थेगछेन छोलिंग, धर्मशाला, हि. प्र., आज प्रातः हाथों में धूप लिए ताइवान छात्रों के प्रतिनिधियों ने परम पावन दलाई लामा का उनके निवास के प्रवेश द्वार से चुगलगखंग तक अनुरक्षण किया। आसन ग्रहण करने से पूर्व सिंहासन के सामने खड़े होकर, उन्होंने श्रोताओं के चेहरों को देखा और हाथ हिलाकर उनका अभिनन्दन किया।
जैसी कि परम्परा बन चुकी है, थाई भिक्षुओं ने पालि में मंगल सुत्त का सस्वर पाठ किया। इसके बाद ताइवान के छात्रों ने चीनी में 'हृदय सूत्र' का पाठ किया जिसका अंत उन्होंने एक अतिरिक्त छन्द के साथ किया:
हम तीन विषों (क्रोध, मोह और अज्ञानता) को दूर करें
प्रज्ञा ज्योति प्रकाशित हो,
हम सभी बाधाओं को दूर कर सकें और बोधिसत्व अभ्यासों में प्रवेश करें।
परम पावन ने प्रज्ञा पारमिता स्तुति के एक छंद का सस्वर पाठ किया:
प्रज्ञा पारमिता को वंदन
त्रिकाल के सभी बुद्धों की जननी,
शब्दातीत, अचिन्तनीय, अनिर्वचनीय,
अनुत्पादित और अबाधित, आकाश की प्रकृति में आत्म-जागरूक प्रज्ञा का वस्तुनिष्ठ क्षेत्र।
तद्यथा - गते, गते, पारगते, पारसंगते, बोधिस्वाहा
जिसके बाद सदैव की तरह बुद्ध वन्दना के छंद थे। तत्पश्चात उन्होंने सभा को संबोधित किया।
"जब बुद्ध २६०० वर्ष पूर्व संसार में प्रकट हुए तो वह कुशल, करुणाशील, अत्यंत बुद्धिमान और प्रज्ञावान थे। उसके बाद भारतीय आचार्यों की महान श्रृंखला आई, नागार्जुन और उनके अनुयायी, साथ ही असंग और उनके शिष्य जिनमें महान तर्क शास्त्री दिङ्नाग और धर्मकीर्ति थे। उन्होंने बुद्ध की शिक्षाओं को सुनकर, उन पर चिंतन कर और उन्हें जो समझ आया उस पर ध्यान देकर उन्हें बनाए रखा। इस तरह उनका पीढ़ी दर पीढ़ी संचरण हुआ।
"भारत से बुद्ध की शिक्षाएं श्रीलंका, थाईलैंड, बर्मा इत्यादि में पालि परम्परा के रूप में फैलीं और संस्कृत परम्परा के रूप में चीन, कोरिया, जापान और वियतनाम के साथ-साथ तिब्बत में फैली। नागार्जुन संस्कृत परंपरा के अनुयायियों के बीच अच्छी तरह से जाने जाते हैं। उनके व उनके शिष्यों के लेखन पढ़ कर हम समझ सकते हैं कि वे कितने महान थे।
"प्रथम धर्म चक्र प्रवर्तन में, बुद्ध ने चार आर्य सत्य और उनके १६ आकारों को समझाया। उन लोगों के लिए, जो उन्हें और अच्छी तरह समझना चाहते थे, विशेष रूप से निरोध सत्य और मार्ग सत्य, उन्होंने राजगृह के बाहर गृद्धकूट पर प्रज्ञा पारमिता की शिक्षा दी।
"हृदय सूत्र के बाद आपने जिस छंद का पाठ किया, वह प्रज्ञा विकसित करने के बारे में है। बाधाओं पर काबू पाने की पंक्ति इंगित करती है कि आपको यह जानने की आवश्यकता है कि अज्ञान क्या है और कौन से कारक इसका विरोध करते हैं। बोधिसत्वचर्या में संलग्न होने के बारे में अंतिम पंक्ति का तात्पर्य है कि प्रज्ञा के लिए प्रभावी होने के लिए, आपको एक करुणाशील हृदय की आवश्यकता है।
"'हृदय सूत्र' में, अवलोकितेश्वर कहते हैं कि चार गुना शून्यता के रूप में मनो-भौतिक स्कंध के रूप में शून्य है -'रूप शून्य है; शून्यता रूप है। रूप से पृथक शून्यता नहीं है, शून्यता से पृथक रूप नहीं है। हम रूप को ठोस, सारयुक्त और स्वभाव सत्ता के अस्तित्व के रूप में सोचते हैं, पर यदि उसका अस्तित्व ऐसा होता तो उसकी खोज करने पर वह स्पष्ट होता। अवलोकितेश्वर का वर्णन यह भी स्पष्ट करता है कि रूप और उसकी शून्यता की प्रकृति समान है। फिर वे आगे कहते हैं कि वेदना, संज्ञा, संस्कार और विज्ञान शून्य हैं।'"
रूप की शून्यता के संबंध में, परम पावन ने नागार्जुन के 'मूलमध्यमकारिका' के अध्याय २४ से दो श्लोक उद्धृत किए;
जो भी प्रतीत्य समुत्पादित है,
वह शून्यता के रूप में व्याख्यायित होता है।
चूंकि वह आश्रित होकर ज्ञापित है, वह मध्यमा प्रतिपत् है।
ऐसे कोई धर्म अस्तित्व नहीं रखता
जो प्रतीत्य समुत्पादित न हो।
अतः ऐसा कुछ नहीं
जो शून्यता न हो।
उन्होंने स्पष्ट किया कि शून्यता के संदर्भों का अर्थ शून्य नहीं है, अपितु यह है कि वस्तुओं में स्वतंत्र सत्ता का अभाव है। उनका अस्तित्व आंतरिक रूप से और अपने स्वतंत्र रूप में नहीं है। वस्तुएं जिस रूप में दृश्य होती हैं वे उस ठोस रूप में और सार युक्त नहीं होतीं, वे अन्य कारकों पर निर्भर होकर अस्तित्व रखती हैं। शून्यता का अर्थ निर्भर होकर अस्तित्व रखना, स्वभाव सत्ता का अभाव होना है। परम पावन ने नैरात्म्य की स्थापना के लिए चार तर्कों के प्रयोग का उल्लेख किया - वज्र रजत, उत्पाद की चार अति प्रकारों का खंडन और एक या कई होने के अभाव की स्थापना के तर्क। परन्तु प्रतीत्य समुत्पाद को तर्कों के राजा के रूप में माना जाता है क्योंकि यह कारण, प्रकृति और परिणाम के दृष्टिकोण से शून्यता को देखता है।
परम पावन ने कहा कि 'मूलमध्यमकारिका' का २२वां अध्याय प्रतीत्य समुत्पाद के द्वादशांग से संबंधित है, जो अज्ञान से प्रारंभ होता है जिसके कारण हम भव चक्र में हैं और उसके बाद कर्म, नाम, रूप तक जाता है और जरा व मृत्यु से समाप्त होता है। इस प्रक्रिया को पलटने या इस पर काबू पाने के लिए हमें अज्ञान को दूर करना होगा। उन्होंने आगे कहा कि अध्याय १८ नैरात्म्य से संबंधित है, जबकि अध्याय २४ में नागार्जुन बौद्ध यथार्थवादियों की आपत्तियों, कि यदि धर्मों में स्वभाव सत्ता का अभाव है तो किसी का भी अस्तित्व न होगा, को संबोधित करते हैं। नागार्जुन का उत्तर है कि वे शून्यता का अर्थ व उद्देश्य समझ नहीं पाए हैं।
प्रज्ञा पारमिता की शिक्षाएं बताती हैं कि वस्तुओं का मात्र ज्ञापित अस्तित्व है; वे नाम और लेबल के संदर्भ में अस्तित्व रखते हैं। परम पावन ने आर्यदेव के 'चतुश्शतक' से एक श्लोक उद्धृत किया जो बल देता है कि अज्ञान जो यथार्थ के प्रति हमारी भ्रांत धारणा को संदर्भित करता है, हमारे क्लेशों पर व्याप्त हो जाता है।
जैसे स्पर्श की भावना काया में व्याप्त है,
सभी क्लेशों में मोह उपस्थित है।
मोह पर काबू पाकर तुम,
सभी क्लेशों पर भी काबू पाओगे।
इस अज्ञानता पर काबू पाने के लिए प्रतीत्य समुत्पाद को समझने का प्रयास करना आवश्यक है। परम पावन ने यथार्थ के हमारे अतिरंजित विचार की तुलना अमेरिकी मनोचिकित्सक हारून बेक के कथन से की, जो उन्होंने क्रोध से पीड़ित लोगों में देखा था। वे व्यक्ति या परिस्थिति, जिसे लेकर उन्हें क्रोध है, को पूर्ण नकारात्मक रूप से देखते हैं, पर यह विचार ९०% मानसिक प्रक्षेपण है।
एक संक्षिप्त प्रश्नोत्तर अवधि के दौरान परम पावन ने बोधिचित्तोत्पाद को विकसित करने के प्रयास के मूल्य के बारे में बात की, फिर चाहे आप व्यस्त जीवन क्यों न जीते हों। उन्होंने इंगित किया कि शून्यता का अभ्यास प्रबुद्धता पर केंद्रित है, जबकि बोधिचित्त का अभ्यास का सत्वों पर केन्द्रित है। उन्होंने टूटी प्रतिबद्धताओं को शुद्ध करने के संबंध में छह सत्र योग के अभ्यास को बनाए रखने के मूल्य को समझाया। उन्होंने शास्त्रीय बौद्ध ग्रंथों का अध्ययन करने में ताइवान के छात्रों की आकांक्षा की सराहना की और उन्हें स्व भाषा- चीनी में पढ़ने की सलाह दी।
चंद्रकीर्ति के 'मध्यमकावतार' को लेते हुए परम पावन ने उपलब्ध समय के भीतर ग्रंथ का पूर्ण मौखिक संचरण के अपने उद्देश्य की घोषणा की। उन्होंने कहा कि यद्यपि वे विगत वर्ष छठे अध्याय तक पहुंचे थे, परन्तु एक युवा भूटानी लामा, जंगटुल रिनपोछे की उपस्थिति के कारण, जिन्होंने यह ग्रंथ पहले नहीं सुना है, वे पुनः आरंभ करना चाहते थे। उन्होंने उल्लेख किया कि उन्हें लिंग रिनपोछे से इस ग्रंथ का व्याख्यात्मक संचरण प्राप्त हुआ।
संस्कृत और तिब्बती में शीर्षक से आरंभ करते हुए, परम पावन ने निरंतर ग्रंथ का पाठ किया और यहां वहां स्पष्टीकरण टिप्पणियों के लिए रुके। सत्र समाप्त करने से पूर्व उन्होंने पाठ में वर्णित दार्शनिक पदों की अच्छी तरह से जांच और विश्लेषण करने का सुझाव दिया। उन्होंने सुझाया कि विभिन्न बिंदुओं पर व्यापक परिप्रेक्ष्य लेने से व्यापक और दृढ़ समझ मिलती है।
अध्याय छः का ११९ छंद, जहां परम पावन सत्र की समाप्ति के लिए रुके का कथन है:
अपने विश्वास से मोह,
दूसरे के दृष्टिकोण से घृणा: यह सब विचार है
एक बार कारण और विश्लेषण से,
ग्राह्यता और घृणा दूर हो जाए, हम त्वरित मुक्त हो जाएंगे।
मंदिर से निकलकर और इसके साथ लगे गलियारे में अपेक्षाकृत तेज गति से चलने के बाद परम पावन उन तक पहुंचने का प्रयास करते लोगों का अभिनन्दन करने के लिए मंदिर की सीढ़ियों के नीचे रुके। उन्होंने अभिनन्दन में हाथ हिलाया, सिरों को सहलाया, यहां वहां कुछ शब्द कहे साथ ही उनके समक्ष प्रस्तुत किए गए जप मालाओं को आशीर्वचित किया और उसके बाद गाड़ी में चढ़ गए, जो उन्हें उनके निवास ले जाने वाली थी। प्रवचन कल जारी रहेगा।