रॉटरडैम, नीदरलैंड, आज प्रातः जब परम पावन दलाई लामा ने छह डच संसद सदस्यों से भेंट की तो उन्होंने यह बताने में समय नहीं लगाया कि वे तिब्बत के प्रति उनकी सोच की कितनी सराहना करते थे। जैसे-जैसे समय आगे बढ़ता है अधिक से अधिक लोग इस बात की सराहना कर रहे हैं कि तिब्बती संस्कृति परिष्कृत और उपयोगी है, जबकि तिब्बत में इसे लगातार नष्ट किया जा रहा है। उन्होंने इंगित किया कि भारत और चीन के बीच मध्यवर्ती के रूप में तिब्बत सदैव राजनीतिक रूप से महत्वपूर्ण रहा है।
"हम स्वतंत्रता की मांग नहीं कर रहे क्योंकि इसे प्राप्त करना करना कठिन होगा, पर यदि हमने किया तो हम निर्धन बने रहेंगे। सभी की तरह तिब्बती लोग भी समृद्धि के विरोधी नहीं हैं। अगर हम पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना (पीआरसी) के साथ बने रहते हैं तो हम चीन की शक्तिशाली अर्थव्यवस्था से लाभान्वित हो सकते हैं।
"चीनी संविधान विभिन्न तिब्बती क्षेत्रों को मान्यता देता है और हमें उन क्षेत्रों में अपनी भाषा और संस्कृति को संरक्षित करने की स्वतंत्रता होनी चाहिए। हम एक साथ काम कर सकते हैं, चीनी हमें भौतिक लाभ प्रदान कर सकते है और हम उन्हें आध्यात्मिक सहायता प्रदान कर सकते हैं। मैं यूरोपीय संघ की भावना की बहुत प्रशंसा करता हूं, जो संकीर्ण राष्ट्रीय संप्रभुता की तुलना में आम हित को अधिक महत्व देता है। हम चीन के साथ इसी तरह के संघ की स्थापना कर सकते हैं।
"ऐतिहासिक रूप से तिब्बत एक स्वतंत्र राज्य था। चीनी दस्तावेज ७वें, ८वें और ९वीं सदी में तीन स्वतंत्र साम्राज्यों-चीन, मंगोलिया और तिब्बत का उल्लेख करते हैं। इसके बाद, तांग राजवंश का कोई चीनी दस्तावेज नहीं है जब तक कि मांचू राजवंश तिब्बत को चीन के हिस्से के रूप में संदर्भित करता है। परन्तु अतीत अतीत है और मैंने देखा है कि यूरोपीय संघ के सदस्य स्वायत्त राज्य बने रहते हैं।
"१९५१ में हमने संयुक्त राष्ट्र में तिब्बत का मुद्दा उठाया-कुछ न हुआ। फिर १९५९ और १९६५ में हमने भारत के आपत्ति के बावजूद विश्व निकाय से अपील की, पर कुछ न हुआ। पंडित नेहरू ने मुझे बताया कि अमेरिका तिब्बत को मुक्त करने के लिए चीन के साथ युद्ध नहीं करेगा। उन्होंने कहा कि हम केवल चीनी अधिकारियों से बात कर सकते हैं। एक बार वे मुझे देखने के लिए आए और साथ में १७ बिंदु समझौते की एक प्रति लाए जो 'तिब्बत की शांतिपूर्ण मुक्ति' को संदर्भित करता है और इंगित किया कि हम किन बिंदुओं पर उपयोगी चर्चा कर सकते हैं।
"१९५६ में नेहरू ने बलपूर्वक कहा कि मैं भारत आने के बाद तिब्बत लौट जाऊँ और मैंने ऐसा किया। मैंने चीनी मांगों को समायोजित करने का प्रयास किया जब तक स्थिति नियंत्रण से बाहर नहीं हो गयी। ६ लाख तिब्बती सख्त हैं। चीनियों ने तिब्बती भावना के दमन के लिए सभी प्रकार के साधनों का उपयोग किया है पर कोई सफलता नहीं मिली। इस बीच, ३४०,००० मारे गए, भुखमरी का शिकार हुए या आत्महत्या की।
"प्रारंभ में कोई जातीय वैर नहीं था, पर १९५९ के पश्चात यह बदल गया क्योंकि तिब्बतियों और हान के बीच तनाव बढ़ गया। इस पूरे दौरान, तिब्बती उत्साह प्रबल बना रहा। अब, ऐसा प्रतीत होता है कि चीनी नेता देख सकते हैं कि दमन की उनकी नीति विफल रही है, अतः वे एक अधिक यथार्थवादी दृष्टिकोण लेना प्रारंभ कर रहे हैं। वास्तव में तिब्बती मुद्दा ऐसे ही समाप्त न होगा जब तक वे इसे यथार्थवादी रूप से संबोधित नहीं करते। ऐसा लगता है कि शीर्ष नेताओं ने यह अनुभव करना शुरू कर दिया है कि दलाई लामा को परे रखने से उन्हें कोई लाभ न होगा - हम देखेंगे।"
सांसदों में से एक ने पूछा कि शैक्षिक प्रणालियों को किस तरह कम भौतिकवादी उन्मुख बनाया जा सकता है और परम पावन ने उन्हें बताया कि उनके विचार से आंतरिक मूल्यों को विकसित करना तथा चित्त की शांति को विकसित करना अधिक महत्वपूर्ण था। शिक्षा के लिए यह संभव होना चाहिए कि वह छात्रों में जन्म से निहित सकारात्मक गुणों को बढ़ाए।
"व्यक्तिओं के चित्त की शांति प्राप्त करने के आधार पर ही शांति प्रतिस्थापित की जा सकती है। क्रोध अथवा शस्त्रों के प्रयोग से शांति प्राप्त नहीं की जाएगी। हमने पहले ही विश्व में पर्याप्त हिंसा देखी है; २१वीं शताब्दी शांति का युग होना चाहिए-एक मुस्कान जो प्रतिक्रिया में एक मुस्कान को जन्म दे।"
दूसरे दिन पुनः अहोय एरेना में पाउला डी विज ने परम पावन, संघ के सदस्यों और सभागार में प्रत्येक का स्वागत किया। उन्होंने कहा, "सभी धार्मिक परम्पराओं में करुणा की चर्चा की जाती है, मात्र बौद्ध धर्म में नहीं। हर किसी को करुणा की आवश्यकता है, अतः ये प्रवचन हम सभी के लिए उपयोगी होंगे। वे एक प्रेरणा होंगे।"
परम पावन ने विषय लिया। "आज, मैं इस लघु पुस्तिका 'चित्त शोधन के अष्ट पद' पर प्रवचन दूंगा, जो मुख्य रूप से परोपकार के बारे में है। जैसा कि पाउला ने अभी कहा है, केवल बौद्ध ही नहीं बल्कि हर कोई इसे उपयोगी पा सकता है। चाहे आप यहूदी, ईसाई या मुसलमान हों, सभी सच्चे अभ्यासी दयालुता के अभ्यास की सराहना करते हैं। कभी-कभी जिस पुस्तक को हम देखते हैं वह मोटी हो तो उबाऊ हो सकती है, पर यह इतनी छोटी है कि आपकी जेब में समा सकती है। जब मैं लगभग १५ या १६ वर्ष का था, तब मुझे इस पर प्रवचन प्राप्त हुआ। मैंने ग्रंथ को कंठस्थ किया, प्रतिदिन पाठ किया और इसे उपयोगी पाया है।
"सबसे पहले मैं धर्म की मूल संरचना पर जाऊंगा। बौद्ध धर्म भारत में जन्मी प्रमुख आध्यात्मिक परंपराओं में से एक है। जैन धर्म और सांख्य स्कूल की शाखाओं में से एक की तरह, इसमें एक सृजनकर्ता के लिए कोई स्थान नहीं है। इन परम्पराओं के संस्थापक, जैसे महावीर और बुद्ध, मानव थे जिन्होंने प्रबुद्धता प्राप्त की। उन्होंने भारत में प्रचलित अभ्यासों को व्यवहृत किया जैसे शमथ और विपश्यना के विकास के उपाय। बुद्ध के संबंध में, जैसे वे चित्त की प्रकृति की गहराई में गए और आत्म की प्रकृति की जांच की, उन्होंने निष्कर्ष निकाला कि शरीर/चित्त मेल के अलावा कोई स्वतंत्र आत्म नहीं था।
"सूत्र कहते हैं कि यदि आप आत्म की खोज करते हैं तो यह केवल एक दृष्टि बन जाती है। शरीर/चित्त मेल से अधिक कुछ नहीं है। जिस तरह हम भागों के मेल को एक गाड़ी के रूप में देखते हैं, इसी तरह सांवृतिक आत्म शरीर/चित्त मेल पर आधारित होता है - कोई स्वतंत्र आत्म नहीं होता है। नागार्जुन अपने 'मूलमध्यमकारिका' में कहते हैं:
कर्म और क्लेशों के क्षय में मोक्ष है;
कर्म और क्लेश विकल्प से आते हैं,
विकल्प मानसिक प्रपञ्च से आते हैं,
शून्यता में प्रपञ्च का अंत होता है।
और अपने चतुश्शतक में आर्यदेव ने कहा है:
"जिस तरह स्पर्श की भावना शरीर में व्याप्त होती है भ्रांति सभी [क्लेशों] में उपस्थित है।
भ्रांति पर काबू पाकर आप सभी क्लेशों पर भी काबू पाएंगे।
"इस अज्ञानता को दूर करने के लिए प्रतीत्य समुत्पाद को समझने का प्रयास करना आवश्यक है।"
परम पावन ने टिप्पणी की कि प्रबुद्धता प्राप्त करने के उपरांत बुद्ध ने शिक्षण की अनिच्छा व्यक्त की। उनका उद्धरण है:
गहन व शांतिमय, प्रपञ्च मुक्त, असंस्कृत प्रभास्वरता मैंने अमृत मय धर्म प्राप्त किया है फिर भी यदि मैं इसकी देशना दूँ तो कोई समझ न पाएगा,
अतः मैं अरण्य में मौन रहूँगा।
यहां, 'गहन व शांतिमय' दुःख के कार्य कारण को संदर्भित कर सकता है, साथ ही निरोध के कार्य कारण और मार्ग जो कि प्रबुद्धता के मार्ग हैं - दूसरे शब्दों में प्रथम धर्म चक्र प्रवर्तन के चार आर्य सत्य। प्रपञ्च मुक्त, का संदर्भ द्वितीय धर्म चक्र प्रवर्तन की शून्यता तथा प्रज्ञा पारमिता शिक्षाओं से है। असंस्कृत प्रभास्वरता का संदर्भ तृतीय धर्म चक्र प्रवर्तन के विषय निष्ठ प्रभास्वरता से है। यह विषय निष्ठ प्रभास्वरता अनुत्तर योग तंत्र के लिए आवश्यक है।
"प्रबुद्धता प्राप्त करने के बाद इस प्रथम वक्तव्य में बुद्ध संदर्भित करते हैं कि वे भविष्य में क्या सिखाएंगे। इसके बाद, अपने शिष्य कौंडिन्य तथा अमानव सत्वों के अनुरोध पर उन्होंने सिखाया। प्रथम शिक्षा जो वाराणसी के बाहर मृगदाव में हुई में चार आर्य सत्यों की व्याख्या थी। दुःख के कार्य कारण और उसके उद्गम को क्लेश कार्य कारण के रूप में वर्णित किया गया है, जबकि निरोध तथा मार्ग का कार्य कारण और मार्ग अक्लेश कार्य कारण हैं।
"चार आर्य सत्यों में से प्रत्येक को चार आकारों के संबंध में समझा जा सकता है। उदाहरण के लिए दुःख सत्य को अनित्य, दुख की प्रकृति, शून्य और नैरात्म्य के रूप में समझा जा सकता है। दुःख सत्य के कारणों का आकार हेतु, समुदय, प्रभव और प्रत्यय। निरोध सत्य को निरोध, शान्तता, प्रणीत और निःसरण जबकि मार्ग सत्य को मार्ग, चेतना, प्राप्ति तथा निश्चित निःसरण के संदर्भ में समझा जा सकता है। इन पर चिंतन करना एक प्रबल अभ्यास है।
परम पावन ने टिप्पणी की, "क्लेश चाहे कितने ही प्रबल क्यों न हों जब तक वे यथार्थ के विकृत दृश्य में आमूल होते हैं, तब तक उनका कोई ठोस अवलंब नहीं होता है और उन्हें दूर किया जा सकता है।"
परम पावन ने कहा कि अज्ञानता और प्रज्ञा चित्त की अवस्था है जो एक-दूसरे के विपरीत हैं। ठीक उसी तरह कि जब प्रकाश होता है तो अंधकार चला जाता है, इसी तरह नैरात्म्य और शून्यता की प्रज्ञा अज्ञानता को उखाड़ फेंकती है। प्रज्ञा पारमिता की शिक्षाएँ चार आर्य सत्यों को अच्छी तरह से समझाती हैं, विशेषकर निरोध सत्य और मार्ग सत्य। नागार्जुन का कहना है कि प्रतीत्य समुत्पाद की समझ से हम वास्तव में चार आर्य सत्यों को पकड़ पाते हैं।
जब हृदय सूत्र कहता है, 'रूप शून्यता है; शून्यता रूप है। रूप से पृथक शून्यता नहीं है; शून्यता से पृथक रूप नहीं है,' यह इस पर बल नहीं दे रहा कि किसी का भी अस्तित्व नहीं है; बल्कि वे जिस रूप में दृश्य होती हैं उस रूप में अस्तित्व नहीं रखतीं। रूप का अस्तित्व है, पर मात्र एक ज्ञापित रूप में। चित्त के पक्ष भी ज्ञापित रूप में अस्तित्व रखते हैं। नागार्जुन दावे से कहते हैं कि बुद्ध ने सिखाया था:
जो प्रतीत्य समुत्पाद है,
वह शून्यता के रूप में व्याख्यायित होता है।
वह आश्रित होकर ज्ञापित है, वह मध्यमा प्रतिपत् है।
ऐसा कुछ अस्तित्व में नहीं
जो प्रतीत्य समुत्पादित न हो
इसलिए ऐसा कुछ अस्तित्व में नहीं
जो शून्यता न हो।
यदि आप इसे समझते हैं तो आप सत्य द्वय के महत्व को समझेंगे, सांवृतिक सत्य कि वस्तुओं का अस्तित्व है और उनका परमार्थ शून्यता में होगा।
परम पावन ने फिर प्रज्ञा पारमिता शिक्षाओं की स्पष्टार्थ तथा निहितार्थ विषय सामग्री पर चर्चा की जैसा कि मैत्रेय/असंग के 'अभिसमयालंकार' में दर्शाया गया है। स्पष्टार्थ विषय शून्यता की व्याख्या है पर जो निहितार्थ है वह मार्ग के चरण हैं। निहितार्थ के अनुसार, मार्ग सत्य द्वय से प्रारंभ होता है, फिर चार आर्य सत्यों की समझ के लिए आगे बढ़ता है और त्रिरत्न, बुद्ध कौन हैं, उन्होंने जो देशित किया और संघ की भूमिका की उचित समझ की ओर अग्रसर करता है।
उन्होंने समझाया कि 'पथ प्रदीप' की शैली और व्यवस्था, जिसे अतीश ने सिखाया और जो बाद के पथ क्रमों की शैली बना, पूर्वधारणा रखता है कि पाठकों को पहले से ही धर्म की कुछ समझ है।
अभ्यास के संदर्भ में, परम पावन ने इसे बनाए रखने के लिए नैश्रेयस या एक अच्छे पुनर्जन्म का संदर्भ दिया। नागार्जुन की 'रत्नावली' में नैश्रेयस के सोलह कारण सूचीबद्ध हैं। तेरह गतिविधियों को रोकने के लिए हैं। दस अकुशल कार्य जिनसे बचा जाना चाहिए में, तीन कायिक हैं - प्राणातिपात (हत्या), अदत्तादान (चोरी) और काममिथ्याचार (व्यभिचार); चार मौखिक हैं - मृषावाद (झूठ बोलना), पैशून्य (विभाजक बातें), पारुष्य (कठोर), संभिन्नप्रलाप (अनर्गल बोलना); और तीन मानसिक हैं - अभिद्या (लोभ), व्यापाद (हानिकारक उद्देश्य) और मिथ्या दृष्टि (भ्रांत विचार)। तीन अतिरिक्त संयमित गतिविधियों में मद पान, गलत आजीविका और अहित करना शामिल है। अपनाए जाने के लिए तीन और गतिविधियां हैं - सम्मानपूर्वक दान, श्रद्धेयों का आदर तथा प्रेम।
आर्यदेव सलाह देते हैं:
सर्वप्रथम अपुण्य को रोको, तत्पश्चात रोको [स्थूल आत्मा] का विचार;
बाद में सभी प्रकार की दृष्टि रोको।
जो भी यह जानता है वह प्रज्ञावान है।
'अष्ट पद' के पाठ को लेते हुए, परम पावन ने पढ़ना प्रारंभ किया। उन्होंने समझाया कि प्रथम पद में प्रकाश डाला गया है कि किस तरह हम सभी दूसरों पर निर्भर हैं और यह बताता है कि किस तरह बोधिचित्तोत्पाद को विकसित किया जाए। दो मूलभूत विधियां हैं: सप्त बिंदु कार्य कारण और परात्मसमता तथा परात्मसमपरिवर्तन।
दूसरा पद दूसरों को अपने से श्रेष्ठ मानने की सलाह देता है। तीसरा क्लेशों से सावधान रहने का परामर्श देता है, जबकि चौथा कष्ट देने वाले सत्वों को अपना प्रिय मानने की मूल्य की बात करता है। पांचवां दूसरों को विजय देने की बात सुझाता है और छटवां वैरियों को आध्यात्मिक मित्रों के रूप में देखने की सलाह देता है। सातवां पद स्पष्ट रूप से आदान प्रदान के अभ्यास को व्याख्यायित करता है जिसमें दूसरों के दुःखों को महा करुणा के साथ स्वीकार करने की कल्पना और बदले में मैत्री करुणा भाव से दूसरों को सुख देने की बात आती है। इस अभ्यास को गुह्य के रूप में संदर्भित करना यह इंगित करता है कि संभवतः हर किसी के लिए उचित नहीं है।
अंत में, आठवें पद की प्रथम दो पंक्तियां प्रशंसा और दोष के लिए अष्ट लोक धर्म के काबू में आने के खिलाफ सचेत करती हैं। यह टिप्पणी करते हुए कि अंतिम दो पंक्तियां सभी वस्तुओं को भ्रांति की तरह देखने के लिए संदर्भित करती हैं, परम पावन ने उल्लेख किया कि शून्यता को समझने के लिए आपको बौद्ध होने की आवश्यकता नहीं है।
उन्होंने घोषित किया, "चित्त शोधन से अंतर पड़ता है। जब तक मैं लगभग १३ वर्ष का था, तब तक मैं जो कुछ भी पढ़ रहा था उसमें मेरी बहुत रूचि न थी। धीरे-धीरे मैंने सराहना विकसित की कि यह उपयोगी हो सकता है। भारत पहुंचने के बाद मैंने समीक्षा की कि मैंने पहले क्या अध्ययन किया था, पर अब मेरा लक्ष्य प्रबुद्धता की प्राप्ति थी, मात्र परीक्षा में उत्तीर्ण होना नहीं। मैंने पाया है कि शून्यता को समझने का प्रयास और परार्थ की भावना को विस्तारित करने का प्रयास आत्म-केंद्रितता की पकड़ को कम करती है। मेरा मानना है कि अगर मैं ऐसा करने से लाभान्वित हुआ हूँ तो यदि आप अध्ययन और अभ्यास करें, तो आप भी इससे लाभ उठा सकते हैं।"
दलाई लामा फाउंडेशन के लिए, रेनियर टिलनस ने घोषणा की कि २१,००० लोग सार्वजनिक वार्ता और प्रवचनों में सम्मिलित हुए थे, ४००,००० ने सीधा वेब प्रसारण देखा था और २५० स्वयंसेवकों ने बहुत सहायता की थी। नेदरलैंड में पिछले तीन दिनों के कार्यक्रमों के लिए खाते ने ७०,००० यूरो का अधिशेष बनाया था। परम पावन ने अनुरोध किया कि २० ,००० नेदरलैंड में तिब्बती बच्चों को भोट भाषा शिक्षण देने के लिए दान किया जाए। शेष राशि एमोरी विश्वविद्यालय में सामाजिक, भावनात्मक और नैतिक विकास को बढ़ावा देने के लिए विकसित किए जा रहे कार्यों के लिए दान किया जाए।
कल, परम पावन जर्मनी की यात्रा करेंगे।