बायलाकुप्पे, कर्नाटक, भारत, आज प्रातः तड़के ही जब परम पावन दलाई लामा सेरा-मे महाविहार पहुँचे तो उपाध्याय, गदेन सिंहासन धारक, पूर्व गदेन सिंहासन धारक, शरचे और जंगचे धर्माधिपतियों और सिक्योंग ने उनका स्वागत किया। कुछ खिले चेहरे लिए तिब्बती बच्चे भी पारम्परिक वेशभूषा में दूध के पात्र तथा अनाज व सत्तू के साथ उनका पारम्परिक रूप से स्वागत करने की प्रतीक्षा कर रहे थे। परम पावन ने चुटकी भर सत्तू ली, दूध में अपनी उंगली डुबोई, बच्चों के साथ ठिठोली की तथा सौहार्दपूर्ण भाव से हँसे।
नूतन शास्त्रार्थ प्रांगण और विज्ञान केंद्र के प्रवेश द्वार पर उन्होंने फीता काटा और मांगल्य हेतु वायु में अनाज को छिड़कते हुए मंगल छंदों का पाठ किया। उन्होंने प्रांगण के शीर्ष पर मंच पर रखे विशाल नवनीत दीप के मध्य बाती को प्रज्ज्वलित किया तथा सिंहासन पर अपना आसन ग्रहण किया।
अपने स्वागत भाषण में, सेरा-मे महाविहार के उपाध्याय ने बताया कि २०१२ में जब परम पावन डेपुंग लोसेललिंग में निवास कर रहे थे तो उन्होंने उनसे उस समय विहार द्वारा शास्त्रार्थ प्रांगण को लेकर हो रही कठिनाइयों के बारे में अवगत कराया था। ग्रीष्म काल में भिक्षुओं को तपते सूरज और वर्षा काल में बारिश झेलना पड़ता था। परम पावन ने परियोजना के लिए बीज राशि प्रदान की और उन्होंने योजना शुरू की, जिसके परिणामस्वरूप वर्तमान संरचना अब पूर्ण हो गई है। उन्होंने दाताओं और जिन्होंने निर्माण में योगदान दिया था, उन लोगों को धन्यवाद दिया और अनुरोध किया कि हर किसी ने जो पुण्य संभार किया है वह परम पावन की दीर्घायु और भिक्षु जो नई सुविधा का उपयोग करेंगे उनके अध्ययन की सफलता के लिए समर्पित करें।
मुख्य अतिथियों में से एक जगद्गुरु श्री शिवरात्रि ने परम पावन को एक दुशाला, हार व पगड़ी समर्पित किया। उन्होंने तिब्बतियों द्वारा प्राचीन भारतीय ज्ञान को जीवित रखने की सराहना की और शास्त्रार्थ में कारण व तर्क के उनके उपयोग की प्रशंसा की। उसके बाद निर्वासन में तिब्बती संसद के अध्यक्ष खेनपो सोनम तेनफेल ने निर्वासन में तिब्बत की भाषा और संस्कृति के संरक्षण हेतु कदम उठाने में परम पावन की दूरदर्शिता की प्रशंसा की। यह दृष्टि भारत सरकार साथ ही कर्नाटक जैसे राज्यों की सरकार द्वारा समर्थित थी।
सिक्योंग लोबसंग संगे ने अपने सह अतिथियों का अभिनन्दन किया। उन्होंने १९६३ में आवासों के प्रारंभ, १९७४ में महाविहारों की स्थापना, साथ ही १९८९ में विस्तार और २००२ में सेरा-मे सभागार के पुनर्निर्माण का स्मरण किया। उन्होंने कहा कि इस शास्त्रार्थ प्रांगण का उद्घाटन विकास की एक स्थिर प्रक्रिया में अगला चरण है।
भोट भाषा में अपने भाषण में उन्होंने यह भी कहा कि दस वर्ष बीत चुके हैं जब से महाविहार को दोलज्ञल से संबंधित विवाद का समाधान करना पड़ा। उन्होंने महाविहार के अधिकारियों को बधाई दी कि उन्होंने परम पावन से सलाह ली और अधिकांश भिक्षुओं को उन लोगों से अलग किया जो इस अभ्यास को छोड़ना नहीं चाहते थे। श्रोताओं ने हर्षपूर्ण करतल ध्वनि की। उन्होंने आगे कहा कि परम पावन सभी धार्मिक परंपराओं के बीच सामंजस्यपूर्ण संबंधों को प्रोत्साहित करते हैं।
उन्होंने निर्वासन में तिब्बतियों के बीच, हिमालय के क्षेत्रों, तिब्बत और चीन में नालंदा परंपरा को पुनर्स्थापित करने, साथ ही साथ भारत में प्राचीन भारतीय ज्ञान में रुचि को पुनर्जीवित करने हेतु परम पावन के दृष्टिकोण को रेखांकित किया।
श्री श्री श्री निर्मलानंदनाथ स्वामीजी ने परम पावन के प्रेरणादायी नेतृत्व की प्रशंसा की। उन्होंने उल्लेख किया कि इतने सारे भिक्षुओं को एकत्रित देखना कितना प्रेरणादायी था।
परम पावन ने विभिन्न प्रतिष्ठित अतिथियों का अभिनन्दन किया और अपने विचार साझा करने के लिए पूर्व वक्ताओं को धन्यवाद दिया। उन्होंने माना कि चित्त व भावनाओं के प्रकार्य की भारत की समझ शमथ व विपश्यना के अभ्यास से के अनुभव से विकसित हुई है, जो बुद्ध के प्रकट होने से पूर्व ही अस्तित्व में थी। वास्तव में बुद्ध उन परम्पराओं में संलग्न थे, जब वे दृढ़ भाव से बोधि वृक्ष के नीचे बैठे और ध्यान लगाया।
परम पावन ने श्रोताओं को भारत में प्रचलित धार्मिक सद्भावना के प्रति उनकी सराहना का स्मरण कराया, जो उनके अनुसार एक उदाहरण है जिसका अन्य लोग अनुसरण कर सकते हैं और आगे कहा कि वे स्वयं को प्राचीन भारतीय ज्ञान का संदेशवाहक मानते है। उन्होंने ध्यानाकर्षित किया कि बुद्ध की सलाह कि वे शंकाकुल बने रहें और जो उन्होंने कहा उसका उचित रूप से परीक्षण और विश्लेषण करने के बाद ही स्वीकार करें, अद्वितीय थी। उन्होंने कहा हमारे ज्ञान के विस्तार की कुंजी हमारी मानवीय बुद्धि को पूरी तरह से काम में लाना है।
जब उन्होंने दो स्वामियों को बुद्ध की एक मूर्ति प्रदान की और उन्होंने उनसे कहा कि यद्यपि बुद्ध बौद्ध धर्म के संस्थापक थे, परम पावन उन्हें न केवल मात्र एक गहन विचारक और दार्शनिक के तौर पर अपितु एक वैज्ञानिक भी मानते हैं।
सेरा-मे के अनुशासन प्रबंधक के अतिथियों, दानकर्ताओं और उन सभी, जिन्होंने निर्माण कार्य में योगदान दिया था, के प्रति धन्यवाद ज्ञापन ने उद्धाटन समारोह का समापन किया।
"सेरा-मे उपाध्याय ने मुझसे इस अवसर पर एक प्रमुख शिक्षा देने के लिए कहा था," परम पावन ने समझाया। "परन्तु मैंने उनसे कहा कि चूँकि मैं अपनी थकान को लेकर अधिक सावधानी बरतना चाहता हूँ अतः मैं जे चोंखापा की 'प्रतीत्य समुत्पाद' पर प्रवचन दूँगा।
'विश्व में कई धार्मिक परम्पराएँ हैं, जिनमें से प्रत्येक में प्रेम और करुणा, सहिष्णुता और क्षमा, संतोष और आत्मानुशासन का संदेश सम्प्रेषित करता है। वास्तव में कुछ ईसाई भिक्षु व भिक्षुणियाँ हैं, जिन्हें मैं हमारे कई भिक्षु भिक्षुणियों की तुलना में अल्प में सन्तुष्ट होता पाता हूँ। मैं स्पेन में मॉन्स्सेराट में एक रोमन कैथोलिक भिक्षु से मिला जो एक साधु के रूप पांच वर्षों तक पहाड़ों में रोटी और चाय पर जीवित थे। जब मैंने उनसे पूछा कि वह क्या अभ्यास कर रहे थे, तो उन्होंने मुझसे कहा कि वह प्यार पर ध्यान कर रहे थे। और जब उन्होंने ऐसा कहा तो मैं उनकी आँखों में वास्तविक आनन्द की चमक देख पा रहा था।
"निस्सन्देह यद्यपि हमारी विभिन्न परम्पराओं का एक आम संदेश है, वे विभिन्न दार्शनिक स्थितियाँ रखते हैं, जो लोगों की विभिन्न आवश्यकताएँ तथा प्रकृति को प्रतिबिम्बित करते हैं।
"अपनी पहली देशना में बुद्ध ने चार आर्य सत्यों को व्याख्यायित किया जैसा कि पालि परम्परा में आता है। द्वितीय धर्म चक्र प्रवर्तन के दौरान, उन्होंने प्रज्ञा पारमिता की शिक्षा दी जिसका ब्यौरा हम संस्कृत परम्परा में पाते हैं। यह पाठ, 'प्रतीत्य समुत्पाद स्तुति', तर्क के उपयोग और प्रतीत्य समुत्पाद के संदर्भ में शून्यता को समझाते हुए बुद्ध की प्रशंसा करता है। चूँकि वस्तुएँ अन्य कारकों पर निर्भर होकर अस्तित्व रखती हैं, वे स्वभाव सत्ता से शून्य होती हैं। निर्भरता सापेक्षता प्रकट करता है - वस्तुओं को केवल अन्य कारकों पर निर्भर रखकर ज्ञापित किया जा सकता है।
"तर्क के कई बिन्दु हैं जो इसका समर्थन करते हैं, जिनमें वज्रकण और धर्मता युक्ति, जो 'न तो एक और न कई' है। प्रतीत्य समुत्पाद का तर्क उच्छेदवाद और स्थायित्व की अति से बचता है। जब नागार्जुन उन चीजों को मात्र ज्ञापित रूप में संदर्भित करते हैं जो प्रतीत्य समुत्पादित हैं तो वे केवल मध्यमक दृष्टिकोण का संकेत दे रहे हैं। यही आप पाते हैं जब आप उनकी रचना 'प्रज्ञा ज्ञान मूल मध्यमक कारिका' पढ़ते हैं, जो बताता है कि वस्तुएँ स्वभाव सत्ता से रहित होती हैं।
"दुख के मूल में अज्ञान है और बुद्ध ने अज्ञान को समाप्त करने हेतु शून्यता की शिक्षा दी। बुद्ध की सभी शिक्षाएँ प्रतीत्य समुत्पाद से प्रवाहित हैं जिसको प्राप्त करना सरल नहीं है। जे चोंखापा की प्रारंभिक रचनाएँ जैसे अभिसमयालंकार की कारिका 'स्वर्णमाला' प्रकट करती हैं कि उस बिन्दु तक वे शून्यता की अंतिम समझ तक नहीं पहुँचे थे।
"प्रतीत्य समुत्पाद की स्तुति' का व्याख्यात्मक संचरण दुर्लभ है, पर मैंने इसे किन्नौरी शिक्षक गेन रिगज़िन तेनपा से प्राप्त किया, जिन्हें यह खंगसर दोर्जे छंग से मिला था। मेरे एक अन्य शिक्षक ङोडुब छोगञी इसमें विशेष रुचि रखते थे।"
परम पावन लगातार ग्रंथ का पाठ करते रहे और अपने पाठ को व्याख्यात्मक टिप्पणियों के साथ स्पष्ट किया। उन्होंने, जो लोग अधिक जानना चाहते थे उन्हें प्रोत्साहित किया कि वे नागार्जुन की मूलमध्यमकारिका' का अध्याय १८ और २४ पढ़े। उन्होंने 'शून्यता सप्तति' और 'युक्तिषष्टिक कारिका' के लिए भी अपनी सराहना व्यक्त की। जब वह अंत तक पहुँचे तो परम पावन ने टिप्पणी की, कि एक बालक के रूप में वह एक ही प्रातः में इस पाठ को कंठस्थ करने में सक्षम थे और अब वे दूसरों को भी कंठस्थ करने और उसका पाठ करने का आग्रह करते हैं।
परम पावन से सेरा- मे महाविहार द्वारा प्रकाशित नागार्जुन की 'मूलमध्यमकारिका' के एक नए संस्करण और भोट भाषा में इसकी कारिका के विमोचन का अनुरोध किया गया। उन्होंने प्रत्येक को उद्घाटन तथा प्रवचन में भाग लेने हेतु आने के लिए धन्यवाद ज्ञापित किया। जिस तरह विहारीय भिक्षु अपने अध्ययन को लेकर प्रतिबद्ध हैं, उन्होंने सुझाया कि ऐसा कोई कारण नहीं कि साधारण लोग भी अध्ययन न करें। बौद्ध धर्म मात्र आस्था के बारे में नहीं है, अपितु एक समझ तक पहुँचना है जिसके लिए आवश्यक है कि हम अपनी बुद्धि का उपयोग करें।
इस अवसर का समापन परम पावन द्वारा रचित 'बुद्ध की शिक्षाओं के फलने फूलने के लिए प्रार्थना' के पाठ के साथ सम्पन्न हुआ जिसके बाद अतिथियों को मध्याह्न के भोजन के लिए आमंत्रित किया गया।