मुंबई, महाराष्ट्र, भारत, मुम्बई के केंद्रीय उपनगर में स्थित सोमैय्या विद्याविहार में गाड़ी से जाते हुए लगातार तीसरे दिन की प्रातः परम पावन दलाई लामा जब पहुँचे तो सर्वप्रथम उनसे वर्तमान अध्यक्ष समीर सोमैय्या के पिता और संस्थापक डॉ शांतिलाल सोमैय्या की प्रतिमा का अनावरण करने का अनुरोध किया गया। निकट परिवार के सदस्यों की उपस्थिति में उन्होंने बैठी हुई मुद्रा में प्रतिमा का उद्घाटन किया।
तत्पश्चात उनका एक बड़े शामियाने के नीचे बने मंच पर अनुरक्षण किया गया जहाँ वे अनुमानित २००० लोगों के लिए व्याख्यान देने वाले थे। नम्रता महाबल ने औपचारिक रूप से उनका स्वागत किया। परम पावन ने अपना आसन ग्रहण किया तथा प्रारंभ किया।
"प्रिय आदरणीय बड़े भाइयों और बहनों, साथ ही छोटे भाई और बहनों। मुझे इस तरह से प्रारंभ करना अच्छा लगता है क्योंकि मेरा मानना है कि आज जीवित सभी ७ अरब मानव हमारे भाई बहन हैं - ये सभी हमारे प्रेम और करुणा के योग्य हैं।
"इस समय हम यहाँ शांतिपूर्वक आनंद ले रहे हैं, पर इसी ग्रह पर कहीं और हमारे जैसे अन्य लोग हिंसक रूप से मर रहे हैं और बच्चे भुखमरी का शिकार हो रहे हैं। प्राकृतिक आपदा हमारे नियंत्रण से बाहर हैं, परन्तु मानव निर्मित समस्याएँ हैं जिनका समाधान करना हमारा उत्तरदायित्व है। उनका जन्म होता है क्योंकि हम विनाशकारी भावनाओं के प्रभाव में बह जाते हैं।
"मैं जिनसे भी मिलता हूँ, उन्हें मैं एक भाई या बहन के रूप में देखता हूँ। यदि हम दूसरों को 'हमें' और 'उन' के संदर्भ में देखने के बजाय, उनके प्रति सौहार्दता का विकास करें तो वह ऐसा आत्मविश्वास लाता है, जो ऐसी पारदर्शिता प्रेरित करता है जो विश्वास की ओर की ओर ले जाता है। विश्वास अपने स्थान पर मैत्री का आधार है - सच्ची, विश्वसनीय मैत्री जो दृढ़ होती है फिर चाहे कुछ हो जाए।
"वैज्ञानिकों ने ऐसे प्रयोग किए हैं जो दिखाते हैं कि घायल जानवरों के निकट यदि कोई देखभाल करने वाला साथी हो तो वे शीघ्र ठीक हो जाते हैं, इसके बजाय कि जब यदि उन्हें अकेला छोड़ दिया हो। साहचर्य तथा दूसरों के लिए सोच चित्त की शांति प्रदान करती है, जिस पर हम निर्भर रह सकते हैं जब हमें कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। जब हम क्रोध या मोह से व्याकुल होते हैं तो हमारे लिए बुद्धि का स्पष्ट रूप से प्रयोग कठिन हो जाता है। यह महत्वपूर्ण है क्योंकि एक अवास्तविक दृष्टिकोण अपनाने से सफलता प्राप्त नहीं होती।
"हम सभी को समस्याओं का सामना करना पड़ता है, पर हम किस तरह उनसे निपटते हैं यह हमारे मानसिक व्यवहार पर निर्भर करता है।"
परम पावन ने समझाया कि विनाशकारी भावनाओं से किस तरह निपटा जाए को लेकर उनकी समझ प्राचीन भारतीय ज्ञान, विशेष रूप से बौद्ध परम्पराओं तक जाती है जो नालंदा पंडित शांतरक्षित ८वीं शताब्दी में तिब्बत लेकर आए। तिब्बतियों ने इस ज्ञान को एक हजार से अधिक वर्षों से अध्ययन और अभ्यास से जीवित रखा है। उन्होंने टिप्पणी की कि विगत २००० वर्षों में बुद्ध के संदेश के अंग के रूप में करुणा और अहिंसा की भारतीय परंपराओं को एशिया भर में विस्तारित किया गया।
"मेरा मानना है कि हमें प्राचीन भारतीय ज्ञान की अंतर्दृष्टि के साथ आधुनिक शिक्षा को जोड़ने की आवश्यकता है। मेरा मानना है कि चित्त तथा भावनाओं का प्रकार्य सम्प्रति विश्व में बहुत प्रासंगिकता रखता है। इसीलिए मैं इस देश में इस प्राचीन ज्ञान को पुनर्जीवित करने के लिए प्रतिबद्ध हूँ।
"मैं अपने आप को 'भारत के पुत्र' के रूप में वर्णित करता हूँ क्योंकि मेरे मस्तिष्क की प्रत्येक कोशिका नालंदा विचार से पूरित है, जबकि विगत ५८ वर्षों से मेरा शरीर भारतीय चावल, दाल और रोटियों द्वारा पोषित हुआ है। और तो और, मैं इस देश की सम्पन्न विविधता का प्रशंसक हूँ जो इस देश में पनपती है तथा भारतीय धार्मिक सद्भाव की स्थिरता का आधार है।
"एक मनुष्य के रूप में, मैं सौहार्दता प्रोत्साहित करने हेतु प्रतिबद्ध हूँ। एक बौद्ध भिक्षु के रूप में मैं धार्मिक सद्भाव को पोषित करने के लिए प्रतिबद्ध हूँ, एक तिब्बती और एक व्यक्ति के रूप में, जिस पर साठ लाख तिब्बतियों ने अपनी आशा और विश्वास रखा है, मुझे उनके हित को लेकर एक गहन चिंता है। मैं राजनीतिक उत्तरदायित्वों से सेवानिवृत्त हो चुका हूँ और मैंने भविष्य में किसी भी दलाई लामा द्वारा स्वयं को राजनीति में शामिल करने पर रोक लगा दी है। मेरा ध्यान अब तिब्बती भाषा और संस्कृति के संरक्षण और तिब्बती पठार पर प्राकृतिक वातावरण की सुरक्षा पर है।
"पर साथ ही मैं इस बात को लेकर सावधानी बरतता हूँ कि पश्चिम में बौद्ध शिक्षण का प्रचार न हो, उदाहरण के लिए, जहाँ बड़ी संख्या में ज्यूदो-ईसाई परम्परा है। जहाँ एक ओर मैं ईसाइयों द्वारा समूचे विश्व में शिक्षा के प्रसार में किए गए कार्य की सराहना करता हूँ, यदा - कदा जैसे कि मैंने मंगोलिया में देखा है, वे मिशनरी गतिविधियों में भी संलग्न होते हैं और ईसाई धर्म में धर्मातंरण करने वाले लोगों की खोज में रहते हैं, जिससे मैं सहमत नहीं हूँ।
"मेरी नवीनतम प्रतिबद्धता भारत में प्राचीन भारतीय ज्ञान को पुनर्जीवित करना है। कृपया मैंने जो कहा है, उस पर चिन्तन करें, पर यदि आप पाएँ कि इसमें आपकी कोई रुचि नहीं है तो इसे भूलना ठीक है। किसी पर भी कुछ भी थोपना मेरा उद्देश्य नहीं है धन्यवाद।"
श्रोताओं की ओर से पूछे गए प्रश्नों के उत्तर में, परम पावन ने दोहराया कि आधारभूत मानव प्रकृति करुणाशील है। यही कारण है कि यदि आपके पड़ोसी के घर में आग लगी हो तो आप उसे बुझाने में आप उसकी सहायता करते हैं।
उन्होंने उल्लेख किया कि इस समय शस्त्रों के उत्पादन और बिक्री के लिए बहुत अधिक ऊर्जा और संसाधन खर्च किया जा रहा है।
परम पावन धार्मिक सद्भाव विषय पर लौट आए और वे भारत की इस तरह प्रशंसक है जो यह दिखाता है कि किस तरह इसे प्राप्त करना संभव है। उन्होंने बताया कि उन्होंने भारत सरकार से बार-बार बुद्ध जयंती, जिसका प्रारंभ १९५९ में हुआ था, के प्रारूप पर एक अंतर्राष्ट्रीय धार्मिक सम्मेलन आयोजित करने का अनुरोध किया है। प्रतिनिधियों के बीच विचार-विमर्श के बाद, वे उन्हें एक दूसरे के पूजास्थल की तीर्थयात्रा करता देखना चाहेंगे।
आत्मन तथा तथागत गर्भ के बीच अंतर के बारे में प्रश्न किए जाने पर परम पावन ने बेंगलुरु में एक अच्छे स्वामी के साथ हुए संवाद का स्मरण किया। वे सहमत थे कि हिंदू और बौद्ध परंपरा में शील, समाधि और प्रज्ञा का अभ्यास आम है, जो दोनों परम्पराओं को जुड़वा भाइयों की तरह बनाती है। उन्होंने सुझाया कि जहाँ स्वामी को उनके आत्मन का विचार उपयोगी लगता है, परम पावन अपने लिए अनात्मन का विचार अधिक उपयोगी पाते हैं। यद्यपि लोग जो चयन वे करते हैं वह उनका निजी मामला है। उन्होंने सलाह दी कि जिस तरह कुछ लोग मिठाई पसंद करते हैं जबकि दूसरों को नमकीन अधिक अच्छा लगता है - इस पर तर्क करने में कोई सार्थकता नहीं है।
परम पावन ने वीर सिंह और समीर सोमैय्या को तीन दिन के कार्यक्रम के आयोजन के लिए धन्यवाद देकर अपने व्याख्यान को विराम दिया। प्रत्युत्तर में समीर सोमैय्या ने उन्हें आने के लिए धन्यवाद ज्ञापित किया।
परम पावन के होटल जाने से पूर्व मनीषा अभय और उनके समूह ने अवलोकितेश्वर को समर्पित पारम्परिक भारतीय नृत्य प्रदर्शन प्रस्तुत किया। कल परम पावन कर्नाटक में मुंडगोड तिब्बती आवास की यात्रा करेंगे।