लेह, लद्दाख, जम्मू और कश्मीर - २७ जुलाई २०१७, आज प्रातः परम पावन दलाई लामा चोगलमसर के निकट स्थित विशाल परिसर में केंद्रीय बौद्ध विद्या संस्थान के सभागार में एक संगोष्ठी में सम्मिलित हुए। विषय था 'सांप्रदायिक सद्भाव - विश्व शांति का आधार' और अवसर था लद्दाख के २०वीं शताब्दी के महान नेता बकुला रिनपोछे की जन्म शताब्दी का समारोह। बैठक की एक अन्य विशिष्टता थी कि इसका आयोजन लद्दाख बौद्ध एसोसिएशन, अंजुमन इमामिया और अंजुमन मोइन-उल-इस्लाम के युवा वर्गों द्वारा आयोजित किया गया था।
मंच के पीछे कुषोक बकुला रिनपोछे के जीवन से संबंधित तस्वीरों की एक प्रदर्शनी थी जिसे परम पावन ने रुचि से देखा। फिर उन्होंने औपचारिक रूप से कार्यवाही का उद्घाटन करने के लिए दीप प्रज्ज्वलित किया।
अपने परिचय में, वाईडब्ल्यूएलबीए के अध्यक्ष रिंचेन नमज्ञल ने समझाया कि १९वें बकुला रिनपोछे ने लद्दाख के सभी लोगों को एक साथ लाने के लिए कठोर परिश्रम किया, विशेषकर भारतीय स्वतंत्रता के बाद। वह आधुनिक लद्दाख के निर्माता, एक सांसद और एक सामाजिक सुधारक थे, जिन्होंने शिक्षा के माध्यम से सांप्रदायिक सद्भावना के विकास को लोकप्रिय बनाया। उन्होंने जानवरों की बलि पर रोक लगाने की ओर भी ध्यान दिया। आज, लद्दाख में सांप्रदायिक सद्भाव की स्थिति विश्व के अन्य भागों के लिए एक उदाहरण है।
बकुला रिनपोछे को सोलह अर्हत, जो बुद्ध के परम शिष्य थे और जिन्होंने उनके सिद्धांत की रक्षा करने का कार्य किया, का प्रकट रूप माना जाता है। १९वें अवतार का जन्म मथो परिवार के एक राजकुमार के रूप में हुआ था। वह तिब्बत गए, जहाँ वे १३वें दलाई लामा से मिले और डेपुंग लोसेललिंग महाविहार में अध्ययन किया और गेशे ल्हरम्पा की उपाधि अर्जित की। १९४९ में पंडित नेहरू के कहने पर उन्होंने संसद में प्रवेश किया और लद्दाख के विकास हेतु अपना कार्य प्रारंभ किया। वह शिक्षा में सुधार लाने हेतु बहुत इच्छुक थे और केन्द्रीय बौद्ध विद्या संस्थान की स्थापना में शामिल थे, जो प्रारंभ में अपनी वर्तमान स्थान में आने के पूर्व स्पितुक विहार में स्थित था। उन्होंने विद्वानों के लिए वाराणसी और श्रीलंका में अध्ययन करने की भी व्यवस्था की।
जब उन्हें लगा कि जम्मू और कश्मीर के मुख्यमंत्री शेख अब्दुल्ला, लद्दाख की उपेक्षा कर रहे थे तो उन्होंने उन्हें चुनौती दी। पूरी तरह से एक भिक्षु होते हुए भी बकुला रिनपोछे ने एक प्रबल धर्मनिरपेक्ष लोकाचार बनाए रखा, जिससे वह लद्दाख के सभी समुदायों के नेता के रूप में सेवा करने में सक्षम हुए। बाद में उन्होंने मंगोलिया में बौद्ध धर्म की बहाली में योगदान दिया।
अंजुमन इमामिया युवा वर्ग के प्रतिनिधि ने आगे बताया कि बकुला रिनपोछे ने विकास के मार्ग के लिए शिक्षा को महत्वपूर्ण बताया था। उन्होंने रिनपोछे को उद्धृत करते हुए कहा कि उन्होंने प्रत्येक को अपने स्वार्थी उद्देश्य को त्यागने और लद्दाख के कल्याण हेतु कार्य करने के लिए कहा। अंजुमन मोइन-उल-इस्लाम युवा वर्ग के प्रतिनिधि ने परम पावन दलाई लामा के प्रति प्रशंसा व्यक्त करते हुए कहा कि उसने उनसे सभी मनुष्यों को एक ही परिवार के सदस्य के रूप में सम्मान करना सीखा है। उन्होंने आगे कहा कि पैगंबर ने भी एक सच्चा इंसान उसे बताया है जो दूसरों की सेवा करता है, जबकि सामान्यतया मुसलमान कहते हैं - "आपका मज़हब आपका है; मेरे पास मेरा है।"
जब परम पावन के बोलने की बारी आई तो उन्होंने सभा को भाइयों और बहनों के रूप में संबोधित किया और बताया कि यह उनके लिए कितने सम्मान की बात थी वे पुनः उनके बीच आ सके। उन्होंने टिप्पणी की कि १९६९ में लद्दाख की अपनी पहली यात्रा में उनकी बकुला रिनपोछे और कई पुराने मित्रों से भेंट हुई थी जिनमें से अधिकतर अब नहीं रहे। उस समय लद्दाख ने बहुत अधिक भौतिक प्रगति नहीं की थी। तब से, इसका रूपांतरण हो गया है जिसमें बकुला रिनपोछे और सोनम नोरबु जैसे अन्य लोगों ने महत्वपूर्ण योगदान दिया है।
"यह याद रखना बहुत अच्छा है कि उन्होंने यहाँ कितना परिवर्तन किया," परम पावन ने जारी रखा। "समय रहते रिनपोछे ने मंगोलिया के विकास और वहाँ बौद्ध धर्म की बहाली में विशेष रूप से विनय को लेकर एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
"पर जो अतीत है वह अतीत है और अब हमें भविष्य को देखना होगा। साधारणतया विश्व भर में, २१वीं सदी का प्रारंभ २०वीं सदी से बेहतर रहा है। लोग हिंसा से तंग आ गए हैं और शांति की सच्ची कामना करते हैं। मैं यूरोपीय संघ की भावना की बहुत सराहना करता हूँ। द्वितीय विश्व युद्ध के अंत में, यूरोप के राष्ट्र सदियों से एक दूसरे से लड़ने के उपरांत, सामान्य हित के लिए एक साथ काम करने का निर्णय लिया। तब से साठ वर्षों से शांति कायम रही है।
"२०वीं शताब्दियों की बड़ी त्रुटियों में से एक बल प्रयोग द्वारा समस्याओं के समाधान का निरंतर प्रयास था। विश्व इतना अधिक अन्योन्याश्रित हो गया है, एक ओर हमारी अर्थव्यवस्थाओं के मामले में और दूसरी ओर जलवायु परिवर्तन से जुड़ी चुनौतियों का सामना करने में जो हम सब को प्रभावित करता है, इस तरह का दृष्टिकोण पूरी तरह तारीख से बाहर है। हमें अपनी नई वास्तविकता के अनुरूप सोचने के लिए नया तरीका चाहिए। हमें साथ साथ रहना सीखना होगा।
"हम सभी एक सुखी जीवन जीना चाहते हैं, अतः हमें विश्वास और आपसी सम्मान से एक साथ रहना सीखना होगा। हमारे बीच जाति, राष्ट्रीयता, धार्मिक आस्था और अन्य मतभेद हैं पर ये अंतर मनुष्य होने की हमारी समानता की तुलना में गौण हैं। जब मैंने सुना कि वैज्ञानिकों का कहना है कि उनके पास प्रमाण हैं, कि आधारभूत मानव प्रकृति करुणाशील है, मैंने सोचा, 'यह सच्ची आशा है।'
"दूसरों की सहायता से गहन संतोष प्राप्त होता है। हम चाहें कितने ही शक्तिशाली प्रतीत हों, हमारा अस्तित्व समुदाय पर निर्भर करता है। स्पष्ट रूप से समुदाय व्यक्तिगत सुख के लिए महत्वपूर्ण है, अतः यदि हम दूसरों को सुखी करते हैं तो हम भी लाभान्वित होते हैं। हमें कार्रवाई करने की आवश्यकता है। पर यदि हम आत्म-केंद्रित होकर काम करें तो पारदर्शी होना मुश्किल होगा, दूसरों का विश्वास और मैत्री प्राप्त करने के लिए। अधिक सौहार्दता सीखने से हम एक अधिक करुणाशील विश्व का निर्माण कर सकते हैं। इस तरह के संस्थानों के सदस्य के रूप में आप लद्दाख, जम्मू और कश्मीर और व्यापक स्तर पर भारत में एक अंतर ला सकते हैं।
"हमें कई समस्याओं का सामना करना पड़ता है पर उनमें से धर्म के नाम पर संघर्ष अचिन्तनीय और लज्जाजनक है। इस तरह के संकीर्ण तथा अदूरदर्शिता समय की लय से बाहर है। हमें समूची मानवता के कल्याण को ध्यान में रखते हुए कार्य करना है।
"यह बातें हैं जिनके बारे में मैं जहाँ भी जाता हूँ, वहाँ कहता हूँ। एक बौद्ध के रूप में मैं प्रत्येक दिन हर सत्व के सुख के लिए प्रार्थना करता हूँ, पर अन्य ग्रहों या ब्रह्मांड के अन्य भागों में जो हैं, मैं उन तक पहुँच नहीं सकता। इस ग्रह पर भी अनगिनत जानवर, पक्षी और कीड़े मकोड़े हैं, जिनके लिए हम बहुत अधिक नहीं कर सकते। जो लोग वास्तव में सहायता कर सकते हैं वे हमारे ७ अरब साथी मनुष्य हैं, जो आंतरिक शांति के महत्व को सीखने से लाभ उठा सकते हैं। यही मैं आपके साथ साझा करना चाहता था - अब मैं आपके प्रश्नों को सुनना चाहूँगा।"
आयोजकों ने ५० से अधिक लिखित प्रश्न एकत्रित किए थे, जो प्रस्तुतकर्ताओं ने पढ़े और जिन्होंने पूछे थे उनका परिचय जानने के लिए उनसे खड़े होने को कहा।
धर्म में एकता का अर्थ पूछने पर, परम पावन ने उत्तर दिया, "भाई और बहन होने की भावना।" एक प्रश्न कि क्या मात्र एक ही धर्म होना चाहिए की प्रतिक्रिया में एक त्वरित उत्तर मिला - "असंभव; यहाँ तक कि बौद्ध धर्म के अंदर भी विचार के विभिन्न बिंदु हैं। सभी प्रमुख धर्म प्रेम का एक आम संदेश सम्प्रेषित करते हैं, पर हमें जिस विविधता का वे प्रतिनिधित्व करते हैं, उसकी आवश्यकता है।"
एक प्रश्नकर्ता ने उल्लेख किया कि जबकि धर्म सदैव समरसता की वकालत करते हैं, पर आस्था परम्पराओं का अस्तित्व इसका विरोध करता लगता है। परम पावन ने अपने विश्वास पर बल देते हुए कहा कि शिक्षा धर्मनिरपेक्ष होना चाहिए। धर्म को छुए बिना एक अच्छा इंसान होने, सौहार्दता को सीखना संभव होना चाहिए। उन्होंने कहा कि हम वैज्ञानिक निष्कर्षों और सामान्य ज्ञान में सौहार्दता का औचित्य पा सकते हैं।
कश्मीर के शांतिप्रिय लोगों के लिए उनकी सलाह के बारे में पूछा गया, तो परम पावन ने दिल्ली में नेहरू के घर पर मुख्यमंत्री शेख अब्दुल्ला के साथ अपनी पहली भेंट का स्मरण किया। उस समय उन्होंने सोचा था कि समस्या को सुलझाने का एक अवसर था, पर वैसा न हुआ। उन्होंने देखा कि गांधी विभाजन नहीं चाहते थे, पर उसकी कीमत जिन्ना का भारत का प्रधान मंत्री बनना था जबकि नेहरू इसी महत्वाकांक्षा को पाले हुए थे। परम पावन ने विनोबा भावे की दक्षिण एशियाई राष्ट्रों के बीच एक बड़ी एकता की वकालत करने की बात कही जिससे संभवतः समाधान का कोई संदर्भ मिलता। स्वीकार करते हुए कि उनके पास कोई उत्तर न था, परम पावन ने उन युवा लोगों को प्रोत्साहित किया जिन्होंने यह प्रश्न पूछा था कि वे ध्यान से सोचें और शांति प्राप्त करने के लिए अपनी दृष्टि तैयार करें।
परम पावन ने माना कि बुद्ध ने घोषित किया था कि उनकी परम्परा में जाति और परिवार की पृष्ठभूमि का कोई महत्व नहीं था। इसके बजाए ज्ञान और अभ्यास था जो सम्मान योग्य था। उन्होंने आगे कहा कि लोकतंत्र और समानता के काल में जातिगत भेदभाव के लिए कोई स्थान नहीं है, जो निश्चित रूप से तारीख से बाहर है।
यह पूछने पर कि लोग क्यों उन पर भरोसा करते हैं, परम पावन हँसे और कहा कि यह उनकी मुस्कुराहट के कारण था। "मैं सदैव स्वयं को और दूसरों को मात्र मनुष्य के रूप में सोचता हूँ। मुझे लगता है कि यह सरलता से मित्र बनाने का एक आधार है।"
ईसाई छात्रों के एक प्रतिनिधि ने धन्यवाद के शब्द ज्ञापित करते हुए परम पावन को आने तथा सम्मिलित होने के लिए और जिनके प्रयासों ने इस कार्यक्रम को सफल बनाने में योगदान दिया था, उनके प्रति आभार जताया। श्रोताओं में से इतने लोग परम पावन से हाथ मिलाना चाहते थे और उनके साथ फोटो लेना चाहते थे कि उन्हें मंच छोड़ने में विलंब हुआ। पर अंततः वे अपनी गाड़ी तक पहुँच गए और शे के पास सिंधु दर्शन परिसर में गाड़ी से जाने में समर्थ हुए, जहां लद्दाख स्वायत्त पर्वतीय विकास परिषद् ने उन्हें मध्याह्न के भोजन के लिए आमंत्रित किया था।
सिंधु नदी, जो तिब्बत से निकल तेजी से बहती है, के दृष्टिगत लद्दाख स्वायत्त पर्वतीय विकास परिषद् के मुख्य कार्यकारी पार्षद् डॉ सोनम दावा ने सम्मानित अतिथि के रूप में परम पावन के प्रति श्रद्धा जताई। लद्दाखी संगीतकारों के एक समूह द्वारा वादन तथा गायन के बाद परम पावन ने अपनी चिंता व्यक्त करते हुए कहा कि वे संगीतकार बहुत लंबे समय धूप में बैठे हुए थे, उन्होंने केवल संक्षिप्त टिप्पणी की।
"जब मैं पहली बार यहाँ आया था, तब से लद्दाख में हुआ विकास बहुत ही प्रभावशाली है, पर अच्छा होगा कि साथ ही चित्त और भावनाओं के कार्य के प्राचीन भारतीय ज्ञान के अनुसार आंतरिक विकास की आवश्यकता को न खोना - चलिए अब भोजन करें।" जब सब परितृप्त हो गए तो परम पावन शिवाछेल फोडंग लौट गए। कल, वे शांतिदेव के 'बोधिसत्वचर्यावतार' पर तीन दिन का प्रवचन प्रारंभ करेंगे।