ्यासी होने के नाते वे अंतर्धार्मिक सद्भाव को बढ़ावा देना चाहते हैं। उन्होंने समझाया कि धार्मिक परम्पराएं मानवीय व्यवहार की सोच रखती हैं। वे प्रेम का एक आम संदेश सम्प्रेषित करती हैं और इसके बावजूद हम धर्म के नाम पर लड़ाई और हत्या के बारे में बार-बार सुनते हैं। उन्होंने इंगित किया कि यहाँ भारत में विगत ३००० वर्षों में परम्पराएं उभरी हैं जो प्रेम, करुणा, आत्मानुशासन और सहिष्णुता का परामर्श देती हैं। वे विभिन्न दार्शनिक रूप अपनाते हैं क्योंकि लोगों की प्रकृतियाँ विभिन्न होती हैं।
"चाहे आप धार्मिक आस्था व अभ्यास का पालन करते हों या नहीं, यह एक व्यक्तिगत विषय है, पर यदि ऐसा कोई चयन करें तो इसके बारे में सच्चा होना बेहतर होगा। अगर कोई सच्चाई से प्रेम के आधार पर धर्म का पालन करता है, तो वे धर्म के नाम पर हत्या कैसे कर सकते हैं?"
एक लघु अंतराल के दौरान, परम पावन ने श्रोताओं के कई प्रश्नों के उत्तर दिए और सलाह दी कि 'बोधिसत्वचर्यावतार' के छटवें अध्याय में क्रोध से निपटने के उपायों पर स्पष्ट निर्देश दिए गए हैं। उन्होंने शमथ और विपश्यना की खोज में भारत में विकसित चित्त व भावनाओं के प्रकार्यों की समझ पर भी बात की। उन्होंने अपना विश्वास व्यक्त किया कि भारत में आधुनिक शिक्षा को इस तरह के प्राचीन ज्ञान के साथ जोड़ना संभव होना चाहिए।
परम पावन ने स्मरण कराया कि बौद्ध धर्म का उद्गम भारत में हुआ था और पालि परंपरा श्रीलंका, थाईलैंड, बर्मा, लाओ और कंबोडिया में फैली, जहां विनय का पालन बड़ी ही सख्ती से करना जारी है। इस बीच, संस्कृत परम्परा, जो तक्षशिला, नालंदा और विक्रमशिला विश्वविद्यालयों में पोषित हुई, चीन में फैली और वहाँ से कोरिया, जापान और वियतनाम में फैली। परम पावन ने उल्लेख किया कि जब चीनी भिक्षु और विद्वान श्वेसांग भारत आए तो नागार्जुन के शिष्य नागाबोधि जीवित थे। चीनी ने नागार्जुन के विचारों को अपनाया, पर तर्क और कारण की व्यवस्था को नहीं जो उन्हें समर्थित करती थीं।
८वीं शताब्दी में, महान विद्वान, तर्कज्ञ और दार्शनिक, शांतरक्षित ने तिब्बत में नालंदा परम्परा की स्थापना की। तिब्बत से अध्ययन और प्रशिक्षण का यह दृष्टिकोण मंगोलिया और मंगोलियाई रूसी गणराज्यों में फैला। इस परम्परा के लिए द्वितीय धर्म चक्र प्रवर्तन की प्रज्ञा पारमिता की शिक्षाएँ महत्वपूर्ण थीं जो बल देती हैं कि वस्तुओं का कोई वस्तुनिष्ठ अस्तित्व नहीं है, जो दृश्य रूप में जिस तरह हमारे समक्ष आते हैं उसके विपरीत हैं।
परम पावन ने बुद्ध के एक संकल्प को उद्धृत किया जो उन्होंने प्रबुद्धता प्राप्ति के कुछ समय के उपरांत लिया था जो ललितविस्तरसूत्र में उल्लिखित है:
गहन व शांतिमय, प्रपञ्च मुक्त, असंस्कृत प्रभास्वरता
मैंने अमृत मय धर्म प्राप्त किया है
फिर भी यदि मैं इसकी देशना दूँ तो कोई समझ न पाएगा,
अतः मैं अरण्य में मौन रहूँगा।
परम पावन ने समझाया कि प्रथम शब्द 'गहन और शांतिमय' की व्याख्या निरोध सत्य को संदर्भित करने के रूप में की जा सकती है जो कि प्रथम धर्म चक्र प्रवर्तन का केन्द्र था। 'प्रपञ्च मुक्त' को वास्तव में जो उन्होंने अंततः द्वितीय धर्म चक्र प्रवर्तन में सिखाया था के रूप में संदर्भित किया जा सकता है तथा 'असंस्कृत प्रभास्वरता' का संदर्भ तृतीय धर्म चक्र प्रवर्तन के रूप में दिया जा सकता है। प्रथम प्रवर्तन नींव रखता है, द्वितीय बताता है कि वस्तुएँ प्रपञ्च मुक्त हैं और तीसरा बुद्ध प्रकृति को प्रकट करता है।
बुद्धपालित के भाष्य को लेकर, परम पावन ने उल्लेख किया कि बुद्धपालित नागार्जुन और आर्यदेव के शिष्य थे। उन्होंने टिप्पणी की कि उन्हें इस ग्रंथ तथा चंद्रकीर्ति के प्रसन्नपद की व्याख्या पूर्व गदेन पीठ - धारक रिज़ोंग रिनपोछे से प्राप्त हुई थी। यह ग्रंथ बुद्धपालित वृत्ति नागार्जुन के 'मूलमध्यमकारिका' की एक व्याख्यात्मक कारिका है। उन्होंने कहा कि यद्यपि तिब्बती विहारीय विश्वविद्यालयों में भिक्षु भाष्य का अध्ययन करते हैं, पर वे मूल ग्रंथ 'मूलमध्यमकारिका' पर कम ध्यान देते हैं। यह टिप्पणी करते हुए कि अध्याय १८ और २४ सबसे महत्वपूर्ण हैं, उन्होंने सुझाया की कि एक छात्र अध्याय २६ के पठन से प्रारंभ कर सकता है जिसमें प्रतीत्य समुत्पाद के द्वाद्वशांग की चर्चा है जिसमें अनुलोम और विलोम की प्रक्रियाएँ स्पष्ट करती हैं कि किस तरह अज्ञान हमें भव चक्र में बांधता है। इसका अंत करने के लिए, अध्याय १८ समझाता है कि कर्म तथा क्लेशों को किस तरह दूर किया जाए, जबकि अध्याय २४ प्रकट करता है कि शून्यता को किस तरह समझें।
नागार्जुन समझाते हैं कि कर्म और क्लेशों के उन्मूलन द्वारा मुक्ति है; कर्म और क्लेश वैचारिक धारणाओं से आते हैं और ये प्रपञ्चों से आती हैं। प्रपञ्चों की समाप्ति शून्यता से होती है। मुख्य विषय विकृत विचारों की समाप्ति है जो क्लेशों को जन्म देते हैं।
जैसा नागार्जुन 'मूलमध्यमकारिका' में कहीं कहते हैं:
ऐसे कोई धर्म अस्तित्व नहीं रखता
जो प्रतीत्य समुत्पादित न हो
अतः ऐसा कोई धर्म नहीं
जो शून्यता न हो।
चूंकि विगत वर्ष 'बुद्धपालितवृत्ति' का अध्याय ६ पूरा हो गया था, परम पावन ने अध्याय ७ से पढ़ना प्रारंभ किया, जो धर्मों की विशेषताओं और वर्तमान क्षण को इंगित करने की कठिनाई से संबंध रखता है। परम पावन ने टिप्पणी की, कि शून्यता के प्रदर्शन हेतु तर्क के लिए जैसे हीरे रजत सभी प्रतीत्य समुत्पाद पर आश्रित हैं। मूलमध्यमकारिका के वंदना के श्लोकों में नागार्जुन प्रतीत्य समुत्पाद की शिक्षा के लिए बुद्ध की स्तुति करते हैं। इसी तरह जे चोखांपा बुद्ध की स्तुति करते हैं।
जैसे ही वे प्रातः सत्र की समाप्ति पर थे परम पावन ने एक स्वप्न का वर्णन किया जो जे चोंखापा ने नागार्जुन और उनके शिष्यों के बारे में देखा था और किस तरह बुद्धपालित ने अपने माथे को इस ग्रंथ से छुआ था। अगले दिन इस ग्रंथ को पढ़ने से जो उन्हें समझ में आया उसके आधार पर उन्हें शून्यता की अनुभूति हुई। परम पावन की अंतिम टिप्पणी यह थी कि ऐसा प्रतीत होता है कि बुद्धपालित जिन्होंने घोषित किया कि शून्यता के संबंध में अंतर्दृष्टि प्राप्त करने का मुख्य कारण प्रतीत्य समुत्पाद है, उन्हें इस सिद्धांत का स्पष्टीकरण और संचरण दोनों प्राप्त हुए, जबकि उनके सह-शिष्य भवविवेक को मात्र संचरण दिया गया।
परम पावन कल 'बुद्धपालितवृत्ति' का पठन व व्याख्या जारी रखेंगे।