थेगछेन छोलिंग, धर्मशाला, हि. प्र., भारत, पूर्व और दक्षिणपूर्व एशिया से बौद्धों के लिए इस वर्ष की शिक्षाओं के अंतिम सत्र में परम पावन दलाई लामा चुगलगखंग में सिंहासन के समक्ष एक कुर्सी पर बैठे और श्रोताओं को प्रश्न पूछने के लिए आमंत्रित किया।
उन्होंने यह समझाते हुए प्रारंभ किया कि धर्म का वास्तविक अर्थ सौहार्दता है।
"यदि आप कर सकते हैं, तो दूसरों की सेवा करें, पर कम से कम उनका अहित करने से बचें। आपका व्यवसाय चाहे जो भी हो यह संभव है। अपना धर्माभ्यास अपने दैनिक जीवन का अंग बनाना महत्वपूर्ण है। यह मात्र अपनी आंखें बंद कर एकांत में बैठने के विषय में नहीं है। धन अर्जित करने में कुछ भी गलत नहीं है; इसकी हमें आवश्यकता है। और ऐसे कई लोग हैं जो निर्धन हैं और जिनमें शिक्षा की कमी है जिनकी आप सहायता कर सकते हैं। अतः दूसरों की सहायता करते समय यथासंभव सौहार्दपूर्ण, ईमानदार और सच्चे होने का प्रयास करें।
"अपने अभ्यास में ऊर्जा को बनाए रखने के लिए आपको स्वयं को स्मरण कराना होगा कि यह आप पर निर्भर है। बुद्ध ने स्पष्ट किया कि बुद्ध अकुशल कर्मों को जल से धोते नहीं, न ही सत्वों के दुःखों को अपने हाथों से हटाते हैं और न ही अपने अधिगम को दूसरों में स्थान्तरण करते हैं। वे धर्मता सत्य देशना से सत्वों को मुक्त कराते हैं। कुंजी अपने चित्त और भावनाओं को परिवर्तित करने में है। निस्सन्देह, यदि आप ईश्वर में आस्था रखते हैं, तो आप उससे प्रार्थना कर सकते हैं, पर बुद्ध ने अपने अनुयायियों को स्वयं में परिवर्तन लाने के लिए उत्तरदायी बनाया।"
परम पावन ने किसी ऐसे व्यक्ति से कहा जो जानना चाहता था कि आप किस तरह दूसरों के लिए अत्यंत सहायक बन सकते हैं यदि आप केवल एक ही स्थान पर रहें और उनके परिचितों में शायद कुछ लोग हैं जो उसे असहज बनाते हैं।
"स्वयं को स्मरण कराएँ कि आपके जैसे वे भी सुखी रहना चाहते हैं। तब आप उनके प्रति अधिक करुणाशील होने की ओर प्रवृत्त होंगे। इस तरह से आप आज जीवित सभी ७ अरब मनुष्यों और अंततः ब्रह्मांड में सभी सत्वों के प्रति सकारात्मक सोच का विस्तार कर सकते हैं।
"मैं आपको एक उदाहरण देता हूं। १० मार्च २००८ को, जब तिब्बती १९५९ की ल्हासा क्रांति दिवस मनाते हैं, मुझे एक संदेश मिला कि ल्हासा और तिब्बत के अन्य हिस्सों में तिब्बती प्रदर्शन करने जा रहे थे। मैं गलतफहमी से भरा था कि इसकी कठोर प्रतिक्रिया होगी। मुझे भय था कि प्रदर्शनों का दमन किया जाएगा, जिसके परिणामस्वरूप अधिक दुःख होंगे।
"अपनी ओर से मैंने संबंधित चीनी अधिकारियों की कल्पना की कि वे भी सुख चाहते थे, दुःख नहीं, परन्तु क्रोध व अज्ञान वश किसी भी प्रदर्शन के प्रति उनकी प्रतिक्रिया कठोर हो सकती थी। मैंने उनके क्रोध, घृणा और अज्ञान को लेने और उन्हें शांति व सुख देने की कल्पना की। निस्सन्देह इसने जमीन की वास्तविक स्थिति में कोई अंतर नहीं पड़ा, पर इससे मेरी चित्त की शांति लौट आई। तो, जैसा कि मैंने उस अवसर पर किया था, यह स्मरण रखना सहायक है कि परेशान करने वाले भी हम जैसे मनुष्य हैं।"
एक और प्रश्नकर्ता ने समझाया कि विचलित करने वाली खबरों के समक्ष अपने चित्त की शांति बनाए रखने हेतु उससे मुंह मोड़ लेने की एक प्रवृत्ति होती है। वह जानना चाहती थी कि आप और क्या कर सकते हैं। परम पावन ने सहमति जताई कि दुःख भरे समाचार परेशान कर सकते हैं, पर यह सोचना भूल है कि आप इसके बारे में कुछ नहीं कर सकते। हम जिन कई समस्याओं का सामना करते हैं उनमें से कई हमारी स्वयं की बनाई हुई हैं। परम पावन ने टिप्पणी की, कि चूंकि हम ऐसे सामाजिक प्राणी हैं जिन्हें मित्रों की आवश्यकता है, कम से कम हम मुस्कुरा सकते हैं और दूसरों के साथ सौहार्दतापूर्ण व्यवहार कर सकते हैं - उससे भी अंतर पड़ेगा।
"परम पावन ने कहा, "आधुनिक शिक्षा भौतिक लक्ष्यों की ओर उन्मुख है, अतः शैशवास्था से ही बच्चे ऐन्द्रिक संतुष्टि और भौतिक आकांक्षाओं की पूर्ति की मांग करते हुए बड़े होते हैं," परम पावन ने टिप्पणी की, "परन्तु वे नहीं जानते कि चित्त की शांति किस तरह प्राप्त की जाए। प्राचीन भारत ने शमथ तथा विपश्यना के अभ्यास के विकास द्वारा चित्त के कार्य की प्रभावी समझ के विकास को देखा जो आज भी काफी प्रासंगिक है।
"मेरे मन में जूदे-ईसाई परम्पराओं के प्रति बहुत सम्मान है, जिसमें इतना कुछ ईश्वर निर्माता पर निर्भर करता है जिसकी ओर आप अपनी प्रार्थनाओं को निर्देशित करते हैं, पर यहां भारत में बौद्ध धर्म सहित कई अलग-अलग परम्पराएं विकसित हुईं, जिसके अनुसार जो होता है वह इस पर निर्भर करता है कि हम क्या करते हैं। अतः हमें अपनी विनाशकारी भावनाओं से निपटने के लिए उत्तरदायित्व लेना होगा। हमें अपने चित्त का शोधन कर और उसका रूपांतरण करना है।
"हम सभी ऐसे लोगों को जानते हैं जिनमें क्रोध की प्रवृत्ति होती है, पर वे हर समय क्रोध में नहीं होते क्योंकि क्रोध वास्तव में हमारे चित्त का अंग नहीं है। अगर ऐसा होता, तो हम बहुत कुछ न कर सकते थे। प्रायः क्रोध का मोह से निकटता का संबंध होता है तथा क्रोध व मोह दोनों अज्ञानता और मिथ्या दृष्टि के कारण उत्पन्न होते हैं। हम उन्हें अपनी मानव बुद्धि का उपयोग करके निर्मूल कर सकते हैं। एक व्यापक परिप्रेक्ष्य से शिक्षाविद सहमत हैं कि हमें नूतन दृष्टिकोण और धर्मनिरपेक्ष मानव मूल्यों के साथ एक नई पीढ़ी लाने के लिए कार्य प्रारंभ करना है।
"मैं अपने भारतीय मित्रों से कहता हूँ कि अतीत में भारतीय गुरु थे और तिब्बती शिष्य थे। परन्तु हम विश्वासकारक प्रमाणित हुए हैं और हमने जो ज्ञान प्राप्त किया उसे जीवित रखा है। आंशिक रूप से अंग्रेजों द्वारा थोपी गई शिक्षा प्रणाली के परिणामस्वरूप, भारतीयों ने ज्ञान के इस भंडार की उपेक्षा की है। इसी कारण मैं आज देश में इन परम्पराओं के पुनरुत्थान को प्रोत्साहित कर रहा हूं। आदर्श परिणाम प्राचीन भारतीय ज्ञान के साथ आधुनिक शिक्षा का संयोजन होगा। इस साल के प्रारंभ में मैंने भारतीय विश्वविद्यालयों के १५० कुलपतियों से भेंट की जिन्होंने इस विचार में वास्तविक रुचि दिखाई।
"यदि हम भारत में चित्त व भावनाओं के प्रकार्य के प्राचीन ज्ञान में रुचि बहाल करने में सफल होते हैं, तो अगला लक्ष्य चीन हो सकता है, जो पारम्परिक रूप से बौद्ध देश है। जब श्वेनशांग भारत आए तो उन्होंने नालंदा में अध्ययन किया। आज, कई चीनी बौद्ध धर्म से निकटता का अनुभव करते हैं, वास्तव में बीजिंग विश्वविद्यालय ने कुछ साल पहले अनुमान लगाया था कि चीन में ३०० लाख बौद्ध थे, और जब मैंने यह सुना था तब से यह संख्या बढ़ी है। चीन में भ्रष्टाचार को खत्म करने के प्रयास अधिक सफल होंगे यदि लोग अधिक ईमानदार और अनुशासित हों।
"यदि भारत और चीन के २.५ अरब लोग आधुनिक शिक्षा और प्राचीन शिक्षा के संयोजन से प्रभावित हों तो वे समूचे विश्व को बेहतर रूप से प्रभावित करेंगे। पर यह ऐसे भविष्य में देखना है जिसे मैं देखने के लिए नहीं रहूंगा। फिर भी, मुझे विश्वास है कि प्रयास करना महत्वपूर्ण है। चूंकि बल प्रयोग तारीख से परे और अप्रभावी दोनों है, इसलिए हमें एक विसैन्यीकृत विश्व का लक्ष्य रखना चाहिए। शस्त्र अपंग करने और हत्या के लिए निर्मित किए गए हैं, वे रचनात्मक समाधान की ओर नहीं ले जाते। हमें वार्ताओं तथा संवाद में शामिल होकर अपने संघर्ष और समस्याओं का ठीक से समाधान करना सीखना है।"
एक कोरियाई भिक्षुणी ने परम पावन से बोधिचित्त के बारे में अधिक बोलने के लिए कहा। उन्होंने उत्तर दिया कि यदि आप रुचि रखते हैं, तो आपको अध्ययन करना होगा। नागार्जुन ने जो लिखा है उस पर आपको ध्यान देना होगा:
ऐसा कुछ अस्तित्व में नहीं
जो प्रतीत्य समुत्पादित न हो
इसलिए ऐसा कुछ अस्तित्व में नहीं
जो शून्यता न हो।
तथा,
कर्म और क्लेशों के क्षय में मोक्ष है;
कर्म और क्लेश विकल्प से आते हैं,
विकल्प मानसिक प्रपञ्च से आते हैं,
शून्यता में प्रपञ्च का अंत होता है।
"मैं पहली बार शून्यता में रुचि लेने लगा जब मैं लगभग १४ या १५ वर्ष का था और उसके पश्चात श्रमसाध्य अध्ययन किया। परन्तु जब मैं लगभग ३० वर्ष का था, तभी मुझे इसे समझने का कुछ अनुभव प्राप्त हुआ। मेरा मुख्य अभ्यास परोपकार का विकास तथा शून्यता की पूरी समझ है। उन्हें पूरा करने के लिए अध्ययन, चिंतन और ध्यान की आवश्यकता होती है। मैं दलाई लामा का नाम धारण करता हूँ, पर जो भी अंतर्दृष्टि मैंने प्राप्त की है वह मेरे अपने प्रयासों का परिणाम है। अतः आपके लिए मेरा आशीर्वाद आपको अध्ययन, अध्ययन और अध्ययन करने के लिए प्रोत्साहित करना है।"
इस सत्र को समाप्त करने के साथ-साथ इस साल की पूर्व और दक्षिणपूर्व एशियाई लोगों की शिक्षाओं की श्रृंखला को समाप्त करने के लिए परम पावन कुछ समय विभिन्न समूहों में श्रोताओं के साथ तस्वीरों के लिए बने रहे। फिर वह अपने निवास लौट आए। सोमवार को वे यूरोप की यात्रा के लिए धर्मशाला से रवाना होंगे जिसमें स्वीडन, नेदरलैंड, जर्मनी और स्विट्ज़रलैंड के कार्यक्रम शामिल होंगे।