मेरठ, यूपी, भारत, - कल मध्याह्न दिल्ली पहुँचने के बाद, परम पावन दलाई लामा आज प्रातः गाड़ी से शहर के बाहर अत्यंत भीड़ भाड़ से होते हुए पड़ोसी उत्तर प्रदेश के मेरठ शहर पहुँचे। जैसे ही वे सी जे डीएवी सार्वजनिक विद्यालय पहुँचे, विभिन्न विद्यालयों के बच्चे उनका अभिनन्दन करने हेतु मार्ग पर पंक्तिबद्ध होकर खड़े थे और प्रधानाध्यापिका व वरिष्ठ कर्मचारियों ने उनका स्वागत किया।
लघु विश्राम के उपरांत, परम पावन का मंच पर अनुरक्षण किया गया जहाँ १५०० से अधिक की संख्या में शिक्षक, छात्र और उनके परिवारों के सदस्यों के एक उत्साह भरे जनमानस ने करतल ध्वनि के साथ उनकी उपस्थिति को लेकर अपनी सराहना व्यक्त की। प्रथागत दीप प्रज्ज्वलन के पश्चात, सीजे डीएवी की प्रधानाध्यापिका डॉ अल्पना शर्मा ने औपचारिक रूप से विद्यालय में परम पावन का स्वागत किया। इलाहाबाद विश्वविद्यालय के अंर्तविषयक अध्ययन के निदेशक, और झाँसी के बुंदेलखंड विश्वविद्यालय के पूर्व उप-कुलपति,प्रो अविनाश सी पांडे, ने आयुर्ज्ञान न्यास का परिचय दिया जिसके वे संस्थापक सदस्य हैं।
२०१४ में अपने परम पावन की स्वीकृति से स्थापित, आयुर्ज्ञान न्यास आधुनिक भारतीय शिक्षा प्रणाली में सार्वभौमिक नैतिकता में प्रशिक्षण प्रारंभ करने का प्रयास कर रहा है। लक्ष्य एक ऐसे पाठ्यक्रम को विकसित करना है जो जन्मजात मानवीय मूल्यों के आधार पर छात्रों के समग्र विकास को सुनिश्चित करेगा।
प्रो. पांडे ने समझाया,
"हम इस पाठ्यक्रम के साथ,बच्चे जो विश्व का भविष्य हैं, के चित्त में एक सकारात्मक परिवर्तन लाने की आशा रखते हैं।"
परम पावन ने औपचारिक रूप से पाठ्यक्रम का विमोचन किया तथा दिल्ली, गाजियाबाद, झांसी, कानपुर, मेरठ और पीलीभीत के ९ विद्यालयों के प्रधानाध्यापकों और प्रतिनिधियों को प्रस्तुत किया जिन्होंने इसकी शिक्षा को लेकर अपनी प्रतिबद्धता व्यक्त की है।
अपनी टिप्पणी में, परम पावन ने बताया कि वे ऐसा क्यों अनुभव करते हैं कि ऐसे पाठ्यक्रम की आवश्यकता है,
"जब से १९३५ में मेरा जन्म हुआ मैं अत्यधिक हिंसा का साक्षी रहा हूँ जिसमें द्वितीय विश्व युद्ध भी शामिल है। इतिहासकारों का अनुमान है कि २० वीं सदी में युद्ध के परिणामस्वरूप २०० लाख से अधिक लोग मारे गए। इस भ्रांति युक्त विचार कि समस्याओं के समाधान का उपाय बल प्रयोग है जो अपने मानव भाइयों और बहनों को 'हम' और 'उन' के संदर्भ में देखना है, का परिणाम बहुत दुःखदायी था।
"२० वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में इस तरह के चिन्तन में परिवर्तन प्रारंभ हुआ जब लोगों में शांति की इच्छा विकसित हुई। युद्ध के परिणामस्वरूप अंधा धुंध दुःखों ने उनके चित्त को खोलने में सहायता की थी। इस २१ वीं शताब्दी में, एक व्यक्ति, परिवार और राष्ट्रीय स्तर पर हमें यह समझने की आवश्यकता है कि विवादों से निपटने के लिए बल का प्रयोग तारीख से बाहर है। हमें पारस्परिक सम्मान के आधार पर किए गए संवाद के माध्यम से अपनी समस्याओं को हल करने का प्रयास करना चाहिए। "
परम पावन ने अपने दृढ़ विश्वास पर बल दिया कि शिक्षा लोगों की सोच को परिवर्तित करने के लिए महत्वपूर्ण है।
"आधुनिक शिक्षा भौतिक लक्ष्यों और भौतिक सुख सुविधा की प्राप्ति की ओर उन्मुख हो जाती है। यह लोगों को मात्र ऐन्द्रिक चेतना के स्तर पर सुख प्राप्त करने के लिए प्रोत्साहित करता है। गलती अपनी मानसिक चेतना के प्रति अधिक ध्यान न देना है। समूची पीढ़ी का पालन पोषण भौतिकवादी संस्कृति और जीवन शैली में, भौतिकवादी दृष्टिकोण के साथ किया गया है। यद्यपि वे शांति के साथ रहना चाहते हैं, पर वे अपने विनाशकारी भावनाओं से निपटना नहीं जानते, जो इसकी सबसे बड़ी बाधाएँ हैं।
"हमें सौहार्दपूर्णता जैसी सकारात्मक भावनाओं के विकास हेतु निर्देश देते हुए वर्तमान शिक्षा प्रणाली में सुधार करना होगा। धार्मिक परम्पराओं पर आस्था हर किसी के लिए रुचिकर न होगा। हमें आम अनुभव, सामान्य ज्ञान और वैज्ञानिक निष्कर्षों के आधार पर और अधिक सार्वभौमिक दृष्टिकोण की आवश्यकता है "।
परम पावन ने प्राचीन भारतीय परम्पराओं की ओर ध्यानाकर्षित किया जो एकाग्रता और अंतर्दृष्टि, जिनका संबंध शमथ व विपश्यना के साथ है, जिन्होंने चित्त के कार्य की गहन समझ संचित की है। यह प्राचीन ज्ञान आज प्रासंगिक है क्योंकि यह हमें अपने विनाशकारी भावनाओं से निपटने और चित्त रूपांतरण से निपटने के लिए तैयार कर सकता है, फिर चाहे हमारी कोई धार्मिक आस्था हो अथवा नहीं।
"यह एक ऐसा देश है जिसमें शांति प्राप्त करने हेतु प्राचीन ज्ञान को आधुनिक शिक्षा के साथ जोड़ने की क्षमता है।"
परम पावन ने यह सुनिश्चित करने कि यह २१ वीं शताब्दी शांति तथा सुख का युग बने और आज जीवित सभी ७ अरब मनुष्यों के सुख में योगदान दे, की ओर किए जा रहे प्रयासों की सराहना की।
एक छात्र के प्रश्न के उत्तर में कि क्या उन्हें तिब्बत की याद आती है परम पावन ने उत्तर दिया,
"मेरा जन्म तिब्बत में हुआ था, अतः स्वाभाविक है कि मुझे अपने देश की याद आती है, पर आज मैं स्वयं को विश्व का नागरिक मानता हूँ। मेरे जीवन की चार प्रतिबद्धताएँ हैं। पहला आधारभूत मानव मूल्यों को बढ़ावा देना है; दूसरा हमारी धार्मिक परम्पराओं के बीच अधिक सद्भाव को पोषित करना है; तीसरा तिब्बत की अनूठी भाषा और संस्कृति का संरक्षण, और साथ ही हिम भूमि के प्राकृतिक वातावरण की सुरक्षा में योगदान करना है - और चौथा इस देश में प्राचीन भारतीय ज्ञान के पुनरुत्थान को प्रोत्साहित करना है "।
स्कूल में आमंत्रित अतिथियों के एक समूह के साथ मध्याह्न का भोजन करने उपरांत परम पावन दिल्ली लौट आए। कल, वे उत्तर-पूर्वी राज्य मणिपुर की अपनी प्रथम यात्रा करेंगे, जहाँ वह मणिपुर विधान सभा के अध्यक्ष द्वारा आयोजित शांति और सद्भाव पर अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन में भाग लेंगे।