बेंगलुरु, कर्नाटक, भारत, जब आज प्रातः परम पावन दलाई लामा अपने होटल से निकल रहे थे तो उन्होंने २५ तिब्बती युवाओं के समूह से भेंट की, जिन्होंने तिब्बती आवासों से बेंगलुरू में इलाज के लिए आ रहे रोगियों की सहायता करने के लिए अपने स्वयं के स्वास्थ्य संघ का गठन किया है। परम पावन ने उन्हें इस पहल पर बधाई दी।
त्रिपुर वासिनी पैलेस ग्राउंड पहुँचने पर, जहाँ एक विशाल शामियाने में शेषाद्रिपुरम हाई स्कूल की रजत जयंती का आयोजन किया गया था, शेषाद्रिपुरम शैक्षणिक ट्रस्ट के जनरल सेक्रेटरी - डॉ वूदे पी कृष्णा ने परम पावन का स्वागत किया। डॉ कृष्णा ने उनके सह अतिथि डॉ ए एस किरण कुमार, जो इंडियन स्पेस एंड रिसर्च ऑर्गेनाइजेशन (इसरो) के अध्यक्ष हैं, से परम पावन का परिचय कराया। वे साथ साथ मंच पर गए और जब १४,००० श्रोताओं ने परम पावन को देखा तो उत्साही स्वर गूंज उठे।
डॉ कृष्णा ने सर्वप्रथम शेषाद्रिपुरम संस्थानों के समूह का परिचय दिया जिसकी स्थापना मूल रूप से दो महिलाओं द्वारा १९३० में की गई थी। श्रीमती आनंदम्मा और श्रीमती सीतम्मा ने लगभग २० बच्चों के लिए एक प्राथमिक विद्यालय प्रारंभ किया। तब से शेषाद्रीपुरम एजुकेशनल ट्रस्ट २६ शैक्षणिक संस्थान चलाने में सक्षम हुआ है जो बालवाड़ी से पीएचडी पाठ्यक्रम तक शैक्षिक अवसर प्रदान करते हैं। आज, कुल छात्र संख्या २१,००० से अधिक है। ट्रस्ट का आदर्श वाक्य है 'हर व्यक्ति को ज्ञान और आत्मविश्वास से सशक्त बनाना।'
कृष्णा ने परम पावन का परिचय देते हुए उन्हें शांति और करुणा, अहिंसा और परमाणु प्रसार के विरोध का संदेशवाहक बताया, साथ ही धार्मिक सद्भाव और विज्ञान और आध्यात्मिक परंपराओं के बीच संवाद का प्रवक्ता बताया। उन्होंने उन्हें पारिस्थितिकी और पर्यावरण संरक्षण, महिलाओं के अधिकारों का रक्षक और नालंदा परम्परा का समर्थक बताया।
दीप प्रज्ज्वलन की कार्यवाही के लिए एक लघु विराम के बाद, डॉ ए एस किरण कुमार ने बताया कि किस तरह विज्ञान और प्रौद्योगिकी के कारण हमारे जीवन स्तर और गतिशीलता में सुधार हुआ है। परन्तु उन्होंने विवाद और संघर्ष में बहुत राहत नहीं दिया है। उन्होंने बुद्धियुक्त जीवन का समर्थन करने वाले ब्रह्मांड में अन्य ग्रहों की खोज की विडंबना को रेखांकित किया, जबकि हमारे अपने ही ग्रह पर जीवन इतना तनावपूर्ण हो गया है। उन्होंने सुझाव दिया कि हम गंभीरता से स्वयं से प्रश्न करें कि हम यहाँ क्यों हैं और उन्होंने छात्रों और उनके परिवारों को संबोधित करने के लिए परम पावन को आमंत्रित करने के लिए शेषाद्रिपुरम ट्रस्ट के प्रति उत्साह व्यक्त किया।
परम पावन मंच तक गए और श्रोताओं को समझाया कि वे वहाँ से कुछ देर बोलना चाहेंगे, ताकि वह उनके चेहरे देख सकें और जो सो रहे हैं उन्हें पकड़ सके।
"आदरणीय वरिष्ठ और छोटे भाइयों व बहनों, मैं सदैव बल देता हूँ कि मनुष्य होने के नाते हम सभी समान हैं, इसके बावजूद कि हमारे बीच गौण अंतर हो सकते हैं। मैं ऐसा नहीं सोचता कि मैं एशियाई, तिब्बती, बौद्ध या यहाँ तक कि मुझे दलाई लामा कहकर संबोधित किया जाता है। ऐसा करना अपने को दूसरों से अलग करना और एकाकीपन की अपनी भावना को बढ़ाना होगा। यह अनुभव करना, कि मैं किसी रूप से विशिष्ट अथवा पृथक हूँ मात्र चिंता तथा भय उकसाता है। मैं केवल एक अन्य मानव हूँ। मुझे औपचारिकता अच्छी नहीं लगती। जब हमने जन्म लिया था तब कोई औपचारिकता नहीं थी और न ही तब होगी जब हमारी मृत्यु होगी।
"यहाँ हम शांति व सुख का आनंद ले रहे हैं, जबकि इस समय, इस ग्रह पर कहीं और बच्चे भुखमरी का शिकार हो रहे हैं और निर्दोष लोगों की हत्या हो रही है - रोके जा सकने वाली त्रासदियाँ। हम किस तरह उदासीन रह सकते हैं? यही होता है जब जाति, आस्था और राष्ट्रीयता जैसे गौण अंतरों पर ध्यान केन्द्रित किया जाता है और जब हम मानवता की एकता को अनदेखा कर देते हैं, जिस तरह से हममें से प्रत्येक एक समान हैं केवल मनुष्य होने के नाते।
"हम सभी में सुखी और शांति से रहने की आंतरिक इच्छा है। हम सामाजिक प्राणी हैं; हम अपने अस्तित्व के लिए दूसरों पर निर्भर हैं। आज के विश्व में हम एक वैश्विक अर्थव्यवस्था में संलग्न हैं, जबकि हम सभी वैश्विक जलवायु परिवर्तन और एक बढ़ती जनसंख्या की धमकियों के संकट का सामना कर रहे हैं। मैं मानवता की एकता भावना को बढ़ावा देने के लिए प्रतिबद्ध हूँ, जिसका अर्थ है कि हम में से प्रत्येक को दूसरों के विषय में सोच रखने का उत्तरदायित्व है।
"बौद्ध भिक्षु के रूप में मैं अपनी विभिन्न धार्मिक परम्पराओं के बीच सद्भाव को प्रोत्साहित करने के लिए भी प्रतिबद्ध हूँ। उन सभी ने अपने अनुयायियों को बहुत लाभान्वित किया है, क्योंकि प्रत्येक परम्परा एक और सार्थक जीवन के लिए मार्गदर्शक हो सकती है। कुछ लोग कहते हैं कि ईश्वर हैं, कुछ कहते हैं कि नहीं है, पर फिर भी हमारी सभी विभिन्न आध्यात्मिक परम्पराएँ प्रेम, सहिष्णुता, आत्मानुशासन और संतोष का एक समान संदेश सम्प्रेषित करती हैं। उन सभी में प्रेम के अभ्यास द्वारा चित्त की शांति लाने की क्षमता है।
"आज जीवित ७ अरब मनुष्यों में, लगभग १ अरब घोषित करते हैं कि उनकी धर्म में कोई रूचि नहीं है, पर शेष ६ अरब में कुछ ऐसे भी हैं जिनका व्यवहार उनकी आस्था के विपरीत है। परन्तु मैं निरंतर इस बात से प्रोत्साहित होता हूँ कि भारत एक जीवित उदाहरण है कि धार्मिक परम्पराएँ सामंजस्यपूर्ण भावना से साथ साथ रह सकती हैं।
"तिब्बती के रूप में, मैं साठ लाख तिब्बतियों के प्रति प्रतिबद्ध हूँ जिन्होंने अपनी आशाएँ मुझ पर बनाई रखीं हैं। एक राजनीतिक दृष्टिकोण से मैं सेवानिवृत्त हो चुका हूँ। चूँकि अब हमारे पास एक निर्वाचित नेतृत्व है, मैं लोकतंत्र के हित में सेवानिवृत्त हो चुका हूँ और मैंने भविष्य में तिब्बत के राजनैतिक मामलों में किसी भी भविष्य में होने वाली भागीदारी पर रोक लगा दिया है। परन्तु मैं तिब्बत के प्राकृतिक पर्यावरण की सुरक्षा के बारे में बहुत चिंतित हूँ, जो कि वैश्विक जलवायु में योगदान देता है जिसकी तुलना उत्तर और दक्षिण ध्रुवों से की जा सकती है। तिब्बती पठार एशिया की प्रमुख नदियों का भी स्रोत है, जिस पर १ अरब से अधिक लोग अपने अस्तित्व के लिए निर्भर हैं।
"मैं तिब्बत की भाषा और संस्कृति को जीवित रखने के लिए भी समर्पित हूँ, चूंकि इस समय भोट भाषा नालंदा परम्परा की अंतर्दृष्टि को सटीक ढंग से व्यक्त करने के लिए सर्वोत्तम भाषा है-जिसमें चित्त के प्रकार्य की संपूर्ण समझ शामिल है।
"इसके अतिरिक्त मैं आधुनिक भारत में प्राचीन भारतीय ज्ञान को पुनर्जीवित करने के प्रयास के लिए प्रतिबद्ध हूँ, ज्ञान जिसे मैं आज मैं अत्यंत प्रासंगिक मानता हूँ। मैं अपने भारतीय मित्रों से ठिठोली करता हूँ कि हम तिब्बती जानते हैं कि हमने आपसे जो सीखा है। हम आपके चेले हैं, पर हम स्वयं को विश्वसनीय प्रमाणित कर चुके हैं क्योंकि हमने इस ज्ञान को जीवित रखा है।
"आज के विश्व में हम भावनात्मक संकट का सामना करते हैं, पर मात्र तकनीकी विकास हमारी भावनात्मक समस्याओं का समाधान नहीं है। चित्त शोधन द्वारा ही हम उनसे निपट सकते हैं। हम प्राचीन भारत के मनोविज्ञान से सीख सकते हैं कि हम किस तरह अपनी भावनात्मक उथल पुथल को कम करें और चित्त की शांति पाएँ। आधुनिक शिक्षा की वर्तमान व्यवस्था भौतिक विकास की ओर बहुत अधिक उन्मुख है, पर हमें आंतरिक मूल्यों को भी सम्मिलित करना होगा।
"यदि हम करुणा से प्रेरित हों तो हम केवल अहिंसा का आचरण रखेंगे। यह वैज्ञानिकों के प्रमाणों के अनुकूल है कि आधारभूत मानव प्रकृति करुणाशील है। उन्होंने यह भी स्थापित किया है कि नैरन्तर्य क्रोध तथा भय से जीने से हमारी प्रतिरक्षा व्यवस्था दुर्बल हो जाती है। अतः ऐसे नकारात्मक भावनाओं से निपटने के उपाय सिखाने की एक तत्कालिक आवश्यकता है। भारतीय इसके बारे में अधिक परिचित हों और फिर उन्होंने जो सीखा है उसे वे व्यापक विश्व से साझा करें।"
श्रोताओं के प्रश्नों के उत्तर देते हुए, परम पावन ने आशा व्यक्त की कि भारत अपने प्राचीन ज्ञान की अंतर्दृष्टि से आधुनिक ज्ञान को जोड़ सकेगा। एक शांतिपूर्ण ढंग से चित्त के शांत स्वरूप और अंतर्दृष्टि-शमथ तथा विपश्यना की व्यापक खोज ने चित्त तथा भावनाओं के प्रकार्य की एक समृद्ध समझ कार्य कारण सिद्धांत को जन्म दिया। उन्होंने सुझाया कि इन बातों का अध्ययन एक शैक्षणिक रूप से किया जा सकता है इस तरह कि उन्हें आधुनिक शिक्षा में शामिल किया जा सके।
यह पूछे जाने पर कि युवाओं के लिए आज धर्म अधिक महत्वपूर्ण है अथवा विज्ञान, परम पावन ने कहा दोनों तथा माना कि वह स्वयं को आधा बौद्ध भिक्षु और आधा वैज्ञानिक मानते हैं। उन्होंने टिप्पणी की कि मात्र मस्तिष्क पर ध्यान केंद्रित करने के बाद, २०वीं सदी के अंत तक, वैज्ञानिकों ने चित्त में अधिक गंभीर रुचि लेना प्रारंभ किया।
परम पावन ने एक छात्र से जो जानना चाहता था कि विचलित होने से किस तरह निपटा जाए, कहा कि एक शमथपूर्ण चित्त का विकास उपयोगी है, पर वह अपने ही संबंध में ८२ वर्ष की आयु में भी वह अनुभव करते हैं कि उनका चित्त प्रखर है क्योंकि उन्होंने इसे बहुत लम्बे समय से विश्लेषण के लिए प्रशिक्षित किया है। उन्होंने बुद्ध की सलाह को उद्धृत किया कि उनकी शिक्षाओं को आस्था और भक्ति के कारण जस का तस स्वीकार न करें, पर इस बात को पुष्ट करने के लिए उनका परीक्षण कर जांचे और देखें कि क्या वे कारण व तर्क से मेल रखते हैं। यह मूलतः नालंदा विश्वविद्यालय का दृष्टिकोण था।
परम पावन ने एक और छात्र को सलाह दी कि दुख से निपटने के लिए हमारी बुद्धि अन्य दृष्टिकोणों को साथ रखते हुए हमें घटनाओं को एक व्यापक परिप्रेक्ष्य से देखने की अनुमति देती है। परम पावन ने कहा कि यदि हम ऐसा करने में सक्षम हों तो जो पहले उदास प्रतीत हुआ वह अप्रत्याशित अवसर हो सकता है। उन्होंने यह भी सुझाया कि अवसाद के मामले में बाहरी उपचारों की खोज में जाने के स्थान पर जैसे कि शराब या नशीले दवाओं की ओर मुड़ने के बजाय, चित्त से कार्य करना अधिक प्रभावी है।
शेषाद्रिपुरम एजुकेशनल ट्रस्ट द्वारा परम पावन के आने और इतने सारे लोगों को संबोधित करने के लिए अपना आभार व्यक्त करने के बाद, बैठक समाप्त हुई और परम पावन मध्याह्न भोजन के लिए अपने होटल लौट आए।