ज़्यूरिख, स्विट्जरलैंड, आज प्रातः जब परम पावन दलाई लामा विंटरथुर जाने के लिए अपने होटल से निकले तो हवा में शीतलता थी। जब वे सम्मेलन केंद्र पहुंचे तो जेएचएडब्ल्यू विश्वविद्यालय (ज़्यूरिख युनिवर्सिटी ऑफ एप्लाइड साइंसेज) के अध्यक्ष जीन-मार्क पिविटेउ ने उऩका स्वागत किया। परम पावन के सभागार में मंच पर बैठने के बाद, पिविटेउ ने कार्यक्रम का परिचय दिया। "हम सहिष्णुता, न्याय और स्वतंत्रता के विषय में बात कर रहे हैं क्योंकि मानव मूल्यों से अवगत होना महत्वपूर्ण है। विश्वविद्यालय मात्र उपाधि अर्जित करने से अधिक है, यह विचारों और मूल्यों तथा उत्तरदायित्व के प्रति प्रतिबद्धता के विषय में है। हमारे लिए, परम पावन, आप इनमें से कई मूल्यों का प्रतिनिधित्व करते हैं और हम आपसे सुनना चाहेंगे।"
"प्रिय भाइयों और बहनों," परम पावन ने उत्तर दिया, "जब मैं एक मानव चेहरा देखता हूं, तो मैं सोचता हूँ, 'एक और मानव भाई या बहन'। हम अपने बीच गौण अंतरों पर अत्यंत केंद्रित होते हैं - समुदाय, धर्म, धार्मिक संप्रदाय के अंतर, लोग अमीर हैं अथवा या गरीब - जो 'हम' और 'उन' की भावना को जन्म देता है। आज के विश्व में, प्राकृतिक आपदाओं के अतिरिक्त हम जिन समस्याओं का सामना करते हैं उनमें से कई स्वनिर्मित हैं। परिणामस्वरूप लोग बहुत खुश नहीं हैं।
"अतीत में, मानव आबादी छोटी थी और लोग छोटे समुदायों में एक-दूसरे पर निर्भर थे। अब जनसंख्या बढ़ गई है और हम इस समुदाय और इस देश और दूसरे के बीच अंतर करते हैं। २०वीं शताब्दी में दो विश्व युद्ध हुए थे; क्यों? आजकल, मध्य पूर्व में धर्म एक दूसरे की हत्या का कारण बन गया है। वे 'मेरे धर्म' और 'उनके धर्म' के संदर्भ में सोचते हैं। चूंकि हम इन संघर्षों का निर्माण करते हैं, अतः उनके समाधान का उत्तरदायित्व हमारा है।
"आशा के संकेत हैं; २०वीं शताब्दी का उत्तरार्द्ध पूर्वार्ध के वर्षों से भिन्न था। मैं यूरोपीय संघ की भावना का बहुत बड़ा प्रशंसक हूं और जिस तरह डी गॉल और एडनॉयर ने दीर्घ काल के बैर के बाद निश्चय किया कि एक साथ रहने और आम हित को आगे बढ़ाना बेहतर था। प्रतीत होता है कि ब्रिटिश संकीर्ण दिमागी, स्वार्थी कारणों से बाहर हो रहे हैं।
"हमारे बीच अंतर हैं, पर एक गहरे स्तर पर हम मुनष्य होते हुए समान हैं। हम सभी एक ही रूप से पैदा हुए हैं और हम एक ही तरह से मरते हैं। कुछ वैज्ञानिक नवजात शिशुओं के साथ पाए गए निष्कर्षों के आधार पर कहते हैं कि आधारभूत मानव प्रकृति करुणाशील है। साथ ही, जहां निरंतर क्रोध, भय और घृणा हमारी प्रतिरक्षा प्रणाली को दुर्बल करती है, चित्त की शांति हमारे स्वास्थ्य के लिए अच्छी है।
"मनुष्य के रूप में हम सामाजिक प्राणी हैं। हम अपने समुदाय पर निर्भर होकर जीवित रहते हैं। बार्सिलोना में, मैं एक कैथोलिक भिक्षु से मिला जो पहाड़ पर प्रेम पर ध्यान करते हुए एक सन्यासी के रूप में रह रहा था। वह रोटी और चाय पर जीवित था और वास्तव में खुश था, पर वह भी स्थानीय समुदाय के सहयोग पर निर्भर था।
"हमें मित्रों की आवश्यकता होती है और मैत्री विश्वास पर आधारित है। विश्वास अर्जित करने के लिए, धन व शक्ति पर्याप्त नहीं है; आपको दूसरों के प्रति कुछ सोच दिखाने की आवश्यकता है। आप सुपरमार्केट में विश्वास नहीं खरीद सकते। प्राचीन काल में, आप स्विस और हम तिब्बती अपने पर्वतों के पीछे संतुष्ट हो सकते थे, पर आज मनुष्य एक मानव समुदाय से संबंधित हैं। इसलिए, हमें एकजुट रहना है और चूंकि हम अन्योन्याश्रित हैं, हमें कुछ वैश्विक उत्तरदायित्व दिखाना है।
"अगर उनका विश्वास है कि हम सभी का सृजन ईश्वर द्वारा हुआ है या यदि वे मात्र कर्म में विश्वास करते हैं, कि सकारात्मक कर्म सुख और हानिकारक व्यवहार दुःख को जन्म देता है, तो लोग एक-दूसरे की हत्या कैसे सकते हैं? हमें चित्त की शांति के बारे में सोचना चाहिए। लगभग २०० वर्ष पूर्व चर्च शिक्षा के साथ आंतरिक मूल्यों की देखरेख करता था। आज, आंतरिक मूल्यों को शिक्षा में शामिल किया जाना चाहिए, इस धर्म के आधार पर नहीं अपितु एक धर्मनिरपेक्ष दृष्टिकोण से।
"और जिस तरह हम शारीरिक रूप से स्वस्थ रहने के लिए शारीरिक स्वच्छता की शिक्षा देते हैं, हमें चित्त की शांति प्राप्त करने के लिए, अपनी विनाशकारी भावनाओं से निपटने के लिए भावनात्मक स्वच्छता विकसित करने की आवश्यकता है। मैं जहां भी होता हूँ और जो भी सुनना चाहता है उनके साथ इन विचारों को साझा करता हूं - क्या यह स्पष्ट हुआ?"
कक्ष प्रशंसा भरी करतल ध्वनि से गूंज उठा।
पैनल चर्चा के संचालक स्विस टीवी एंकर सुसन विले ने पैनल सदस्यों का परिचय दिया: डॉ क्रिश्चियन होहेन्स्टीन, अंतर्सांस्कृतिकता और भाषाविज्ञान के प्रोफेसर; डॉ एंड्रियास गर्बर - ग्रोटे, सार्वजनिक स्वास्थ्य के प्रोफेसर और अनुसंधान प्रमुख; लीनार्डो ह्यूबर, छात्र संघ के अध्यक्ष; और डॉ रूडॉल्फ होगर, तिब्बत-संस्थान रिकॉन।
उन्होंने परम पावन से यह पूछते हुए प्रारंभ किया कि क्या यह सच था कि वे एक आलसी छात्र थे। उन्होंने उत्तर दिया कि यह स्वाभाविक था। तिब्बत में शिक्षा कंठस्थ करने से प्रारंभ होती है और सात वर्ष की आयु में वे शास्त्रीय ग्रंथों को कंठस्थ करते थे और उसमें उन्हें कोई आनन्द न मिला। यह तो बाद में जब वे थोड़े और बड़े हुए तो उन्होंने जो वे सीख रहे थे उसमें रुचि लेनी प्रारंभ की। परम पावन ने उनसे कहा कि जब वे १६ वर्ष के थे, तो उन्होंने अपनी स्वतंत्रता खो दी और जब वह २४ वर्ष के थे तो उन्होंने अपना देश खो दिया, पर उस समय तक वे समझ सके थे कि उन्होंने जो कुछ सीखा वह उनकी आंतरिक शक्ति बनाए रखने में सहायक था।
पैनल चर्चा ने दूसरों के दृष्टिकोण तथा स्थायित्व पर बात करते हुए आत्मानुशासन की बात की। डॉ होगर ने उनके विहारों में तिब्बती भिक्षुओं की एक तस्वीर दिखायी जिन्हें मछली का विच्छेदन सिखाया जा रहा था। उन्होंने उनके अंग प्रत्यंग को अलग अलग किया और अंत में मस्तिष्क और रीढ़ की हड्डी को उठाया। उस समय छात्रों में से एक ने शिक्षक से पूछा, "क्या चेतना यहीं से प्रारंभ होती है?" उन्होंने उत्तर दिया कि पश्चिमी विज्ञान का दावा है कि इस तरह के आधार के बिना कोई चेतना नहीं हो सकती। यह ऐसा क्षण था जब आधुनिक विज्ञान और बौद्ध विज्ञान ने अपने विभिन्न दृष्टिकोणों को स्वीकार किया।
डॉ होहेन्स्टीन ने टिप्पणी की कि उन्हें निश्चय नहीं था कि सार्वभौमिक मानव मूल्य अभी तक मौजूद हैं, पर हमें अपना रवैया या परिप्रेक्ष्य बदलने के लिए तैयार रहना चाहिए। उन्होंने कहा कि, लिंग भेद के बने रहने को देखते हुए, अभी समानता में देर है। परम पावन ने समझाया कि यह उनकी समझ है कि प्रारंभ में मनुष्य जमा करते थे और उन्हें जो कुछ चाहिए था, उसे साझा करते थे। कृषि के प्रारंभ होने के बाद और संपत्ति पर अपना अधिकार जताने पर ही नेतृत्व की आवश्यकता पड़ी। चूंकि नेतृत्व का मानदंड शारीरिक शक्ति थी, पुरुष प्रभुत्व उभरा। शिक्षा ने कुछ सीमा तक उस असमानता को देखने में सहायता की है, परन्तु समानता लाने के लिए चित्त की आदतों को पलटकर उनमें सुधार के लिए कार्य करने की आवश्यकता बनी हुई है।
निवेश बैंकिंग में सार्वभौमिक मानव मूल्यों के प्रश्न को लेकर, लीनार्डो ह्यूबर ने सुझाव दिया कि कॉर्पोरेट उत्तरदायित्व एक प्रारंभ होगा, पर साथ ही उन्होंने कहा कि ये ऐसी बातों हैं जिनके बारे में बात करने की आवश्यकता है। परम पावन ने टिप्पणी की कि भौतिकवादी जीवन शैली के लक्ष्य भौतिकवादी हैं, पर हमें यह भी पूछना है कि चेतना क्या है। उन्होंने रूसी वैज्ञानिकों के साथ इस पर चर्चा का स्मरण किया, जो मानसिक चेतना की धारणा को स्वीकार नहीं करते और इसे धार्मिक विचार कहकर खारिज कर देते हैं। उन्होंने प्राचीन भारतीय मनोविज्ञान के मूल्य और ध्यान के माध्यम से चित्त को प्रशिक्षित करने के उपायों का उल्लेख किया। आज, न्यूरोप्लास्टिसिटी की खोज से पता चला है कि ध्यानाभ्यास चित्त को परिवर्तित कर सकता है।
"लोग मात्र आनंद तथा सुख के ऐन्द्रिक स्रोतों के बारे में सोचने के आदी हैं; चित्त के प्रति बहुत कम ध्यान दिया जाता है। तिब्बत में, भारत के नालंदा विश्वविद्यालय का अनुपालन करते हुए हम विश्लेषणात्मक ध्यान का व्यापक उपयोग करते हैं; सदैव पूछते हुए क्यों? क्यों? क्यों? यदि हम किसी एक स्पष्टीकरण तक पहुँचते हैं जो तर्क के विपरीत है तो हम इसे अस्वीकार कर देते हैं।"
श्रोताओं के कुछ प्रश्नों के उत्तर देते हुए, परम पावन ने सुझाया कि बच्चों को प्रेम व स्नेह से अपनी भावनाओं को प्रबंधित करने के लिए प्रशिक्षित किया जा सकता है। उन्होंने शंका व्यक्त की कि कृत्रिम बुद्धि कभी परिष्कृत मानव चित्त की प्रतिकृति बन सकती है जिसने सर्वप्रथम इसे बनाया।
यह पूछे जाने पर कि चित्त की शांति कैसे प्राप्त करें, उन्होंने उत्तर दिया कि पहले तो आपको इसका मूल्य समझना होगा। आपको यह समझने की आवश्यकता है कि क्रोध और घृणा जैसी भावनाएँ व्यर्थ हैं क्योंकि वे इसे विचलित करती हैं, जबकि उनके विपरीत, करुणा का विकास, चित्त की शांति को सशक्त करता है। उन्होंने इंगित किया कि विनाशकारी भावनाएं यथार्थ की विकृत दृष्टि में निहित हैं। उन्होंने अमेरिकी मनोचिकित्सक हारून बेक को उद्धृत किया जिनका क्रोध से परेशान लोगों के साथ काम करने का लम्बा अनुभव है, जिन्होंने परम पावन को बताया था कि जब लोग क्रोध में होते हैं तो उनके क्रोध की वस्तु पूर्ण रूप से नकारात्मक लगती है, पर यह ९०% मानसिक प्रक्षेपण है।
उन्होंने आगे कहा कि यह जानना उपयोगी है कि भावनाएं चित्त की प्रकृति से संबंधित नहीं हैं। चित्त जल की तरह स्पष्ट है, पर जल की ही तरह यह भावनाओं से आच्छादित हो सकता है। उन्होंने चित्त की सहज स्पष्टता पर बल दिया।
संचालक सुसन विले ने पैनल से एक ऐसे विचार के बारे में पूछा जो वे चर्चा से लेकर जा रहे हैं। डॉ होगर ने आत्म-उत्तरदायित्व और व्यक्तिगत परिवर्तन की आवश्यकता का उल्लेख किया। डॉ होहेन्स्टीन के लिए यह भावनात्मक स्वच्छता का विचार और गौण अंतरों पर ध्यान न होना था। डॉ गर्बर - ग्रोटे ने सहानुभूति के प्रति प्रशंसा व्यक्त की तथा लीनार्डो ह्यूबर ने कहा कि विश्लेषणात्मक ध्यान ने उन्हें विचारों से भर दिया था।
जीन-मार्क पिविटेउ ने जेएचएडब्ल्यू विश्वविद्यालय की तरफ से परम पावन और पैनल के अन्य सदस्यों को धन्यवाद दिया। तिब्बत-संस्थान रिकॉन की तरफ से डॉ कर्मा डोल्मा लोबसंग ने भी कृतज्ञता व्यक्त की, तथा टिप्पणी की कि यह तिब्बत संस्थान की ५०वें वर्षगांठ समारोह का चौथा व अंतिम कार्यक्रम था। उन्होंने परम पावन के दीर्घायु, सुरक्षित यात्रा की कामना की और उन्हें बताया कि उनके साथ के ये दिन भुलाए न जा पाएँगे। एक बार पुनः सभागार तालियों की गड़गड़ाहट से भर गया।
परम पावन और पैनल के सदस्यों को विश्वविद्यालय द्वारा मध्याह्न के भोजन के लिए आमंत्रित किया गया। तत्पश्चात परम पावन ने बर्न के लिए प्रस्थान किया, जहां से वे कल भारत के लिए उड़ान भरेंगे।