पुणे, महाराष्ट्र, भारत, - कल प्रातः परम पावन दलाई लामा ने मध्य भारत होते हुए गया से पुणे तक उड़ान भरी। पुणे हवाई अड्डे पर एमएईईआर के एमआईटी और राष्ट्रीय शिक्षक सम्मेलन के प्रतिनिधियों ने उनका स्वागत किया, जो उनकी यात्रा की मेजबानी कर रहे थे, साथ ही वे स्थानीय तिब्बती समुदाय के सदस्यों से भी मिले।
आज प्रातः मुख्य आयोजन के लिए जाने से पहले, परम पावन ने पुणे में तिब्बती समुदाय के छात्रों, दुकानदारों और कुछ पेशेवरों के १३० से अधिक सदस्यों के साथ भेंट की। उनके साथ हुई अपनी बातचीत में उन्होंने भोट भाषा के अध्ययन करने की आवश्यकता पर ध्यानाकर्षित किया। उन्होंने समझाया कि भोट वह भाषा है जिसमें बौद्ध धर्म विशेष रूप से नालंदा परम्परा को सटीक रूप से समझाया जा सकता है। उन्होंने उन्हें तिब्बत से संबंधित राजनीतिक परिस्थितियों से अवगत कराया और बल देते हुए कहा कि चीन में परिस्थितियाँ बदल रही हैं। उन्होंने उन्हें आश्वस्त किया कि वे आशावान हैं कि स्थिति बेहतर होगी।
द्वितीय राष्ट्रीय शिक्षक सम्मेलन के उद्घाटन के लिए परम पावन को एमएईईआर एमआईटी विश्व शांति विश्वविद्यालय के परिसर में एक शामियाने में ले जाया गया। शास्त्रीय नृत्य प्रदर्शन तथा प्रथम राष्ट्रीय शिक्षक सम्मेलन की उपलब्धि एक लघु चित्र दिखाने के उपरांत, परम पावन और अन्य अतिथियों को मंच पर आसन ग्रहण करने से पूर्व एक शिक्षा घंटा बजाने के लिए आमंत्रित किया गया।
मुक्ता तिलक के एक छोटे से स्वागत भाषण के बाद, पुणे के महापौर राहुल कराड, एमएईईआर एमआईटी विश्व शांति विश्वविद्यालय के कार्यकारी अध्यक्ष और सम्मेलन के मुख्य संयोजक ने सम्मेलन में भाग ले रहे सम्पूर्ण भारत और विदेशों से आए शिक्षकों का स्वागत किया। राष्ट्रीय शिक्षक सम्मेलन के संस्थापक और एक प्रसिद्ध भारतीय वैज्ञानिक डॉ अनिल काकोडकर ने शिक्षा पर टिप्पणी की।
परम पावन ने अपना संबोधन इस पर बल देते हुए प्रारंभ किया कि आज के संकट से भरे विश्व में करुणा की आवश्यकता है। मानव निर्मित समस्याएँ, जिनका हम सामना कर रहे हैं, में से कई भावनात्मक संकट के कारण हैं जिनको हम विश्व भर में देख रहे हैं। उन्होंने ध्यानाकर्षित किया कि चिकित्सा वैज्ञानिकों ने देखा है कि क्रोध हमारे स्वास्थ्य और हित के लिए स्पष्ट रूप से हानिकारक है।
"निरंतर क्रोध वास्तव में हमारी प्रतिरक्षा प्रणाली को खा डालता है। करुणा उसके प्रतिकारक शक्ति के रूप में काम करता है। सामान्य ज्ञान हमें बताता है कि करुणा महत्वपूर्ण है। यहाँ तक कि जानवर भी एक-दूसरे के प्रति प्रेम व करुणा दिखाते हैं और यदि हम उन्हें क्रोध भरा चेहरा दिखाएँ तो वे उसका उत्तर देने में सक्षम होते हैं। जो पड़ोसी ईमानदार, करुणाशील और सच्चे होते हैं उनके प्रति हम प्रेम भाव रखते हैं फिर चाहे वे आर्थिक रूप से सम्पन्न न हों। उनसे मिलने में हमें आनन्द की अनुभूति होती है। दूसरी ओर, यदि हमारे पड़ोसी शक्तिशाली और धनी हों, पर कभी भी हमसे मुस्कुराकर नहीं मिलते तो हम उन्हें देखना पसंद नहीं करेंगे। यह मानव प्रकृति है।"
परम पावन ने टिप्पणी की कि जिसे हम आधुनिक शिक्षा कहते हैं वह जब पश्चिम में उभरी तो तब नैतिक मूल्यों का क्षेत्र चर्च का था। अधुना आधुनिक शिक्षा मुख्य रूप से शारीरिक विकास और भौतिक लक्ष्यों पर केंद्रित है, जबकि चर्च के प्रभाव का ह्रास हुआ है। परिणामस्वरूप नैतिकता की उपेक्षा की जाती है।
"आधुनिक शिक्षा आंतरिक मूल्यों पर बहुत कम ध्यान देती है पर फिर भी हमारी आधारभूत मानव प्रकृति करुणाशील है। हमें आधुनिक शिक्षा प्रणाली को अधिक समग्र बनाने के लिए इसमें करुणा तथा सौहार्दता को शामिल करना होगा। समूचे विश्व में जिस तरह की गड़बड़ी हम देख रहे हैं उसका कारण है कि लोग व्याकुल करने वाली भावनाओं से अभिभूत हो जाते हैं, जिनके बारे में उन्हें पता नहीं है कि वे उनसे किस तरह निपटें। मेरा मानना है कि प्राचीन भारतीय परंपराओं में चित्त तथा भावनाओं के संबंध में हम जो पाते हैं वह आज भी प्रासंगिक है। इस पर चिन्तन करना और उसे व्यवहृत करना मूल्यवान होगा, धार्मिक दृष्टिकोण से नहीं अपितु एक शैक्षिक और व्यावहारिक दृष्टिकोण से।"
जब उद्घाटन समारोह समाप्त होने को आया तो परम पावन को उन चार लोगों को जीवन गौरव पुरस्कार प्रदान करने के लिए आमंत्रित किया गया जिन्होंने शिक्षा में उत्कृष्ट योगदान दिया है।
परम पावन गाड़ी से सीधे पुणे हवाई अड्डे गए, जहाँ से उन्होंने गया के लिए उड़ान भरी और मध्याह्न के अंत तक बोधगया वापस पहुँच गए।