नई दिल्ली - ८ अगस्त २०१७, आज प्रातः रूसी और बौद्ध विद्वानों के मध्य संवाद में सम्मिलित होने से पूर्व परम पावन दलाई लामा ने एक कमेरसंत रूसी समाचार पत्र के स्टानिस्लाव कुचेर को एक साक्षात्कार दिया। कुचेर ने गैर-धार्मिक साधनों द्वारा मानव मूल्यों के प्रसार के विषय में पूछा। परम पावन ने उत्तर दिया कि विश्व की वर्तमान स्थिति संतोषजनक नहीं है।
"कई समस्याएँ हैं। लोग एक - दूसरे की हत्या रहे हैं क्योंकि वे क्रोध और घृणा के प्रभाव में हैं। वे आत्म केंद्रित से होते हैं और अन्य लोगों को 'हम' तथा 'उन' के संदर्भ में देखते हैं। पर कुछ भी आपके विरोधियों का पूर्ण रूप से उन्मूलन नहीं कर सकता। हमें एक साथ रहना होगा।
"जिस तरह से ये भावनाएँ हमें प्रभावित करती हैं, वह शीघ्रता से परिवर्तित नहीं होंगी। हमारी पीढ़ी को धर्मनिरपेक्ष नैतिकता के आधार पर प्रारंभ से एक नई पीढ़ी लाने हेतु शिक्षा के संबंध में एक नया दृष्टिकोण लेने की आवश्यकता है। लगभग ३० वर्षों के प्रशिक्षण के उपरांत वे अपने पूर्ववर्तियों से भिन्न होंगे। इस समय हम आंतरिक शांति पर पर्याप्त ध्यान नहीं देते, हमें सरल मानव कल्याण और चित्त की शांति पर अधिक ध्यान देना होगा। सौहार्दता, जो हमारे लिए अच्छी है, के लाभ के विषय में अधिक जागरूकता की आवश्यकता है। मेरी चिंता का विषय इस जीवन में यहाँ और अभी लोगों के लाभान्वित होने की संभावना है। मैं बौद्ध धर्म का प्रचार करने का प्रयास नहीं कर रहा। मुझे दूसरों को परिवर्तित करने में कोई रुचि नहीं है और मैं उन लोगों को लेकर किंचित शंकाकुल हूँ जो ऐसा कर रहे हैं।"
कुचेर ने अमेरिका, रूस और तुर्की में जाहिरा तौर पर व्यक्त निराशा के संबंध में पूछा।
परम पावन ने कहा, "चीजें बदल रही हैं" "यहाँ तक कि ब्रिटेन में भी बहुत सारे लोग हैं जो ईयू के साथ बने रहने का मूल्य पहचानते हैं। जब इराक संकट द्वार खटखटा रहा था तो लाखों लोगों ने और अधिक हिंसा के विरोध में प्रदर्शन किया। हमें मात्र नेताओं पर ध्यान नहीं देना चाहिए, हमें जनता के दृष्टिकोण के विषय में भी सोचना चाहिए। मुझे ऐसा प्रतीत है कि हिंसा से तंग होने की एक व्यापक भावना है।
"रूसी महान लोग हैं। मैंने पहले एक विचार का उल्लेख किया है जो मात्र एक स्वप्न हो सकता है, पर यदि नाटो अपने मुख्यालय को मास्को में स्थानांतरित कर लें तो यह संभव है कि रूसियों की जो भी गलतफहमियाँ हैं वे दूर हो जाएँ।"
"मैं लोगों पर विश्वास करता हूँ," परम पावन ने घोषित किया "विश्व ७ अरब मानवों का है, केवल मुट्ठी भर नेताओं, तानाशाहों या राजाओं और रानियों का नहीं। प्रत्येक देश उन लोगों का हैं जो वहाँ रहते हैं - और मेरा मानना है कि लोग अधिक परिपक्व हो रहे हैं।"
रूसी और बौद्ध विद्वानों के बीच की बैठक में, परम पावन ने घोषणा की, कि ८२ वर्ष की आयु में उन्हें और अधिक आराम करने की आवश्यकता हो सकती है, पर वे ढाई बजे तक रहने की आशा रखते हैं। "परन्तु," उन्होंने कहा, "यहाँ पर अन्य सभी भिक्षु हैं जिनके साथ आप चर्चा कर सकते हैं, यदि मुझे जाना भी पड़े।"
संचालक प्रो अनोखिन ने दिन के प्रथम वक्ता, डेविड डुब्रॉव्स्की का परिचय दिया, जो कि कक्ष में सबसे वयोवृद्ध थे तथा परम पावन ने उनके प्रति एक विशेष स्नेह व्यक्त किया था। अपनी खराब अंग्रेजी के बारे में बताते हुए उन्होंने एक सहयोगी से उनके ''चेतना की समस्या के न्यूरोसाइंटिस्ट दृष्टिकोण के परिप्रेक्ष्य: सभ्यता के वैश्विक संकट के संबंध'' पर अपनी प्रस्तुति पढ़ने के लिए कहा। उन्होंने यह कहते हुए प्रारंभ किया कि वे परम पावन के सार्वभौमिक नैतिकता और हमारी आधारभूत सद् मानवीय प्रकृति की भावना पर आधारित मानवतावादी विचारों से कितने प्रभावित हुए हैं।
"हम जिन समस्याओं का सामना करते हैं उनकी व्यापक जागरूकता के बावजूद, कोई निर्णायक कार्रवाई नहीं की गई है जो स्थिति में परिवर्तन ला सके। हमें मानव चेतना में परिवर्तन लाने की आवश्यकता है। इसके स्थान पर उपभोक्ता लालसा और आक्रामकता हमारे आत्म-विनाश के लिए संकट है। जहाँ अति आत्म-केंद्रितता और आक्रामकता मानवता के भविष्य से लिए संकट है, ऐसा प्रतीत होता है कि बौद्ध धर्म हमें करुणा तथा सौहार्दता के विकास की अनुमति देता है।"
परम पावन ने व्यक्त विचारों के प्रति प्रशंसा व्यक्त की, पर सुझाया कि हम मात्र मस्तिष्क के आधार पर परिवर्तन की आशा नहीं कर सकते। इसके स्थान पर यह चित्त है जिसे प्रशिक्षित और प्रबुद्ध किया जा सकता है। मस्तिष्क के संबंध में चेतना अपेक्षाकृत स्थूल है। उन्होंने गर्भ में लात मारने वाले विकसित हो रहे भ्रूण की स्थूल चेतना का उदाहरण दिया। केवल जब शिशु जन्म लेता है तो वह विश्व को देखना प्रारंभ करता है।
उन्होंने पूरी तरह से एक विभिन्न दृष्टिकोण से लामा थुबतेन रिनपोछे की कहानी बताई, जिनका न्यूजीलैंड में निधन हो गया था। नैदानिक रूप से मृत घोषित होने के बाद वे चार दिनों के बाद भी वे ध्यान में बैठे थे जिसे बौद्ध प्रभास्वरता के नाम से जानते हैं। उस बिंदु पर, रातों रात उनके हाथों की स्थिति बदल गई जब उनके बाएँ हाथ ने दाहिने हाथ की अनामिका उंगली को पकड़ा। परम पावन ने कहा कि उन्होंने उन लोगों को झिड़की दी थी जो उनकी देखरेख कर रहे थे कि उन्होंने जो हुआ उसे रिकार्ड करने के लिए कैमरे का प्रबंध नहीं किया - पर क्या हुआ, इसको लेकर किसी के पास कोई भी स्पष्टीकरण नहीं है। डुब्रॉव्स्की ने स्वीकार किया कि उनके पास भी कोई स्पष्टीकरण नहीं था।
सुबह की दूसरी प्रस्तुति लोमोनोसोव मॉस्को स्टेट यूनिवर्सिटी की मारिया फलिकमैन ने दी, जो संज्ञानात्मक मनोविज्ञान, संज्ञानात्मक विज्ञान और प्रायोगिक मनोविज्ञान की विशेषज्ञ हैं। उनका विषय था 'मानव ध्यान पर सांस्कृतिक-ऐतिहासिक गतिविधि परिप्रेक्ष्य: ध्यान अध्ययन से संभावित अंतर्दृष्टि।' उन्होंने कहा, "मानव ध्यान स्पष्ट है। आप देख सकते हैं जब कोई ध्यान देता है, वह उसके प्रभाव से स्पष्ट होता है।" उसने संयुक्त राज्य में मनोविज्ञान पाठ्यक्रम प्रस्तुत करने वाले प्रथम शिक्षक विलियम जेम्स का उदाहरण दिया, और उनके ध्यान से संबधित हेतु व प्रभाव के सिद्धांतों की बात की। उन्होंने उल्लेख किया कि मानसिक कारकों के बौद्ध विचार ध्यान को समझने में उपयोगी योगदान देते हैं।
परम पावन ने पूछा कि क्या सामाजिक जानवरों के मस्तिष्क के कार्यों के बारे में कुछ देखा गया है। उन्होंने कहा कि पक्षी और कुत्ते, जो सामाजिक प्राणी हैं, सराहना व्यक्त करते हैं यदि आप उन्हें कुछ खाने को दें। यद्यपि उनका यह अनुभव रहा है कि जब वह एक मच्छर को, जो स्पष्ट रूप से सामाजिक प्राणी नहीं है, उनका खून चूसने की अनुमति देते हैं तो पूरा पीने के बाद वह किसी भी रूप में प्रशंसा नहीं दिखाता।
मॉस्को स्टेट यूनिवर्सिटी के ही दिमित्रि बी वोल्कोव लोमोनोसोव ने 'स्वयं को एक उपयोगी कथा के रूप में - एक कथा दृष्टिकोण' के बारे में बताया। उन्होंने पूछा कि आत्म क्या है, और सुझाया कि अलग-अलग समय पर किसी व्यक्ति की पहचान करने में समस्या है। एक शारीरिक दृष्टिकोण है जो यह मानता है कि शरीर और मस्तिष्क समान हैं। एक मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण भी है और उन्होंने कंप्यूटर में किसी के चित्त तथा चैतसिक प्रकार्यों को अपलोड करने का प्रस्ताव किया। पुनरावृत्ति की समस्या उत्पन्न हो सकती है और इसके साथ ही यह प्रश्न कि वास्तविक स्व कौन सा था। वोल्कोव ने निष्कर्ष निकाला कि आत्म की समस्या का समाधान एक कथा दृष्टिकोण को लेने में पाया जा सकता है।
अपने उत्तर में परम पावन ने उल्लेख किया कि ३,००० से अधिक वर्षों से लोगों ने आत्म के विषय में अनुमान लगाया है। प्राचीन भारत ने जीवन के बाद जीवन के विचार और यह स्पष्ट रूप से शरीर नहीं है जो अगले जीवन में जाता है, को स्वीकार किया। एक आत्मा, या आत्म, जिसे 'आत्मन' के रूप में जाना जाता है, का एक नित्य, एकल और स्वतंत्र इकाई के रूप में प्रस्तावित किया गया। यद्यपि बुद्ध ने इसे नकार दिया। उन्होंने कहा कि इस तरह के आत्म, आत्म की इस तरह की भ्रांति की ग्राह्यता, एक अप विचार होने के सम है।
यह अज्ञान की प्रकृति है और इसका प्रतिकार करने वाले विचारों के मूल में चार प्रमुख बौद्ध परम्पराएँ हैं। यह सुझाते हुए कि जहाँ व्यक्तिगत अस्मिता मानसिक चेतना के संतान पर आधारित है, इन परम्पराओं में से परम मध्यमका या मध्यम मार्ग, एक स्वतंत्र आत्म को अस्वीकार करता है। परम पावन ने नागार्जुन के 'प्रज्ञा ज्ञान मूल मध्यम कारिका' से एक श्लोक उद्धृत कियाः
जो प्रतीत्य समुत्पाद है,
वह शून्यता के रूप में व्याख्यायित होता है।
वह आश्रित होकर ज्ञापित है,
वह मध्यमा प्रतिपत् है।।
उन्होंने समझाया कि इसका एक प्रतीत्य समुत्पादित होना अनन्त की अति के विरुद्ध होने से रोकता है, जबकि इसका एक आश्रित ज्ञापित होना शून्य की अति के विरोध से सुरक्षित करता है। उनका मानना था कि क्वांटम भौतिकी का अवलोकन कोई भी वस्तुनिष्ठ रूप में अस्तित्व नहीं रखता, कि यह पर्यवेक्षक की उपस्थिति पर निर्भर करता है, एक समान अंतर्दृष्टि को प्रतिबिम्बित करता है। बौद्ध धर्म इस तरह की समझ को जैसा कि नागार्जुन के उद्धृत श्लोक में आया है, मूलभूत अज्ञान के प्रतिकारक के रूप में उपयोग करता है।
उन्होंने उल्लेख किया कि अमेरिकी मनोचिकित्सक हारून बेक ने उन्हें बताया था कि उन्होंने क्रोध से संघर्ष कर रहे लोगों के उपचार के दौरान सीखा था। यद्यपि कइयों के लिए उनके क्रोध की वस्तु पूर्ण रूपेण नकारात्मक थी, बेक का यह निष्कर्ष था कि इसमें से ९०###span#< मानसिक प्रक्षेपण था। परम पावन का मानना है कि यह नागार्जुन की सलाह का अनुपालन करता है:
कर्म और क्लेशों के क्षय में मोक्ष है,
कर्म और क्लेश विकल्प से आते हैं।
विकल्प मानसिक प्रपञ्च से आते हैं,
शून्यता में प्रपञ्च का अंत होता है।।
मध्याह्न भोजनोपरांत रूसी एकेडमी ऑफ साइंसेज के दर्शनशास्त्र संस्थान की विक्टोरिया लिसेन्को ने 'विज्ञान और बौद्ध धर्म के मध्य किस तरह का दर्शन एक सेतु हो सकता है?' विषय पर एक प्रस्तुति दी। उन्होंने प्रस्तावित किया कि अंर्तसांस्कृतिक दर्शन, जो बहुसांस्कृतिक शिक्षा की पूर्वधारणा करता है, विद्वान को एक से अधिक परम्परा के संदर्भ में बात करने के लिए अनुमति देता है, प्रश्न का उत्तर दे सकते हैं। उन्होंने थियोडोर शेरबत्स्की (१८६६ -१९४२ ) का उदाहरण दिया, जिन्होंने धर्मकर्ति के 'हेतुबिन्दुनामप्रकरण' को पहली बार अंग्रेजी में अनुवादित किया, को तुलनात्मक दर्शन के अग्रणी और अंर्तसांस्कृतिक दर्शन के समर्थक के रूप में माना जाता है।
उसने शेरबत्स्की के छात्र रोसेनबर्ग का उल्लेख किया, जिन्होंने जापान में कई वर्षों तक अध्ययन किया और वहाँ ध्यान का अनुभव प्राप्त किया। उन्होंने अलेक्जेंडर पियतिगॉर्स्की को संदर्भित किया जो एक सोवियत विसम्मत, दार्शनिक, दक्षिण एशियाई दर्शन और संस्कृति के विद्वान, इतिहासकार, भाषाविद् और लेखक, जो संस्कृत, तमिल, पालि, भोट, जर्मन, रूसी, फ्रेंच, इतालवी और अंग्रेजी के ज्ञाता थे और जिन्हें ओरिएंटल एंड अफ्रीकन स्टडीज, लंदन के स्कूल के उनके छात्र स्नेह भाव से स्मरण करते हैं।
अपनी समापन टिप्पणियों में, परम पावन ने कहा कि पालि परंपरा, जिसमें बुद्ध की मूलभूत शिक्षा सम्मिलित है, अपनी व्याख्या के लिए ग्रंथीय उद्धरण पर निर्भर करती है। परन्तु संस्कृत परम्परा तर्क और जांच पर निर्भर है। तिब्बत से इसका परिचय कराया गया जब सम्राट ठिसोंग देचेन ने महान भारतीय दार्शनिक और तर्कशास्त्री शांतरक्षित को हिम भूमि में बौद्ध धर्म स्थापित करने के लिए आमंत्रित किया गया। श्रमसाध्य अध्ययन और तर्क में लगकर बाद की तिब्बतियों की पीढ़ियों ने उनकी महत्वाकांक्षा पूरी की है और इस परम्परा को जीवित रखा है।
"हम सभी दुःख से मुक्त होना चाहते हैं, यह कुछ ऐसा है जिसके लिए किसी अन्य प्रमाण की आवश्यकता नहीं। इसको समझने की कुंजी चित्त के प्रकार्य की समझ है, जो प्राचीन भारतीय परम्पराओं में स्पष्ट की गई है जिसमें शमथ - ध्यान - और विपश्यना - विशेष अंतर्दृष्टि शामिल है। प्रतीत होता है कि बुद्ध ने विभिन्न समयों पर विभिन्न व्याख्याएँ दी हैं। यह इसलिए नहीं क्योंकि वे भ्रमित थे, और न ही वे दूसरों को भ्रमित करने का प्रयास कर रहे थे, परन्तु इसलिए कि वह विभिन्न क्षमताओं और प्रकृति के लोगों के लिए जो सबसे अधिक उपयुक्त था उसकी शिक्षा दे रहे थे।
"एक बौद्ध भिक्षु के रूप में, मैंने वैज्ञानिक खोजों से बहुत कुछ सीखा है और वैज्ञानिकों ने हमसे चित्त के विषय में सीखा है, और किस प्रकार हम विनाशकारी भावनाओं का सामना कर सकते हैं। जब ४० वर्ष पूर्व हमारा संवाद प्रारंभ हुआ तो हमारे विहारों में कुछ प्रतिरोध था, पर अब नहीं। भविष्य में मुझे आशा है कि रूसी वैज्ञानिकों को पश्चिम के वैज्ञानिकों के साथ हमारी बैठकों में सम्मिलित होने के लिए आमंत्रित करना संभव होगा।"
इस बैठक के समन्वयक तेलो टुल्कु रिनपोचे ने इस बैठक में भाग लेने हेतु समय निकालने और परिवर्तनों के पुनर्निर्धारण को स्वीकार करने के लिए परम पावन को धन्यवाद दिया। सभी प्रस्तुतकर्ताओं की ओर से तात्याना चेरनिगोव्स्काया ने परम पावन को 'एक छोटी भेंट' प्रदान की, जो वास्तव में सेंट पीटर्सबर्ग के संग्रह से प्रतीक चिन्ह वाली 'पवित्र रूस' नाम से एक विशाल पुस्तक थी। उन्होंने इसे स्वीकार किया और दिनांत के लिए जाने से पूर्व अपनी सराहना व्यक्त की।