थेगछेन छोलिंग, धर्मशाला, हि. प्र. धर्मशाला के मुख्य तिब्बती मंदिर चुगलगखंग का प्रांगण लोगों, तिब्बतियों और अन्य व्यक्तिओं, से खचाखच भरा था जो आज प्रातः परम पावन दलाई लामा को सुनने के लिए एकत्रित हुए थे। परम पावन का उनके निवास से मंत्रोच्चारण करते भिक्षुओं के हृदय को स्पर्श करने वाले स्वरों के साथ सिंहासन तक अनुरक्षण किया गया, जो मंदिर के नीचे एक विशाल समारोहीय छत्र की छाया में स्थापित किया गया था। परम पावन द्वारा अपना स्थान ग्रहण करने के उपरांत हृदय सूत्र का पाठ किया गया, जब चाय तथा मीठे चावल प्रस्तुत किए जा रहे थे।
देवों, असुरों और अन्य लोगों को उनके प्रवचन हेतु आह्वान करने के उपरांत परम पावन ने नागार्जुन का श्लोक भी दोहराया
"उस गौतम को वंदन
जिसने अपनी करुणा से
सभी दृष्टियों के प्रहाण हेतु
सद्धर्म का उपदेश दिया।"
उन्होंने प्रारंभ किया, "आज ऋद्धियों का दिवस है, जो लगभग ६०० वर्षों से ल्हासा में आयोजित प्रणिधान दिवस के अंग के रूप में मनाया जाता है। यह बुद्ध के जीवन के उस अवसर की स्मृति चिह्न के रूप में मनाया जाता है जब उन्होंने अन्य तपस्वियों को ऋद्धि पराक्रमों के प्रदर्शन में पराजित किया था।
"ईश्वर हो या मानव हम सभी सुख चाहते हैं और सुख का मूल चित्त में है। मुक्ति के लिए कुछ समय लग सकता है, पर हम सभी को चित्त की शांति मिल सकती है यदि हम इसकी ओर यहाँ और इस समय ध्यान दें। यहाँ तक कि जानवर भी जब वे खतरे में नहीं होते तो चैन व शांति से रहते हैं। हमें जो विचलित करता है वह क्रोध, भय व शंका है। यह हमारे चित्त की उच्छृखंलता है जो हमें दुखी करता है। प्राचीन भारतीय परम्परा ने देखा कि ऐन्द्रिक सुख को विकसित करने के बजाय क्लेशों से निपटना अधिक महत्वपूर्ण था। बुद्ध जल से पाप व क्लेशों को नहीं धोते, वे हमें दिखाते हैं कि तथता को किस तरह तथता के रूप में समझा जाए - इसी तरह हम उन पर काबू पा सकते हैं।
"हमारी प्रवृत्ति वस्तुओँ को स्वतंत्र अस्तित्व लिया हुआ देखने की होती है, और जब वे आकर्षक होते हैं तो हम उन पर आसक्त हो जाते हैं। पर जब किसी न किसी रूप में उन तक हमारी पहुँच बाधित होती है तो हमें क्रोध आता है। अमेरिकी मनोवैज्ञानिक हारून बेक ने मुझे समझाया कि लोगों को देखकर, जिन्हें उन्होंने क्रोध के बंदी के रूप में वर्णित किया, उन्होंने देखा कि वे अपने क्रोध की वस्तु को पूर्णतया नकारात्मक रूप से देखते हैं। परन्तु उनका यह मानना था कि इस प्रतिक्रिया का ९०% उनके स्वयं का मानसिक प्रक्षेपण था। नागार्जुन ने इसी तरह कहा था कि कर्म तथा क्लेश जो हमारी धारणात्मक अति से जन्म लेते हैं, उनका निर्मूल मुक्ति की ओर ले जाता है। अज्ञान भ्रांत धारणा और अतिशयोक्ति का मिश्रण है। और यह प्रतीत्य समुत्पाद जैसी अंतर्दृष्टि के कारण है कि बुद्ध ने चित्त से संबंधित जो कहा उसमें आज वैज्ञानिक रुचि ले रहे हैं।"
परम पावन ने समझाया कि बुद्ध ने प्रबुद्धता प्राप्त करने के तुरंत बाद देशना नहीं दी, क्योंकि उन्होंने चिंतन किया कि उन्होंने जो अनुभूत किया था उसे कोई समझ नहीं पाएगा। परन्तु समय के साथ उन्होंने चार आर्य सत्यों की प्रकृति, प्रकार्य तथा परिणामों की शिक्षा दी।
"हम उस दृश्य से ग्राह्यता रखते हैं कि वस्तुएँ स्वतंत्र रूप से अस्तित्व रखती हैं, एक ऐसा विकृत दृष्टिकोण जिसका प्रतिकार बुद्ध ने तर्क से किया", उन्होंने कहा। मानव प्रकृति करुणाशील है, जो हमारी माताओं द्वारा हमारे प्रति अभिव्यक्त प्रेम में निहित है, जिसके बिना हम जीवित न रह पाएंगे। पर फिर भी विश्व संघर्ष और समस्याओं से भरा हुआ है जो तब होती हैं जब हम क्रोध और मोह से अभिभूत होते हैं। सार्वभौमिक मूल्यों पर आधारित धर्मनिरपेक्ष शिक्षा इसकी त्रुटियों को बेहतर ढंग से समझने में हमारी सहायता कर सकती है। दूसरी ओर, बुद्ध ने शिक्षा दी कि हम शून्यता पर ध्यान द्वारा यथार्थ के विषय में अपने दृष्टिकोण को चुनौती देकर कर्म और क्लेशों को समाप्त कर सकते हैं।
परम पावन ने आगे कहा, "हमें यह जानने की जरूरत है कि बुद्ध कौन हैं, इसका अर्थ यह नहीं है कि उनके शरीर के प्रमुख और गौण लक्षणों की पहचान करने में सक्षम हों, अपितु उनकी शिक्षा को समझना है। हम जितना अधिक अपने आप को उनकी शिक्षा से परिचित कराएँगे, हम उतना ही अधिक इसकी सराहना कर पाएँगे कि यह कितना वैज्ञानिक है।
"बुद्ध ने अलग-अलग समय पर लोगों के विभिन्न समूहों को विभिन्न शिक्षा दी। सर्वप्रथम उन्होंने चार आर्य सत्यों को समझाया। द्वितीय धर्म चक्र प्रवर्तन में उन्होंने प्रज्ञा पारमिता को व्याख्यायित किया और तृतीय में उन्होंने तथागतगर्भ की शिक्षा दी। चार आर्य सत्य में नैरात्म्य का एक मोटे रूप में उल्लेख शामिल है, जो प्रज्ञापरामिता अधिक सूक्ष्म रूप से व्याख्ययित करता है। 'संधिनिर्मोचन सूत्र’, जो तृतीय धर्म चक्र प्रवर्तन का अंग है, में उन्होंने स्पष्ट किया कि उन्होंने अपने श्रोताओं के विभिन्न मानसिक प्रकृति के अनुसार शिक्षा दी थी।
"मूलतः बुद्ध ने शिक्षा दी कि किस तरह चित्त का शोधन किया जाए जिसमें तर्क तथा कारण का उपयोग शामिल है। अपने विकृत विचारों को देखकर हम अपने क्लेशों में प्रवेश कर सकते हैं। जैसे हम शारीरिक स्वास्थ्य की संहिता का पालन कर अपने स्वास्थ्य को सुरक्षित रखते हैं, हमें यहाँ और इसी समय चित्त की शांति प्राप्त करने और बनाए रखने के लिए मानसिक स्वच्छता की भावना को अपनाने की आवश्यकता है।"
इस पर टिप्पणी करते हुए कि इस दिन बुद्ध स्मृति को मनाने की परम्परा में बुद्ध की पूर्व जन्मों की कथाओं, जातक कथाओं में से एक को पढ़ना शामिल है, परम पावन ने कहा कि संग्रह आर्यशूर, जो अश्वघोष के रूप में जाने जाते हैं, द्वारा संकलित किया गया था, वे आर्यदेव के छात्र थे, जो नागार्जुन के शिष्य थे। आज की कथा का संबंध एक महान, निस्वार्थ खरगोश से है, जो जंगल में रहता था, जो अन्य जानवरों जिनमें ऊदबिलाव, गीदड़ और खासकर एक बंदर शामिल थे, का नेतृत्व सदाचार का मार्ग पर चलते हुए करता था।
जातक कथा का प्रारंभ करने के उपरांत परम पावन ने यह भी घोषणा की कि वे जे चोंखापा की 'प्रतीत्य समुत्पाद स्तुति' भी पढ़ना चाहेंगे जिसका संचरण उन्हें किन्नौरी लामा, रिगज़िन तेनपा से प्राप्त हुआ था। इसका प्रारंभ बुद्ध की वंदना से होता है जिन्होंने प्रतीत्य समुत्पाद को जाना और उसकी देशना दी। इसी के आधार पर हम यथार्थ के संबंध में अपनी भ्रांत दृष्टि पर काबू पा सकते हैं, जो हमारे क्लेशों का मूल है। परम पावन ने बल देते हुए कहा कि ये क्लेश चित्त की प्रकृति नहीं है। उन्होंने टिप्पणी की , कि द्वितीय धर्म चक्र प्रवर्तन का संबंध शून्यता से है जो कि वस्तुनिष्ठ प्रभास्वरता है जबकि तृतीय धर्म चक्र प्रवर्तन का संदर्भ विषय निष्ठ प्रभास्वरता, वह सूक्ष्म चित्त जो शून्यता की अनुभूति में व्यवहृत होता है, से है। स्पष्टता और जागरूकता का यह चित्त तंत्र के अभ्यास का आधार है। सभी तिब्बती बौद्ध परम्पराएँ चित्त की प्रकृति को समझने के महत्व पर बल देती हैं।
छंदों का पाठ करते हुए परम पावन स्पष्टीकरण तथा देखने के लिए रुके। प्रतीत्य समुत्पाद की समझ से हमें अज्ञानता, जो प्रतीत्य समुत्पाद के द्वादश श्रृंखला की प्रथम कड़ी है, जिसमें कार्य कारण नियम का न समझना या वस्तुएँ किस तरह से हैं उनके प्रति अज्ञान शामिल है, पर काबू पाने में सहायता मिलती है। उन्होंने कहा कि 'प्रतीत्य' शाश्वतवाद की अति का प्रतिकार करता है, जबकि 'समुत्पाद' उच्छेदवाद का प्रतिकारक है। हम जानते हैं कि वस्तुओं का अस्तित्व है क्योंकि वे हमें प्रभावित करती हैं, पर उनका अस्तित्व मात्र ज्ञापित रूप से है । प्रतीत्य समुत्पाद को स्पष्ट करते हुए परम पावन ने उल्लेख किया कि परिणाम का अस्तित्व उसके कारण पर निर्भर होकर होता है, पर हम यह भी कह सकते हैं कि कुछ मात्र कारण है क्योंकि उसका परिणाम है। पूर्ण तथा उसके अंगों के बीच इसी तरह का एक संबंध है।
"भारत में तर्क का अध्ययन प्रचलित था और हमने तिब्बत में उस परम्परा को निरंतर रखा है," परम पावन ने ग्रंथ के अंतिम भाग पर पहुँचते हुए कहा। "भारतीय बौद्ध साहित्य के महान ग्रंथों को भोट भाषा में अनूदित किया गया, जिससे भोट भाषा समृद्ध हुई, जो अब ऐसी भाषा है जिसमें बौद्ध विचारों को सटीक रूप से व्यक्त किया जा सकता है। तिब्बत में हमने जिस बौद्ध परम्परा को जीवंत रखा है वह विश्व के लिए एक निधि के समान है, यह हमारे लिए एक गौरव का विषय है।
"तिब्बत में राजनीतिक विखंडन के बाद भी, कांग्यूर और तेंग्यूर संग्रह एकता और सद्भाव का स्रोत थे। वे तिब्बत के तीनों प्रांतों में पाए गए और उन्हें तिब्बत के साथ मंगोलिया और लद्दाख जैसी पास के क्षेत्रों में भी सम्मानित किया गया। यद्यपि मैं उच्च शिक्षित नहीं हूँ, पर मैं इस बात की सराहना कर सकता हूँ कि इस साहित्य में ज्ञान है जो व्यापक संवाद में योगदान दे सकता है। उदाहरणार्थ क्वांटम भौतिकी का दृष्टिकोण, कि वस्तुओं का कोई वस्तुनिष्ठ अस्तित्व नहीं है, वह चित्त मात्र परम्परा के विचारों के साथ प्रतिध्वनित होता है। अंतर यह हो सकता है कि हमारी परम्परा में हम अपनी समझ का उपयोग , कि वस्तुएँ कैसी हैं, चित्त शोधन हेतु उपयोग में लाने का प्रयास कर सकते हैं जो क्वांटम भौतिक विज्ञानी संभवतः न करें।
"जे चोंखापा ने जो सीखा उसे अभ्यास में व्यवहृत किया। हमने भी जो सीखा है उसे अपने चित्त में एकीकृत करना होगा। हमें अध्ययन और चिंतन करने की आवश्यकता है ताकि हमारी आस्था कारण पर आधारित हो। पहले नमज्ञल विहार, ज्ञूतो और ज्ञुमे के दो तांत्रिक महाविद्यालयों तथा श्रमणेरी विहारों ने दार्शनिक ग्रंथों के अध्ययन की ओर ध्यान न दिया था, परन्तु मेरे आग्रह पर उन्होंने उनका अध्ययन प्रारंभ किया है जिसके अच्छे प्रभाव हुए हैं। इन भिक्षुओं और श्रमणेरियों ने आगामी पीढ़ियों के लिए एक उज्ज्वल उदाहरण प्रस्तुत किया है।"
परम पावन के सिंहासन से उतरते समय परिणामना की प्रार्थनाओं का पाठ हुआ। वे फिर मार्ग में मुस्कुराते हुए जनमानस में मित्रों व शुभचिंतकों का अभिनन्दन करते हुए अपने निवास लौट गए।