बोधगया, बिहार, भारत, आज प्रातः की भारी धुंध तथा कड़ाके की ठंड ने भी ५०,००० से अधिक एकत्रित लोगों के उत्साह को कम नहीं किया, जो परम पावन दलाई लामा को सुनने के लिए कालचक्र मैदान में एकत्रित हुए थे। तिब्बती मंदिर से लेकर एक विशाल शामियाने के छोर तक एक गाड़ी से एक छोटी दूरी तक जाते हुए परम पावन भी प्रफुल्लित भाव में थे। मंच के समक्ष तक पैदल चलते हुए वे मुस्कुराए, उनकी ओर बढ़े हाथों के साथ हाथ मिलाया और जनमानस की ओर देख अभिनन्दन में हाथ हिलाया। उन्होंने सिंहासन के चारों ओर बैठे कई प्रतिष्ठित लामाओं का अभिनन्दन किया, जिनमें गदेन ठि रिनपोछे, पूर्व गदेन ठिपा, शरचे और जंगचे छोजे, सक्या गोंगमा ठिज़िन रिनपोछे, और लिंग रिनपोछे साथ ही उपाध्याय, पूर्व उपाध्याय और टुल्कु थे।
"आज के शिष्य मुख्य रूप से भारतीय हैं," परम पावन ने घोषणा की, "और हम पालि और संस्कृत में उनके द्वारा सस्वर पाठ से प्रारंभ करेंगे।"
पहले वयस्कों ने कई प्रार्थनाओं तथा स्तुतियों का सस्वर पाठ किया जिसमें मंगल सुत्त शामिल था। उनके बाद स्कूल के छात्राओं तथा छात्रों के समूह ने संस्कृत में 'हृदय सूत्र' का पाठ किया।
"जब बुद्ध को सम्यक् संबुद्धत्व प्राप्त हुआ तो उसके पश्चात उन्होंने घोषणा की," गहन व शांतिमय, प्रपञ्च मुक्त, असंस्कृत प्रभास्वरता, मैंने अमृतमय धर्म प्राप्त किया है फिर भी यदि मैं इसकी देशना दूँ तो कोई समझ न पाएगा, अतः मैं अरण्य में मौन रहूँगा।" इसका एक कारण यह था कि उस समय की भारतीय आध्यात्मिक परम्पराओं ने एक स्वतंत्र स्व के अस्तित्व पर बल दिया था, एक स्थायी कर्ता जो एक जीवन से अगले जीवन तक जाता है। बुद्ध ने देखा कि एक स्वतंत्र स्व की धारणा की ग्राह्यता अन्य सभी मानसिक क्लेशों का मूल है। नैरात्म्य की अनुभूति करने के उपरांत उन्होंने देखा कि अगर वह इसकी शिक्षा दें तो यह अधिकांश लोगों की समझ से परे होगा।
"फिर भी, समय के साथ उन्होंने सारनाथ में देशना दी। बाद में राजगृह के गृद्धकूट शिखर पर उन्होंने शिक्षा दी कि वस्तुओं में स्वभाव सत्ता का अभाव है।
प्रथम धर्मचक्र प्रवर्तन के दौरान उन्होंने दुःख सत्य और इसके समुदय के विषय में समझाया। फिर द्वितीय के दौरान उन्होंने शून्यता को विस्तार से व्याख्यायित किया। संधि निर्मोचन सूत्र में आता है कि तृतीय धर्म चक्र प्रवर्तन के दौरान, उन्होंने परिकल्पित लक्षण, परतन्त्र लक्षण और परिनिष्पन्न लक्षण की शिक्षा दी। परतन्त्र लक्षण प्रकृति में ज्ञापित प्रकृति शून्यता की धर्मता को इंगित करती है। साथ ही तृतीय धर्म चक्र प्रवर्तन के दौरान बुद्ध ने तथागत गर्भ और प्रभास्वरता पर बात की जो कि अनुत्तर योग तंत्र के अभ्यास का आधार है।
"महाकास्सप और उनके अनुयायियों ने शिक्षाओं को संरक्षित किया जिसमें विनय और अभिधम्म् शामिल थे जो पालि परम्परा बन गई। बाद में, जब समझ और बढ़ी तो नागार्जुन और अन्य शिष्यों ने तर्क के प्रकाश में शिक्षाओं का परीक्षण किया जिसनें नालंदा परम्परा को जन्म दिया। बुद्ध की देशनाओं को उतार-चढ़ाव का सामना करना पड़ा है, फिर भी शास्त्र आधिकारिकता के साथ तर्क और विश्लेषण पर निर्भर होकर यह आज भी अस्तित्व में है।"
परम पावन ने चर्चा की कि किस तरह बुद्ध ने मनुष्य के स्वभाव, प्रवृत्ति और क्षमता के अनुसार अलग-अलग शिक्षाएँ दीं। यदा-कदा उन्होंने सिखाया कि व्यक्ति स्कंधों को उसी तरह धारण करता है जिस तरह एक कुली बोझ धारण करता है मानों कि वे एक-दूसरे से पृथक हों। अन्य स्थानों पर उन्होंने समझाया कि वस्तुएँ जो बाह्य रूप से अस्तित्व रखती हुई प्रतीत होती हैं वे उनकी व्यक्तिपरक धारणा से पृथक नहीं हैं। अन्य अवसरों पर कि किसी वस्तु की कोई स्वभाव सत्ता नहीं है। ‘हृदय सूत्र' उन्हें रूप शून्यता है, शून्यता रूप है के रूप में संदर्भित करता है।
विभिन्न अवसरों पर विभिन्न शिक्षाएँ देकर बुद्ध ने अपने अनुयायियों को चेताया, 'हे भिक्षुओं जिस तरह प्रज्ञावान स्वर्ण की परख जलाकर, काटकर और रगड़कर करते हैं, मेरे शब्दों को अच्छी तरह से जांचें और उन्हें जांचने के बाद ही स्वीकार करें - मात्र मेरे प्रति सम्मान के कारण नहीं।' परम पावन ने इंगित किया कि आधुनिक वैज्ञानिक शास्त्रीय सत्ता जैसे कुछ पर निर्भर नहीं होते, वे स्वयं अवलोकन तथा अनुसंधान करते हैं। फिर उन्होंने जो पाया है उसे दूसरों के परीक्षण के साथ तुलना कर सत्यापित करते हैं और सर्वसम्मति प्राप्त करते हैं। आज, वैज्ञानिक बौद्ध धर्म में रुचि ले रहे हैं, जैसा कि आइंस्टाइन ने भविष्यवाणी की थी।
परम पावन ने बल देते हुए कहा कि बौद्ध धर्म का जन्म भारत में हुआ था, न कि चीन या तिब्बत में और नालंदा के आचार्य जैसे नागार्जुन भी भारतीय थे। अतः परम पावन ने कहा, कि यह स्वाभाविक था कि आज के मुख्य शिष्य भारतीय थे। २००० से अधिक वर्षों से बौद्ध धर्म समूचे एशिया में फैला, इसलिए यह उचित होगा कि नालंदा परम्परा जिसे तिब्बत में जीवित रखा गया उसकी भारत में आज पुन:स्थापना हो।
परम पावन ने कहा कि भारत को एक ऐसा स्थान होने का गौरव प्राप्त है जहाँ सभी विश्व के प्रमुख धर्म पोषित होते हैं। इनमें से कुछ परम्पराएँ जैसे ब्राह्मणवाद, ईश्वरवादी हैं और एक सृजनकर्ता की धारणा रखते हैं; अन्य जैसे सांख्य और जैन अनीश्वरवादी हैं और कार्य कारण सिद्धांत पर आधारित हैं। उनमें से मात्र बौद्ध धर्म एक स्वतंत्र स्व के अस्तित्व पर बल नहीं देता। पश्चिम एशिया से यहूदी धर्म, ईसाई धर्म और इस्लाम आया, जो सभी एक सृजनकर्ता में विश्वास करते हैं। ये सभी परम्पराएँ प्रेम व करुणा, सहिष्णुता और क्षमा, संतोष और आत्मानुशासन की प्रशंसा करती हैं।
बौद्ध धर्म में अहिंसा का आचरण महत्वपूर्ण है। बौद्ध धर्म यह भी सिखाता है कि दुःख, पीड़ा और सुख हमारे अपने हाथों में हैं। वे कर्म जो दूसरों के सहायक हैं और उन्हें सुख देते हैं उन्हें सकारात्मक माना जाता है, कर्म जो दूसरों का अहित करते हैं, वे नकारात्मक हैं।
"भारत में दीर्घकाल से विभिन्न धार्मिक परम्पराएँ पोषित हुई हैं और सद्भाव पूर्व रूप से सह अस्तित्व रखती हैं।" परम पावन ने आगे कहा। "यहाँ एक धर्मनिरपेक्ष दृष्टिकोण, जिसमें सभी धर्मो को समान स्थान प्राप्त है, का प्रचलन है। हमें इसका संरक्षण करना चाहिए। इस बीच, मैं इस देश में प्राचीन भारतीय ज्ञान के बारे में जागरूकता को पुनर्जीवित करने के लिए अपना पूरा प्रयास कर रहा हूँ। परन्तु एक दीर्घ परिप्रेक्ष्य में, सबसे महत्वपूर्ण एक अच्छा मानव होना है।
"आज जीवित ७ अरब लोगों में धार्मिक अभ्यास को लेकर कोई रुचि नहीं है। पर जो जीवित हैं उनमें भी, कुछ लोग धर्म का उपयोग विभाजन के आधार के लिए करते हैं। धर्म का संघर्ष का स्रोत बनना वास्तव में बहुत दुख की बात है।
"हम मानव सामाजिक प्राणी हैं, हम एक दूसरे पर निर्भर हैं। हम अपने आप में पूरक नहीं हैं। हम यहाँ एक दूसरे के साथ शांति में हैं, पर अन्यत्र बहुत अधिक संघर्ष है। लोग एक दूसरे को धमका रहे हैं और हत्या कर रहे हैं। दूसरों को भुखमरी का शिकार बनने के लिए उपेक्षा की जाती है। हम किस तरह इसे स्वीकार कर सकते हैं जब हम नियमित रूप से सभी सत्वों को दुख से मुक्ति दिलाने हेतु प्रार्थना करते हैं? बुद्ध के अनुयायियों के रूप में हमें प्रत्येक दिन स्वयं से पूछना चाहिए कि हम दूसरों की सहायता किस तरह करें, चूँकि, हम सब सुख चाहते हैं और दुख नहीं।
"चूंकि आधुनिक शिक्षा में इस समय मानव मूल्यों के लिए कम समय है, अतः हमें प्रेम व करुणा की चर्चा के साथ इसमें वृद्धि करने की आवश्यकता है। उदाहरणार्थ सामान्य ज्ञान हमें बताता है कि एक स्नेहपूर्ण, करुणाशील परिवार सुखी है, जबकि ईर्ष्या और प्रतिस्पर्धात्मकता से प्रेरित परिवार नहीं है।"
दो ग्रंथ धर्मचक्र प्रवर्तन सूत्र तथा शालिस्तंभ सूत्र जो वे पढ़ने वाले थे उनकी ओर संकेत करते हुए, परम पावन ने कहा कि वे सभी बौद्ध शिक्षाओं में आए आम विचारों से समानता रखते हैं। उन्होंने टिप्पणी की कि धर्म में धारण करने जैसे कि रूपांतरण या चित्त को पुनः आकार देने का अर्थ निहित है, जो स्पष्टतया इस कविता से स्पष्ट होता है:
एक भी अकुशल कर्म न करें ,
पुण्य निधि अर्जित करें,
अपने इस चित्त को वश में करने के लिए
यही सभी बुद्धों की देशना है।
हम जो कर रहे हैं वह अकुशल है या पुण्य, वह प्रेरणा पर निर्भर करता है।
परम पावन ने टिप्पणी की, कि बुद्ध की शिक्षाओं को शास्त्र और अनुभूति के संदर्भ में वर्गीकृत किया जा सकता है। शास्त्रीय के निर्देशों को पठन और अध्ययन के द्वारा संरक्षित किया जाता है, जबकि अनुभूति से संबंधित शिक्षाएँ हमारे तीन अधिशील - शील, समाधि व प्रज्ञा के प्रशिक्षण से संलग्न होने से संबंधित हैं।
परम पावन ने टिप्पणी की कि बुद्ध जब भिक्षु बने तो उन्होंने अपने परिवार को त्याग दिया था, जो मात्र इससे संबंधित नहीं था कि वे अपने वस्त्रों में किस तरह का परिवर्तन करते हैं, अपितु उस समय की शिक्षाओं को अभ्यास के रूप में स्वीकार करना। उन्होंने जो सुना उसका परीक्षण किया, उस पर चिंतन किया फिर मनन किया।
इसका अर्थ था, उदाहरण के लिए, वे उस समय तक जब तक वे उसे समझे नहीं, तब तक दुःख की प्रकृति के गंभीर विश्लेषण में संलग्न थे। उन्होंने शमथ व विपश्यना का पालन किया जो कई परम्पराओं में आम है। तत्पश्चात बुद्ध के साथी जब वह इस तरह के अभ्यास में संलग्न थे और कठोर तपस्या कर रहे थे, तो वे उनके प्रथम शिष्य बने।
'धर्मचक्र प्रवर्तन सूत्र' सूत्र में बुद्ध पहले दुःख को समझने और फिर इसे त्यागने की बात की है। परम पावन ने नागार्जुन के एक श्लोक को उद्धृत किया,
कर्म और क्लेशों के क्षय में मोक्ष है;
कर्म और क्लेश विकल्प से आते हैं,
विकल्प मानसिक प्रपञ्च से आते हैं,
शून्यता में प्रपञ्च का अंत होता है।
उन्होंने स्पष्ट किया कि हमारे सच्चे अस्तित्व की भ्रांत धारणा के कारण दुःख जन्म लेते हैं, पर हम दीप दान या अनुष्ठान कर इस पर काबू नहीं कर पाएँगे। केवल विश्लेषण कर और प्रतीत्य समुत्पाद पर विचार कर हम इन भ्रांत धारणाओं को पलट सकते हैं। नागार्जुन ने बुद्ध की प्रशंसा की कि उन्होंने किस तरह भ्रांत विचारों को दूर करने के लिए शिक्षा दी। जे चोंखापा ने प्रतीत्य समुत्पाद की शिक्षा देने के लिए उनकी प्रशंसा की।
यह उल्लेख करते हुए कि 'शालिस्तंभ सूत्र' संस्कृत परंपरा से संबंधित है, परम पावन ने एक बार पुनः टिप्पणी की कि वे पालि और संस्कृत परम्पराओं के रूप में संदर्भित करना पसंद करते हैं क्योंकि महायान और हीनयान शब्द एक समूह के लोगों को हेय रूप से देखने की ओर प्रवृत करते हैं। आखिरकार, उन्होंने टिप्पणी की, कि संस्कृत परंपरा पालि परम्परा की नींव पर निर्मित है।
'शालिस्तंभ सूत्र' का पाठ करते हुए परम पावन ने दो टिप्पणियां कीं। सूत्र का संबंध शारिपुत्र और मैत्रेय के बीच संवाद से है, जो एक विशाल सपाट चट्टान पर एक साथ बैठते हैं, जिसकी वे पृथ्वी की गुणवत्ता के कारण प्रशंसा करते हैं। दूसरे, कोरियाई उपाध्याय वेन-चेग की प्रज्ञा पारमिता की कारिका में एक टिप्पणी आती है जिसमें सुझाया गया है कि मैत्रेय की मां को भी मैत्रेय नाम से संबोधित किया जाता था, जो उन्हें एक मानव और साथ ही दैविक बोधिसत्व के रूप में प्रतिस्थापित करता है जिन्होंने प्रतीत्य समुत्पाद की व्याख्या की।
परम पावन कल ग्रंथ की अपनी व्याख्या को जारी रखेंगे।