थेगछेन छोलिंग, धर्मशाला, हि. प्र., भारत - मुख्य तिब्बती मंदिर, उसके आस पास के क्षेत्र और नीचे का प्रांगण, खिले चेहरों, तिब्बतियों और विदेशियों से भरे हुए थे, जो परम पावन दलाई लामा को देख अत्यंत प्रसन्न थे। परम पावन ने सिंहासन पर अपना स्थान ग्रहण किया और अवलोकितेश्वर अभिषेक के लिए आवश्यक तैयारी प्रारंभ की।
एकत्रित जनमानस को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा कि "आज एक विशेष अवसर है, जो कि षड़ाक्षर मंत्रों के संग्रह से जुड़ा हुआ है, जिसे हम साधारणतया इस महीने में करते हैं जो बुद्ध के बुद्धत्व का स्मरणोत्सव है। हम सब यह पाठ सभी सत्वों के कल्याण हेतु करते हैं, पर विशेषकर उन लोगों के लिए जो मोह व क्रोध से व्याकुल हैं। जैसा शान्तिदेव कहते हैं कि हम दुःख की इच्छा नहीं करते परन्तु फिर भी उसके कारणों के पाछे भागते हैं - अपने आंतरिक क्लेशों के पीछे। बुद्ध ने कहा, "अकुशल कर्म न करें, पुण्य कार्य करें। साधारणतया कर्म जो दूसरों के सुख का परिणाम बनते हैं उनकी गणना पुण्य में होती है। वे जो दूसरों के दुःख का परिणाम बनते हैं, अकुशल कर्म हैं।
"अगर हम वास्तव में यह कामना रखते हैं कि सभी सत्व दुःख से मुक्त हों तो हमें उन्हें समझाना चाहिए कि एक अनियंत्रित चित्त दुःख का स्रोत है, जबकि अनुशासित चित्त हमें सुख देता है। विश्व में शांति हमारे एक दूसरे के साथ करुणा के संबंध पर निर्भर करती है। विभिन्न धर्मों के विभिन्न दार्शनिक दृष्टिकोण सभी करुणा के समर्थन हेतु विभिन्न दृष्टिकोण रखते हैं।
"हम यहाँ बुद्ध द्वारा दी गई देशनाओं का अनुपालन कर रहे हैं जो कि लोकप्रिय परम्परानुसार २६०० वर्ष के अनुसार बुद्ध ने दी। बुद्ध का जन्म एक राजवंश में हुआ था। उन्होंने राजमहल को त्याग दिया और छह वर्षों तक सन्यासियों के अभ्यास में लगे रहे। यहाँ - अपनी दाहिनी ओर एक मूर्ति को इंगित करते हुए - उनके क्षीण काया की एक छवि है। पोतल में एक बच्चे के रूप में मुझे बोधगया के चित्र और इस की मूल मूर्ति के चित्र का देखना स्मरण है। मैंने जाना कि इसे लाहौर, पाकिस्तान के एक संग्रहालय में रखा गया था। बहुत बाद में यह ऋण पर जापान में प्रदर्शित कलाकृतियों के संग्रह में था, जहाँ मैंने इसे देखा था। मैंने सोचा था कि यहाँ इसकी प्रतिकृति बनाना अच्छा होगा जो हमें बुद्ध को बुद्धत्व की प्राप्ति हेतु जिस परिश्रम को झेलना पड़े वह उसका स्मरण करा सके।"
परम पावन ने आगे बताया कि बुद्ध ने किस तरह अपना मार्ग तय किया। गोधूलि की वेला में बोधि तरु के नीचे बैठकर उन्होंने मार पर अंकुश प्राप्त किया। मध्य रात्रि में वह पूर्ण रूप से लीन थे और ब्रह्म वेला में आत्मज्ञान प्राप्त किया। ऐसा करने के पश्चात उन्होंने चिंतन किया "मैंने इस अमृत-सम धर्म को प्राप्त किया है, जो गहन, प्रपञ्चहीन और असंसकृत प्रभास्वरता है, पर यदि इसकी शिक्षा देना चाहूँ, तो कोई भी इसे समझ न पाएगा।" परन्तु ४९ दिनों के बाद उन्होंने सारनाथ में अपना पहला शिक्षण दिया, जिसमें चार आर्य सत्य - दुःख सत्य, दुःख समुदय, दुःख निरोध और मार्ग की शिक्षा दी। यह उनकी शिक्षाओं की नींव बनी।
जिस प्रकार रोग की पहचान की जानी चाहिए, एक उपाय अपनाया जाना चाहिए तथा परिचारकों की सहायता खोजी जानी चाहिए, बुद्ध ने सलाह दी कि दुःख को जानना चाहिए, इसके उद्गम पर काबू पाया जाना चाहिए, निरोध की प्राप्ति की जानी चाहिए और मार्ग का विकास किया जाना चाहिए। परम पावन ने टिप्पणी की कि एक बार आप जान जाएँ कि निरोध क्या है तो आप दुःख समझ सकते हैं और उसके हेतु पर काबू पा सकते हैं, मोह क्रोध व अज्ञान के तीन विषय। इनमें प्रमुख अज्ञान है, जो कि यथार्थ की गलत धारणा है। और जब आप वह समझ जाएँगे ये इन नकारात्मक भावनाओं को पराजित किया जा सकता है, आप देखेंगे कि मार्ग का अनुसरण कर निरोध प्राप्त किया जा सकता है।
परम पावन ने कहा कि बौद्ध परम्परा के अंदर विभिन्न दार्शनिक दृष्टिकोण हैं और जिस तरह वर्णमाला जानने के लिए आप को सीखना पड़ता है उसी तरह उनके अध्ययन की आवश्यकता है।
चार आर्य सत्य, जो प्रथम धर्म चक्र प्रवर्तन के नाम से जाना जाता है उसका अंग थे। राजगीर में द्वितीय धर्म चक्र प्रवर्तन का संबध प्रज्ञा - पारमिता से था और इसके संक्षिप्त तथा व्यापक सूत्र हैं, जो हृदय सूत्र की २५ पंक्तियों से लेकर प्रज्ञा - पारमिता की ८००० पंक्तियों से १८००० पंक्तियों इत्यादि तक हैं। बुद्ध की चित्त के आधारभूत स्वरूप प्रभास्वरता की व्याख्या तृतीय धर्म चक्र प्रवर्तन का भाग थी।
परम पावन ने हमारे विभिन्न चेतना के स्तरों का उल्लेख किया - साधारण एन्द्रिक चेतना, स्वप्नावस्था की सूक्ष्म चेतना, गहन निद्रा की सूक्ष्मतर अवस्था और सूक्ष्मतम चेतना जो कि मृत्यु की प्रभास्वरता है। उन्होंने टिप्पणी की कि कुछ लोग जो मृत्यु पर इस सूक्ष्मतम चेतना तक पहुँचते हैं, वे एक तल्लीनता में प्रवेश करते हैं, उनके नैदानिक रूप से मृत होने के बावजूद, उनके शरीर ताजा रहते हैं। इसके प्रति कौतूहल के कारण इस समय वैज्ञानिक इसकी जांच कर रहे हैं।
परम पावन ने इंगित किया चित्त की प्रभास्वरता की व्याख्या सूत्र तथा तंत्र यानों के बीच की कड़ी प्रदान करती है। उन्होंने आगे कहा कि एकाग्रता के विकास के लिए निर्देशों में किसी वस्तु और बुद्ध की प्रतिमा पर चित्त को केंद्रित करना सहायक माना जाता है। तंत्र में अभ्यासी इसे शून्यता से एक देवता के रूप में उभरने की कल्पना करता है अथवा करती है। उन्होंने ञेनगोन सुंगरब नाम के एक तिब्बती लामा का स्मरण किया जिन्होंने मुख्यधारा की शिक्षाओं अथवा मार्ग के सामान्य संरचना से संबंधित शिक्षाओं और विशिष्ट व्यक्तिओं के लिए गुह्य शिक्षाओं के बीच को अंतर को स्पष्ट किया। सूत्र की शिक्षाएँ अधिकांश रूप से प्रथम वर्ग से संबंधित हैं और तंत्र की दूसरे वर्ग से।
ञिङ्मा वर्गीकरण के अंदर बुद्ध के शब्द दूर की वंशावली से संबंधित हैं, प्रकट की गई निधियां निकट की वंशावली की हैं तथा विशुद्ध दृष्टि से प्राप्त शिक्षाएँ गहन वंशावली से संबंधित हैं। परम पावन ने घोषित किया कि जो अभिषेक वे दे रहे थे वह ५वें दलाई लामा के विशुद्ध दर्शन के संग्रह से आया था। उनमें से ऐन्द्रिक स्तर पर होने वाली तथा चित्त से संबंधित विशुद्ध दृष्टि है। महाकारुणिक लोकेश्वर का यह अभ्यास प्रथम वर्ग में आता है।
परम पावन ने बताया कि जब वे एक बालक थे तो उन्हें यह शिक्षाएँ अपने दो प्रमुख शिक्षकों की उपस्थिति में तगडग रिनपोछे से प्राप्त हुई थीं। उस अवधि में उन्हें कई सकारात्मक सपनों का अनुभव हुआ। इस अभिषेक को प्राप्त करने के उपरांत वे एक स्पष्ट स्वप्न का स्मरण करते हैं जिसमें पञ्चम दलाई लामा दीवार पर के एक थङगा से उभरे और उन्हें बहुत लंबे पीले स्कार्फ में लपेटा।
उन्होंने टिप्पणी की कि, "मेरा निश्चित रूप से ५वें दलाई लामा के साथ कुछ संबंध है, क्योंकि मैं तिब्बतियों का विशेष रूप से इस कठिन समय में नेतृत्व कर रहा हूँ।"
प्रधान अभिषेक के उपरांत उन्होंने चार भुजाओं वाले अवलोकितेश्वर की अनुज्ञा भी प्रदान की।
अंत में उन्होंने कहा, "मेरा कार्य पूरा हो गया है," अब यह आप पर निर्भर है जो ६०० लाख 'मणि' और 'मणि' गोलियों का आशीर्वाद जमा करने में भाग लेने वाले हैं। जब आप ऐसा करते हों तो ऐसी कामना करें कि अवलोकितेश्वर के आशीर्वाद से सभी सत्वों को अंततः प्रबुद्धता प्राप्त हो।"