बोस्टन, एमए, संयुक्त राज्य अमेरिका - एक उज्जवल और हवा से भरी प्रातः में परम पावन दलाई लामा गाड़ी से शहर और पूर्वी तट के ऊपर व नीचे के २००० की संख्या में एकत्रित तिब्बतियों की सभा को संबोधित करने हेतु बोस्टन गए। मंच के पीछे उन्होंने वयोवृद्धों और दुर्बलों को आश्वस्त किया।
कार्यक्रम का प्रारंभ एक प्रतिनिधि द्वारा मैसेचुसेट्स के गवर्नर के संदेश के सम्प्रेषण, एक और बोस्टन के महापौर की ओर से एक उपहार प्रदान करने और बोस्टन तिब्बती एसोसिएशन के अध्यक्ष के द्वारा एक रिपोर्ट की प्रस्तुति से हुई। परम पावन ने प्रारंभ किया,
"मैं यहाँ रिची डेविडसन से मिलने के लिए आया हूँ, इसलिए आप सब से भी मिलने का अवसर प्राप्त हुआ। हर स्थान के तिब्बतियों की तरह आप तिब्बत की भावना को जीवंत रखे हुए हैं। हम ५८ वर्षों से निर्वासन में हैं। भारत में हमारा केन्द्रीय तिब्बती प्रशासन है। प्रमुख महाविहार पुन: स्थापित किए गए हैं और वे फल फूल रहे हैं। निर्वासन में तिब्बती विश्व भर में फैले हुए हैं, पर हम जहां भी हों, अपनी पहचान और परम्पराओं को बनाए रखने के लिए स्थानीय समुदाय बनाते हैं, जैसा कि आपने यहाँ किया है। जो लोग तिब्बत के बाहर स्वतंत्र देशों में रहते हैं, उन पर यह उत्तरदायित्व है कि वे तिब्बत में अपने भाइयों और बहनों, जिनकी दृढ़ता प्रभावजनक है, को प्रोत्साहित करने के लिए अपना उत्साह बनाए रखें।
"तिब्बती में शिक्षा पर प्रतिबंध के समक्ष भी उनकी भावना प्रबल बनी हुई है। पर वे जो कुछ चाहते हैं, उसे करने के लिए स्वतंत्र नहीं हैं। भेदभाव यह है कि जब तिब्बतियों की उनके समुदाय के प्रति निष्ठा को शंका से देखा जाता है और उन पर अलगाववादी की मोहर लगा दी जाती है, जबकि चीनियों की उनके समुदाय के प्रति निष्ठा की प्रशंसा होती है। समानता की आवश्यकता है।
"ऐतिहासिक रूप से तिब्बत ७वीं, ८वीं और ९वीं शताब्दी में एक मुक्त और स्वतंत्र देश था, जिसके बाद यह विखंडित हो गया। उसके बाद से जिसने हमें एकजुट कर रखा है वह हमारी आम धर्म, संस्कृति और भाषा है। आज, यह बहुत महत्वपूर्ण है कि तीन प्रांतों के तिब्बती एकजुट रहें। पीआरसी के भीतर रहते हुए हम वास्तविक स्वायत्तता चाहते हैं, ताकि हम अपनी संस्कृति, भाषा और परम्पराओं को जीवित रख सकें।"
परम पावन ने कहा कि १९५९ में कोई न जानता था कि उन तिब्बतियों का क्या होगा जो शरणार्थी बन गए हैं। प्राथमिकता जीवित रहने के तरीके ढूंढना था और भारत सरकार ने उदार भाव से सहायता की।
"एक समय था जब तिब्बती बौद्ध धर्म लामावाद के रूप में खारिज कर दिया गया था मानो जैसे कि यह उचित बौद्ध परम्परा न हो," परम पावन ने टिप्पणी की। "जब से हम निर्वासन में आए, हम यह दिखाने में सक्षम हुए हैं कि यह वास्तव में बौद्ध धर्म का एक विशुद्ध और समग्र रूप है। नालंदा से सौंपी गई परंपरा में गहन दर्शन और तर्क है, साथ ही चित्त और भावनाओं के प्रकार्य की समृद्ध समझ भी शामिल है। हमने इसे १००० से भी अधिक वर्षों से जीवित रखा है और अब मानवता के कल्याण में सकारात्मक योगदान करने के लिए हम इसमें से निकालने की स्थिति में हैं।
"पिछले कुछ समय से मैं भारत में लोगों को अध्ययन करने के लिए आग्रह कर रहा हूँ, एक गहन समझ का विकास करने के लिए जो मात्र विश्वास पर निर्भर न हो। लद्दाख से लेकर अरुणाचल प्रदेश तक के भिक्षु और भिक्षुणी विहारों में अध्ययनों के प्रयास किए जा रहे हैं। यही वह आधार है जिस पर बौद्ध धर्म आने वाली कई सदियों तक रहेगा। चीन ऐतिहासिक दृष्टि से एक बौद्ध देश था, जो नालंदा परंपरा का अनुपालन करता था, जैसा कि हम करते हैं। चीन में जिस बात का अभाव था वह तर्क और ज्ञानमीमांसा की कमान थी, जो हमने बनाए रखा है और उसी से मेल खाता श्रमसाध्य अध्ययन।
"७वीं शताब्दी में, थोनमी संभोट ने प्रारूप के रूप में तिब्बती लिपि की रचना की थी या जो पहले से ही एक आदर्श के रूप में भारतीय वर्णमाला को लेकर अस्तित्व में था, उसमें सुधार किया। ८वीं शताब्दी में, ठिसोंग देचेन शांतरक्षित को आमंत्रित करने के लिए चीन की ओर नहीं, पर भारत की ओर उन्मुख हुए। प्रारंभ से ही शांतरक्षित और उनके बाद उनके शिष्य कमलशील ने तर्क व कारण के महत्व की स्थापना की। इसी कारण विगत ३० से अधिक वर्षों से हम आधुनिक वैज्ञानिकों के साथ सफल संवाद करने में सक्षम हुए हैं। इस बात की शंका कि दिमाग मस्तिष्क के एक प्रकार्य से अधिक कुछ नहीं है, ने न्यूरोप्लास्टिक की स्वीकृति दी है, इस बात की पहचान कि चित्त को विकसित करने से मस्तिष्क में परिवर्तन हो सकता है।
"जो हमें सौंपा गया है, इस नालंदा परम्परा को बनाए रखने का हमारा उत्तरदायित्व है, मोह के कारण नहीं अपितु इसलिए कि यह हमें दूसरों की सेवा करने का अवसर प्रदान करता है। यह सुनिश्चित करना कि युवा पीढ़ी को भोट भाषा का ज्ञान है, सुनिश्चित करता है कि वे भी इससे ग्रहण कर सकते हैं।"
परम पावन ने सभा का बोधिचित्तोत्पाद में नेतृत्व करते हुए अपनी बात समाप्त की और सभा ने शरण गमन के पद का तीन बार पाठ कियाः
बुद्ध, धर्म और उत्तम संघ में
मैं शरणागत होता हूँ जब तक मुझे बुद्धत्व नहीं प्राप्त होता,
मेरे द्वारा किए गए दान और अन्य पुण्य संभार से
जगत के हित के लिए मैं बुद्धत्व प्राप्त करूं
इसके बाद उन्होंने बुद्ध, अवलोकितेश्वर, मंजुश्री, आर्य तारा, हयग्रीव और इत्यादि के मंत्रों का संचरण किया और एकत्रित लोगों से अपने जीवन को सार्थक बनाने के लिए प्रोत्साहित किया।
परम पावन ने उल्लेख किया कि २०१५ में उनके चिकित्सकों ने प्रोस्टेट कैंसर का संकेत पाया और उनका पिछले वर्ष शल्य चिकित्सा के स्थान पर केन्द्रीकृत रेडियोधर्मी उपचार करने का निर्णय लिया। इस वर्ष मेयो क्लिनिक में उनकी हाल की जांच से पता चला है कि सभी निशान मिट गए हैं। परम पावन ने घोषणा की कि वह शारीरिक रूप से स्वस्थ, मानसिक रूप से प्रखर हैं और अच्छी तरह सोते हैं।
मध्याह्न भोजनोपरांत परम पावन अपने पुराने मित्र, मनोविज्ञान और मनश्चिकित्सा के प्रोफेसर, रिची डेविडसन और मानव हितों के बारे में चर्चा करने वाले व्यापारिक नेताओं के साथ सम्मिलित हुए। उन्होंने उन्हें बताया कि सौहार्दता आधारभूत बुनियादी मानव प्रकृति है क्योंकि हमारा जीवन दूसरों की देखभाल करने की भावना पर निर्भर होता है। पर आज कल्याण की खोज के लिए दबाव का कारण यह है कि हम स्वयं को ऐसी समस्याओं का सामना करता पाते हैं जो क्रोध, आत्म-केंद्रितता और असहिष्णुता से प्रेरित हैं।
"हम सभी करुणा के एक जैविक बीज से संपन्न हैं, पर हमें बुद्धि से इसका पोषण करना है। यदि हम दिशा नहीं बदलते तो इस शताब्दी का अंत उसी तरह होगा जैसे पिछली का हुआ था, जो धमकी, हिंसा और रक्तपात से भरी हुई थी। कोई वह नहीं चाहता।
"यदि कुछ अच्छा करने योग्य़ है तो करो। यदि आप असफल होते हैं तो पश्चाताप का कोई कारण न होगा। आप पुनः प्रयास कर सकते हैं। बिना प्रयास किए मृत्यु नैराश्य युक्त मृत्यु होगी। हम सब के पास बेहतर विश्व बनाने में योगदान करने के अवसर हैं; हमें दूरदर्शिता से उसे पकड़ना होगा। मैं इस बात से प्रोत्साहित हूँ कि इतने सारे लोग मानवता के कल्याण में रुचि ले रहे हैं। यह निश्चित रूप से आशा का संकेत है।"
कल सुबह, परम पावन बोस्टन से फ़्रेंकफर्ट उड़ान भरेंगे; उनकी भारत लौटने की यात्रा का प्रथम चरण।