बोधगया, बिहार, भारत, आज प्रातः जब कालचक्र मैदान में परम पावन दलाई लामा ने मंच पर प्रवेश किया तो अनुमानतः ७००० स्थानीय बिहारी छात्रों के उत्साहित स्वर गूंज उठे। परम पावन को ऐलिस प्रोजेक्ट, जो एक इतालवी वैलेंटिनो गियाकोमिन द्वारा स्थापित एक शैक्षिक संस्थान है, द्वारा उन छात्रों को संबोधित करने के लिए आमंत्रित किया गया था।
स्वागत समर्पणों के उपरांत परम पावन से गियाकोमिन की नवीनतम पुस्तक, 'सार्वभौमिक नैतिकता' के विमोचन का अनुरोध किया गया। उसके बाद जियाकोमिन ने एक स्वागत भाषण दिया, जिसमें उन्होंने बताया कि ३० वर्ष पूर्व वे किस तरह धर्मशाला में परम पावन से मिले थे। परम पावन ने तब उनसे कहा था कि यह बहुत अच्छा होगा यदि वे भारत में शिक्षा के क्षेत्र में अपना काम जारी रख सकें। परिणामस्वरूप एलिस प्रोजेक्ट, जो अंतर्सांस्कृतिक और अंतर्धार्मिक विद्यालय में निरंतर शिक्षा और शांति की संस्कृति पर केंद्रित है, का प्रारंभ सारनाथ में १९९४ में हुआ और बाद में बोधगया और अरुणाचल प्रदेश में इसकी शाखाएँ स्थापित हुईं।
<उन्होंने कहा कि इस परियोजना का एक प्रमुख उद्देश्य शिक्षा में वर्तमान संकट, जिसके परिणामस्वरूप छात्रों में अनुशासन, एकाग्रता का अभाव तथा शैक्षणिक स्तर में सामान्य गिरावट है, का समाधान ढूँढना है। इसका एक कारण यह है कि आधुनिक शिक्षा भौतिकवादी लक्ष्यों की ओर प्रवृत्त है जिसमें आंतरिक मूल्यों के लिए बहुत कम समय दिया गया है। ऐलिस परियोजना यह सुनिश्चित करती है कि विद्यालयों में ध्यान तथा एक सुखी जीवन जीने के उपाय खोजने के अवसर प्रदान किए जाएँ।
"हमें अपने चित्त को जानना है और स्वार्थ की सीमाओं से परे पहुँचना है," गियाकोमिन ने बल देते हुए कहा, "और हमें यह अनुभूत करना होगा कि हमारे और दूसरों के बीच कोई बाधा नहीं है। हम आंतरिक परिवर्तन पर ध्यान केंद्रित करते हैं, जिससे अनुशासन और परोपकारिता जन्म लेते हैं, जो बेहतर शैक्षणिक प्रदर्शन भी प्रदान करता है। यह संभव है, जैसा कि परम पावन ने आग्रह किया है कि भारत के प्राचीन ज्ञान को पुनर्जीवित कर इसे आधुनिक शिक्षा से जोड़ें। हमारे स्कूलों के छात्रों और कर्मचारियों की ओर से, मैं इस पावन स्थल पर हमसे मिलने के लिए परम पावन का धन्यवाद करना चाहता हूँ।"
मंच से परम पावन ने पूछा "सब को सुप्रभात, क्या आप सब कल रात अच्छी तरह से सोए? मैं आशा करता हूँ कि सब के चित्त ताज़े और सतर्क हैं।
"मेरे लिए यहाँ होना एक महान सम्मान है और मुझे युवा पीढ़ी के इतने सारे लोगों और साथ ही इटली के मेरे पुराने मित्र, जो हमारे शैक्षिक लक्ष्यों को पूरा करने का प्रयास कर रहे हैं, से मिल कर बहुत प्रसन्नता का अनुभव हो रहा है।
"समय सदैव गतिशील है, वह कभी थमता नहीं। अतीत जा चुका है। मात्र एक स्मृति बची है और भविष्य अभी तक आया नहीं है, जो हमें एक बेहतर विश्व बनाने का अवसर देता है। आप जैसे युवा लोग भविष्य का प्रतिनिधित्व करते हैं। यह आपके कंधों और आपके हाथों पर थमा है।
"वास्तव में, सुखी रहने के लिए, हर जीवित वस्तु, यहाँ तक कि ये पुष्प, बावजूद इसके कि इनका चित्त नहीं है, जीवित रहना चाहता है। मनुष्यों और जानवरों के लिए जीवित रहने का प्रयास सुखी रहने के प्रयास का एक अंग है। हम सभी एक सुखी जीवन जीना चाहते हैं। चूंकि हम मनुष्यों के पास ऐसे अद्भुत मस्तिष्क हैं, हमारे पास अतीत के बारे में सोचने, उससे सीख कर भविष्य को योजित करने की क्षमता है। हम यथार्थ को विभिन्न कोणों से भी देख सकते हैं। अतः हमें अपने दिमाग का उपयोग कर यह पता लगाने की आवश्यकता है कि क्या है जो हमें दुखी करता है और क्या है जो हमें सुख देता है।
"शिक्षा एक महत्वपूर्ण कारक है क्योंकि शिक्षा हमारी सोचने और विश्लेषण करने, कि वस्तुएँ किस तरह आती हैं, की क्षमता बढ़ाता है। यद्यपि हममें से कोई भी समस्या नहीं चाहता, पर हम कइयों का सामना करते हैं, जिनमें से कई हमारे स्वयं के निर्मित हैं। हमारी वर्तमान आधुनिक शिक्षा यह सुनिश्चित करने के लिए अपर्याप्त है कि, व्यक्ति, परिवार और समुदायों के रूप में हम सुखी हों। यह ऐसा कुछ है जिस पर हमें गंभीरता से विचार करना होगा। एक कारण यह है कि हमारी वर्तमान शिक्षा के लक्ष्य भौतिकता की ओर प्रवृत हैं, जबकि मानवता का सुख चित्त की शांति पर निर्भर है। हमें गंभीरता से विचार करना होगा कि धर्मनिरपेक्ष आधार पर हमारी शिक्षाओं में आंतरिक मूल्यों को किस तरह सम्मिलित किया जाए।
"इन दिनों मैं चित्त तथा भावनाओं के प्रकार्य से संबंधित प्राचीन भारतीय ज्ञान को पुनर्जीवित करने के प्रयास को लेकर प्रतिबद्ध हूँ। हमें सख्त धर्मनिरपेक्ष दृष्टिकोण से तर्क व विश्लेषण द्वारा अपनी नकारात्मक भावनाओं से निपटने के उपाय को बेहतर ढंग से समझने की आवश्यकता है।
"इस देश में करूणा तथा अहिंसा की एक दीर्घकालीन परम्परा है और उनकी अभिव्यक्ति धार्मिक सद्भाव के फलने फूलने में है। इसी के साथ सभी धार्मिक या आध्यात्मिक परंपराओं के प्रति समान रूप से सम्मान दिखाने के भारत के धर्मनिरपेक्ष दृष्टिकोण ने इसे दूसरों द्वारा अनुपालन करने हेतु एक प्रारूप जैसा बना दिया है।
"आप युवा छात्रों को जो आपको सिखाया जाता है उसे उसी तरह स्वीकार नहीं करना चाहिए। आपको उसके बारे में सोचना चाहिए, उसका विश्लेषण करना चाहिए, उसमें निहित कारणों की जांच करना चाहिए और उसकी अन्य दृष्टिकोणों के साथ तुलना करनी चाहिए। यह नालंदा की भावना थी, यह महान विश्वविद्यालय जो बिहार में फला फूला। इस पर चिन्तन करें कि किस तरह सब कुछ अन्य कारकों पर आश्रित है।
"जैसा मैंने कहा, भविष्य आपके हाथों में है। आप युवा लोगों के पास बेहतर विश्व बनाने का अवसर है, पर आपको प्रयास करना होगा। संभवतः मैं इसे देखने के लिए जीवित न रहूँ पर यदि आप प्रयास करें तो २० से ३० वर्षों में विश्व एक अधिक शांतिपूर्ण स्थान बन सकता है। शिक्षा एक कारक है, पर इसके भीतर हमें अपने क्लेशों से निपटने की ओर अधिक ध्यान देने की आवश्यकता है। इसके लिए भावनात्मक स्वच्छता की भावना को अपनाने की आवश्यकता होगी, जो कि उस स्वच्छता के समान है जिससे हम अपने शारीरिक स्वास्थ्य की रक्षा करते हैं।"
छात्रों के प्रश्नों के उत्तर में परम पावन ने ध्यानाकर्षित किया कि चेतना का कोई प्रारम्भ नहीं है तथा हमारे सुख और दुख की अनुभूति हमारे अपने कर्मों के कारण है। उन्होंने पुष्ट किया कि क्रोध एक कारक है जो प्रायः हमारे चित्त की शांति को विचलित करता है, जबकि करुणा उसके ध्रुवीय विपरीत है। धार्मिक अभ्यास के संबंध में उन्होंने कहा कि व्यक्तियों के लिए 'एक आस्था और एक सत्य' के संदर्भ में सोचना ठीक है। परन्तु जहाँ तक व्यापक समुदाय का प्रश्न है, हमें मानना होगा कि कई आस्थाएँ और सत्य के कई पक्ष हैं। उन्होंने अपने श्रोताओं को भारत के संबंध में अपनी सराहना का स्मरण कराया जो कि एकमात्र ऐसा देश है जहाँ विश्व के सभी प्रमुख धर्म समन्वय भाव से साथ साथ रहते हैं।
एकाग्रता और अंतर्दृष्टि का अभ्यास - शमथ और विपश्यना - जो भारत के कई इसी भूमि में जन्मे आध्यात्मिक परंपराओं में आम हैं, ने चित्त परिवर्तित करने के अनुभव को जन्म दिया है। यह समझा गया है कि दुःख का कारण क्रोध व घृणा जैसे क्लेश हैं। उनका स्रोत अज्ञान है और इसके प्रतिकार के लिए कि हमें प्रज्ञा के विकास की आवश्यकता है।
परम पावन विद्यार्थियों की गूंजते करतल नाद के बीच मंच से बाहर निकले। इसके बाद वे थोड़ी दूर पर महाबोधि स्तूप परिसर के पीछे थाई भारत सोसाइटी के वट पा बुद्धगया वनराम विहार गए। आगमन पर फ्रा बोधिनन्धमुनि और डॉ रतनेश्वर चकमा ने उनका स्वागत किया और वे रमणीय थाई नर्तकियों, जो देवियों द्वारा स्वागत का स्मरण करा रहीं थीं, को देखने के लिए रुके।
परम पावन ने ई-रिक्शा में सवारी को नकार दिया और अपने मेजबानों के साथ पैदल ही मंदिर की परिक्रमा की। मार्ग पर उन्होंने संघराज कुटी को आशीर्वचित किया। सोने के पानी से चढ़ी बुद्धों और अर्हतों की मूर्तियों और दीवारों पर चित्रित बुद्ध के जीवन के दृश्यों से सुसज्जित नए मंदिर के अंदर, परम पावन वरिष्ठ भिक्षुओं के साथ बैठे। जब नर्तकियों ने पुनः नृत्य प्रस्तुत किया तो शरण गमन के छंद और मंगल सुत्त का सस्वर पाठ किया गया।
डॉ रतनेश्वर चकमा ने परम पावन को करुणा के साकार के रूप में वर्णित करते हुए उनका औपचारिक रूप से स्वागत किया। फ्रा बोधिनन्धमुनि ने थाई भारत सोसायटी द्वारा सभी लोगों को नए मंदिर में ध्यान सीखने और अभ्यास के लिए अवसर प्रदान करने के उद्देश्य की घोषणा की।
जब परम पावन के बोलने की बारी आई तो उन्होंने माना कि ऐतिहासिक रूप से पालि परम्परा बुद्ध की प्रथम देशनाओं से सीधी आती है जिसके कारण उसके अनुयायी सबसे वरिष्ठ शिष्य हैं। संस्कृत परम्परा के अनुयायी भी प्रज्ञा पारमिता की शिक्षाओं पर निर्भर करते हैं जो कि द्वितीय धर्म चक्र प्रवर्तन का अंग है।
"मेरे मन में हमारे सभी धर्म के संचरणों को लेकर बहुत सम्मान है, ठीक उसी तरह जैसे कि मैं ईश्वरवादी और अनीश्वरवादी धार्मिक परंपराओं का सम्मान करता हूँ, क्योंकि मानवता उनसे लाभान्वित होती है। यहाँ तक कि आज वैज्ञानिक भी बौद्ध धर्म के प्रति रुचि दिखा रहे हैं, कि बौद्ध धर्म चित्त तथा भावनाओं के बारे में क्या कहता है। जो ज्ञान हमने जीवंत रखा है, वह प्रासंगिक बना हुआ है क्योंकि यह हमारी नकारात्मक भावनाओं और उनका जो हम पर प्रभाव है, उसे कम करने में सहायक हो सकता है।
"वैज्ञानिकों के साथ हुई मेरी चर्चाएँ पारस्परिक रूप से सहायक रही हैं। कुछ जो आहत हुईं हैं, उनमें से एक पारम्परिक बौद्ध ब्रह्मांड विज्ञान में मेरा विश्वास है। यद्यपि इस बात को लेकर मैं स्पष्ट हूँ कि बुद्ध चार आर्य सत्यों की शिक्षा देने आए थे ब्रह्मांड का मानचित्र बनाने या मापने नहीं। उन्होंने दुःख को लेकर एक यथार्थवादी दृष्टिकोण प्रस्तुत किया, एक दृष्टिकोण जो वैज्ञानिक भी है। मैं यहाँ विद्वानों, वैज्ञानिकों और आभ्यासियों को एकत्रित होकर एक घेरे में बैठकर त्रिपिटक की विषय सामग्री पर चर्चा करता हुआ देखना चाहता हूँ।
"यदि हम समझना चाहें कि बुद्ध, धर्म और संघ क्या हैं, दुख का निरोध क्या है, इसे कैसे प्राप्त करना है और मार्ग का क्या तात्पर्य है तो हमें अध्ययन करना होगा। निस्सन्देह हमें नैरात्म्य को समझने की भी आवश्यकता है।
"७० के दशक में, हमारे कुछ भिक्षु बैंकाक गए जहाँ उन्होंने थाई भाषा सीखी और साथ ही अभ्यास के विभिन्न पहलुओं में सम्मिलित हुए। वे अब वयोवृद्ध हैं, पर हम युवा भिक्षुओं को पुनः भेज सकते हैं और हमारे विहारों में थाई भिक्षुओं का स्वागत करते हैं। तिब्बती थाई भाषा सीख सकते हैं और थाई भोट भाषा सीख सकते हैं। कुछ बौद्ध शिक्षाएँ मात्र पालि में और कुछ अन्य केवल संस्कृत परम्परा में उपलब्ध हैं। हमें अनुसंधान और अनुभव के आदान-प्रदान में शामिल होना चाहिए। हमें २१वीं शताब्दी में बौद्ध धर्म को प्रस्तुत करने के लिए निकट के संबंध और आम प्रयास की आवश्यकता है।
"बौद्ध धर्म का सार करुणा है। चूँकि विश्व को अधिक करुणा की आवश्यकता है, हमें देखना होगा कि हम बौद्ध किस तरह इसमें योगदान दे सकते हैं। यह अन्य लोगों का बौद्ध धर्म में धर्मांतरण करने का प्रश्न नहीं है, पर यह देखना है कि हम किस तरह मानव की चित्त की शांति में योगदान दे सकते हैं, उदाहरणार्थ यह दिखाते हुए कि हमारी नकारात्मक भावनाओं से किस तरह निपटा जाए। इससे वास्तव में मानवता लाभान्वित होगी।"
धन्यवाद ज्ञापन तथा उपहारों की प्रस्तुति के उपरांत सभी उपस्थित लोगों को एक भव्य मध्याह्न भोज में भाग लेने के लिए आमंत्रित किया गया जिसमें स्वादिष्ट थाई और भारतीय व्यंजन थे। भोज की समाप्ति के बाद स्मारक तस्वीरों की एक श्रृंखला हुई। परम पावन तिब्बती मंदिर लौटे। कल, वे ६० भिक्षुओं को प्रव्रज्या प्रदान करने वाले हैं।