नई दिल्ली, भारत, १० अगस्त २०१७ - आज प्रातः जब परम पावन दलाई लामा सिरी फोर्ट सभागार पहुँचे और मंच पर उनका अनुरक्षण किया गया तो उनका स्वागत एसोसियेशन ऑफ ब्रिटिश स्कॉलर्स (एबीएस) की स्वागत समिति ने किया। एबीएस एक राष्ट्रीय मंच है, जो उन भारतीयों को नेटवर्किंग की सुविधा प्रदान करता है जिन्होंने यूके में अध्ययन किया है और प्रशिक्षित हुए हैं। इसका उद्देश्य जानकारी साझा कर और सामाजिक, सांस्कृतिक और बौद्धिक गतिविधियों की मेजबानी कर भारत-ब्रिटेन संबंधों को सशक्त करना है।
इस कार्यक्रम का परिचय जानी मानी समाचार एंकर रिनी खन्ना ने प्रभावपूर्ण और आत्मविश्वास के भरे स्वर में दिया, जिनकी आवाज़ दिल्ली मेट्रो के यात्रियों को भी आश्वासित करती है। उन्होंने परम पावन के जीवन के कई पहलुओं को वर्णित किया और कहा कि उनके व्यक्तित्व से दया और करुणा की भावना प्रस्फुटित होती है यद्यपि वह स्वयं को सदैव एक साधारण बौद्ध भिक्षु के रूप में वर्णित करते हैं। स्वागत समिति ने फूलों की विशाल माला अर्पित की जिसने उन सभी और परम पावन को घेर लिया। परम पावन को उद्धृत करते हुए कि जीवन का उद्देश्य आनंद प्राप्ति है, एबीएस अध्यक्ष विपिन चोपड़ा ने औपचारिक रूप से उनका २००० लोगों की संख्या में उपस्थित श्रोताओं से परिचय कराया और उन्हें संबोधन हेतु आमंत्रित किया।
परम पावन ने यह समझाते हुए प्रारंभ किया कि जहाँ आम तौर पर उन्हें खड़े होकर जनमानस को संबंधित करना अच्छा लगता है, पर उन्होंने यह स्वीकार करना प्रारंभ कर दिया है कि ८२ वर्ष की आयु में उन्हें शीघ्र ही थकान का अनुभव होता है। परिणामस्वरूप उन्होंने बैठकर बोलने की अनुमति मांगी।
"भाइयों और बहनों - मुझे सदैव इसी तरह प्रारंभ करना अच्छा लगता है - आपसे बात करने का अवसर देने के लिए मैं आपका धन्यवाद करना चाहूँगा। मनुष्य के रूप में हम सभी ७ करोड़ लोग समान रूप से जन्म लेते हैं और उसी तरह मृत्यु को प्राप्त होते हैं। शारीरिक, मानसिक और भावनात्मक रूप से हम समान हैं। हम सब एक सुखी जीवन जीना चाहते हैं और समस्याओं से बचने की इच्छा रखते हैं। हम अपनी माँ के प्यार और स्नेह के आश्रय में बड़े होते हैं। कुछ वैज्ञानिक यह भी कहते हैं कि एक निश्चित अवस्था में माँ का शारीरिक स्पर्श मस्तिष्क के उचित गठन के लिए महत्वपूर्ण होता है।
"एक ओर वैज्ञानिकों ने यह निष्कर्ष निकाला है कि आधारभूत मानव स्वभाव करुणाशील है - जो मैं आशा का एक संकेत मानता हूँ। दूसरी ओर वे ध्यानाकर्षित करते हैं कि निरंतर भय, क्रोध और तनाव हमारी प्रतिरक्षा प्रणाली को दुर्बल करते हैं। वास्तविकता यह है कि हम सामाजिक प्राणी हैं जिनके लिए प्रेम और स्नेह महत्वपूर्ण कारक हैं जो हमारे सुख में योगदान देते हैं। हमें यह स्मरण रखने की आवश्यकता है क्योंकि हम एक भौतिकवादी संस्कृति में रहते हैं जो आंतरिक मूल्यों पर अधिक ध्यान नहीं देता।
"हम जिन कई समस्याओं का सामना करते हैं, हिंसा से लेकर अमीर और गरीब के बीच खाई और नियमित धमकाने और शोषण, वे हमारी अपनी बनाई हुई हैं। वे दूसरों के प्रति वास्तविक सोच की कमी और उनके अधिकारों के सम्मान के अभाव के कारण जन्म लेती हैं। आत्म-केंद्रितता, जो प्रतिस्पर्धा और ईर्ष्या का आधार है, भय, खीज और क्रोध को उकसाती है, जो बदले में हिंसा को जन्म दे सकती है। जिस तरह से हम आगे बढ़ रहे हैं यदि उसी को लेकर चलें तो उसमें एक संकट है कि २१वीं सदी इसके पूर्व की २०वीं सदी की तरह समाप्त होगी - हिंसा तथा रक्तपात का युग। उस समय इतिहासकारों का अनुमान है कि २०० अरब लोगों की हिंसक रूप से मृत्यु हुई। तो हम क्या कर सकते हैं? और अधिक प्रार्थना करें तथा और अधिक अनुष्ठान करें? हम तिब्बतियों ने ५० के दशक के प्रारंभ से ही यह किया था जिसका बहुत कम प्रभाव हुआ। हमें दृष्टि और सच्ची प्रेरणा के आधार पर कार्रवाई करने की आवश्यकता है।
"जब एक अधिक सुख और शांतिपूर्ण विश्व को लाने की बात आती है तो हमारी वर्तमान शिक्षा प्रणाली आंतरिक मूल्यों के लिए अल्प समय रखती हुई भौतिक लक्ष्यों की ओर उन्मुख होकर अपर्याप्त है। हम आंतरिक मूल्यों के लिए धर्म पर निर्भर होते थे पर आज १ अरब लोग अब धर्म में कोई रुचि नहीं दिखाते और बचे ६ अरब में भी कई लोगों की आस्था उथली है।
"इसकी जांच करने के उपरांत कि क्या है जो वास्तव में हमारे चित्त की शांति को नष्ट करता है हमें बालवाड़ी से लेकर विश्वविद्यालय तक शिक्षा के एक नए दृष्टिकोण की आवश्यकता है, जो हमें हमारी व्याकुल भावनाओं से निपटने में मार्गदर्शन कर सकता है। जिस तरह हम शारीरिक स्वास्थ्य की देखभाल करते हुए अपना स्वास्थ्य सुरक्षित रखते हैं, हमें भावनात्मक स्वच्छता को अपनाने के लिए कदम उठाने चाहिए। अपनी बुद्धि तथा सामान्य ज्ञान को को व्यवहृत कर हम अपनी विनाशकारी भावनाओं से निपट सकते हैं। यह देखना कठिन नहीं है कि किस तरह चिड़चिड़ाहट क्रोध की ओर ले जाती है। सामान्य ज्ञान हमें यह भी बताता है कि क्रोध हमारे स्वास्थ्य के लिए बुरा है।
"महिलाओं को अपने चेहरों को अधिक आकर्षक बनाने का प्रयास करना अच्छा लगता है, पर यदि आपका चेहरा क्रोध से विकृत हो जाए तो कोई उसे देखना न चाहेगा। फिर सामान्य ज्ञान हमें बताता है कि आंतरिक सौन्दर्य सौहार्दता और करुणा ही है, जो चित्त की शांति लाते हैं। प्रेम व स्नेह विश्वास का आधार हैं, जो वास्तविक मैत्री के मूल में है।"
परम पावन ने समझाया कि किस तरह ८वीं शताब्दी के तिब्बती सम्राट ठिसोंग देचेन ने प्रमुख नालंदा आचार्य शांतरक्षित को तिब्बत में आमंत्रित किया था। उन्होंने बौद्ध धर्म की नालंदा परम्परा स्थापित की, जिसमें प्रार्थना और अनुष्ठानों के स्थान पर दर्शन, मनोविज्ञान और तर्क शामिल था। इस परम्परा को एक हज़ार वर्षों से भी अधिक समय से सुरक्षित रखा गया है जबकि बाद की पीढ़ियाँ श्रमसाध्य अध्ययन में लगी हुई हैं। परम पावन ने स्पष्ट किया कि चित्त और भावनाओं के प्रकार्य, यथार्थ का आकलन तथा तर्क के उपयोग का प्राचीन भारतीय ज्ञान आज अत्यधिक प्रासंगिक है। उन्होंने अपने विचार पर बल दिया कि भारत एक ऐसा देश है जिसमें आधुनिक शिक्षा को प्राचीन भारत के ज्ञान से जोड़ते हुए आर्थिक विकास का अुनपालन करने की क्षमता है।
श्रोताओं के प्रश्नों के उत्तर देते हुए, परम पावन ने स्पष्ट किया कि क्षमा करने में सक्षम होने के लिए दूरदर्शिता और सौहार्दता आवश्यक है। उन्होंने सुझाया कि जब बच्चों के पालन पोषण की बात आती है, तो माता-पिता को उनकी संतान के प्रति कितना प्रेम व स्नेह दिखा रहे हैं या उनके साथ कितना समय बिता रहे हैं, उसे सीमित न करना चाहिए। यह पूछे जाने पर कि किस तरह प्रज्ञा प्राप्त की जाए उन्होंने उत्तर दिया "अध्ययन"। उन्होंने इस सुझाव पर सहमति व्यक्त की कि कुछ लोग करुणा और दया को दुर्बलता के लक्षण के रूप में देखते हैं। उन्होंने सुझाया कि जो लोग इस तरह सोचते हैं, वे यह भी सोचते हैं कि आपको धन अर्जित करने के लिए सख्त होना चाहिए। वे यह भी सोचते हैं कि वे जो भी करने का प्रयास कर रहे हैं क्रोध उनके लिए ऊर्जा लाता है, बिना यह सोचे कि ऊर्जा अंधी है।
उन्होंने शरणार्थी बनने और उसके साथ आई स्वतंत्रता की बात की। विशेष रूप से वे दिखावे के ढोंग से मुक्त थे, जो उन्हें कई वर्षों तक तिब्बत में चीनी अधिकारियों के साथ काम करते हुए समय बनाए रखना होता था।
एक अंतिम प्रश्नकर्ता सलाह चाहती थीं कि दूसरों को किस प्रकार प्रोत्साहित किया जाए। परम पावन ने उनसे कहा,
"५ वर्ष की आयु में मैं अपने परिवार से बिछड़ गया। १६ वर्ष की आयु में मैंने अपनी स्वतंत्रता खो दी और फिर २४ में मैंने अपना देश खो दिया। तब से ५८ वर्ष बीत चुके हैं। हमारे देश ने बहुत दुःख देखा है। ५००० से अधिक विहार तथा मंदिर नष्ट कर दिए गए हैं; एक लाख लोगों ने अपने जीवन खोए हैं। पर फिर भी इन सभी समस्याओं के लिए, शरणार्थी होने के बाद अवसर सामने आए हैं - मैंने बहुत से लोगों से भेंट की और सीखने के कई अवसर पाए। मैंने पाया कि जब आप वस्तुओं को एक व्यापक परिप्रेक्ष्य से देखते हैं तो समस्याएँ एक विभिन्न रूप ले लेती हैं।"
उन्होंने उस प्रार्थना का पाठ किया जो उनके जीवन को निर्धारित करता हैः
जब तक हो अंतरिक्ष स्थित
और जब तक जीवित हों सत्व
तब तक मैं भी बना रहूँ
संसार के दुख दूर करने के लिए।"
इस कार्यक्रम के समापन के लिए धन्यवाद ज्ञापन से पूर्व परम पावन ने घोषणा की कि वह सभागार में उपस्थित तिब्बतियों, अधिकांश युवा छात्र से भोट भाषा में बात कराना चाहते हैं। उन्होंने उन्हें बताया कि तिब्बत एक प्राचीन सभ्यता है। उन्होंने उन्हें भोट भाषा के अध्ययन के लिए प्रोत्साहित किया, जो कांग्यूर और तेंग्यूर की भाषा है, नालंदा परमपरा का साहित्य और भाषा जो तिब्बतियों को एक साथ बांधती है। उन्होंने उनसे आग्रह किया कि वे तिब्बती होने पर गौरवान्वित हों और अपनी भाषा और संस्कृति पर गर्व करें। परम पावन के कथन के उत्तर में सौहार्दपूर्ण तथा उत्साह से भरी करतल ध्वनि गूंज उठी।
अंजलि क्ववत्रा ने निमंत्रण को स्वीकार करने और विश्व के लिए शांति और करुणा का उदाहरण होने के लिए औपचारिक रूप से परम पावन के प्रति धन्यवाद ज्ञापित किया। उन्होंने इस कार्यक्रम की सफलता में योगदान देने वाले सभी लोगों के प्रति आभार व सराहना भी व्यक्त की।
जब परम पावन ने अपने होटल के लिए प्रस्थान किया तो तिब्बती सम्मानपूर्वक मार्ग पर पंक्तिबद्ध थे। कल परम पावन मुंबई की यात्रा करेंगे।