समतनलिंग विहार, सुमुर, नुबरा घाटी, जम्मू और कश्मीर - १४ जुलाई २०१७ आज प्रातः जब परम पावन दलाई लामा समतनलिंग विहार के नीचे एक पहाड़ी बाग के प्रवचन स्थल पर पहुँचे, तो सिंहासन के समक्ष युवा भिक्षु गहन शास्त्रार्थ में संलग्न थे। परम पावन ने अनुमानित ६००० लोगों के खचाखच भरे श्रोताओं का अभिनन्दन कियाः
"एक बार पुनः हम इस मनमोहक छायादार बगीचे में एकत्रित हुए हैं। हमारे साथ अतुलनीय गदेन ठिसूर रिनपोछे हैं, जिन्होंने जब वे गदेन सिंहासन पर थे, जब वे डेपुंग के उपाध्याय थे और जब वे ग्युमे तांत्रिक महाविहार के उपाध्याय थे तो उनकी देख रेख में रहते भिक्षुओं की शिक्षा में सुधार के लिए अथक प्रयास किया। मैं उन्हें धन्यवाद देना चाहता हूँ।
"अभी हमने जिस हृदय सूत्र का पाठ किया है वह पच्चीस पंक्तियों में प्रज्ञा पारमिता सूत्र नाम से भी जाना जाता है। प्रज्ञा पारमिता सूत्र बुद्ध की प्रमुख शिक्षाएं हैं। मैत्रेय का 'अभिसमयालंकार' उनकी अंतर्निहित सामग्री को व्याख्यायित करता है और इसीलिए मुझे उसके वंदना के छंदों को दोहराना अच्छा लगता है। नागार्जुन की 'मूल मध्यमकारिका' उसके स्पष्ट विषय को व्याख्यायित करती है और मैं उस से भी वंदना के श्लोकों को दोहराना पसंद करता हूँ।
"पिछले लगभग ३००० वर्षों से धर्म लोगों द्वारा सामना की जा रही समस्याओं और चुनौतियों के उत्तर के रूप में उभरा है। ये आशा का स्रोत हैं। इनके समर्थन के लिए दार्शनिक विचार सांख्य परम्परा के रूप में संभव है भारत में प्रारंभ हुए हों। लगभग २६०० वर्ष पूर्व बुद्ध शाक्यमुनि प्रकट हुए। उन्होंने एकाग्रता विकसित करने के लिए प्रचलित परम्पराओं में प्रभुत्व प्राप्त किया, पर यह जाना कि हम जिन समस्याओं का सामना करते हैं वे हमारी आत्म के प्रति भ्रांति से उत्पन्न होती हैं, प्रारंभ से ही उन्होंने नैरात्म्य की शिक्षा दी।
"हमारे अधिकांश मंदिरों और विहारों में हम कांग्यूर और तेंग्यूर का संग्रह रखते हैं - बुद्ध के अनुवादित शब्द और उनके व्याख्यात्मक ग्रंथ जिनकी रचना भारतीय आचार्यों द्वारा विश्लेषण के परिणामस्वरूप की गई।
"तिब्बती सम्राट सोङ्चेन गमपो ने पहले बौद्ध धर्म में गंभीर रुचि ली थी परन्तु बाद के धर्मराज ठिसोंग देचेन, उपाध्याय शांतरक्षित और आचार्य पद्मसंभव तीनों के प्रयासों के कारण ही तिब्बत में बौद्ध धर्म ने जड़ पकड़ी। इसके उपरांत तिब्बती आचार्यों ने बौद्ध विचारों पर अन्य २०,००० भाष्यों का योगदान दिया और ऐसा करते हुए परम्परा को जीवंत रखने में योगदान दिया। चार प्रमुख बौद्ध दार्शनिक परम्पराएँ हैं और उनके विचारों का प्रचार करने वाले ग्रंथ भोट भाषा में अनूदित हैं। वास्तव में, बुद्ध की सम्पूर्ण देशना भोट भाषा में व्यापक रूप से उपलब्ध है।
"बुद्ध की यह समूची शिक्षा उत्तर में मंगोलिया में फैली है, जो अब आंतरिक और बाह्य मंगोलिया में विभाजित है और यह बुरेशिया, कल्मिकिया और तुवा के रूसी गणराज्यों से संबंधित है। यह सम्पूर्ण हिमालय क्षेत्र में भी फैला है। १००० से अधिक वर्षों से हमने इस परम्परा को जीवित रखा है।
"मैं अब एक वृद्ध व्यक्ति हूँ और मैंने विश्व भर से सभी प्रकार के लोगों से भेंट किया है। मैंने देखा है कि यह लोगों के चित्त की व्याकुलता है जो उन्हें दुखी करती है और ये नकारात्मक भावनाएँ क्रोध, घृणा, अहंकार और प्रतिस्पर्धा जैसे नकारात्मक भावनाओं के परिणाम स्वरूप अंदर से उत्पन्न होती हैं। हमें ऐसे नकारात्मक भावनाओं की कमियों को बेहतर रूप से समझने की आवश्यकता है, पर साथ ही उनके सकारात्मक विपरीतों जैसे उनके प्रेम और स्नेह जैसे के फायदों को समझने की आवश्यकता है। हमें धार्मिक होने की आवश्यकता नहीं है, पर चित्त के प्रकार्य के बारे में सीखना और अपनी भावनाओं से निपटने में कारण और तर्क के उपयोग से मदद मिल सकती है। यही कारण है कि नालंदा के आचार्यों की रचनाएँ आज के विश्व के लिए प्रासंगिक हैं।"
नुबरा घाटी में कई दिनों से, परम पावन ने भोट भाषा में प्रवचन दिए हैं और कभी-कभी अंग्रेजी में भी बात रखी है, पर उनके शब्दों का धीरे और निरंतर रूप से लद्दाखी बोली में डॉ लोबसंग छेवांग द्वारा अनुवाद किया गया है। कभी-कभार परम पावन व्यापक व्याख्या देते हैं और वे डॉ लोबसंग को संक्षेपिकरण करने के लिए प्रोत्साहित करते हैं।
तिब्बतियों के निर्वासन के प्रारंभिक दिनों की बात करते हुए परम पावन ने बताया कि किस तरह उन्होंने नमज्ञल विहार, ग्युमे और ग्युतो तांत्रिक महाविहार जैसे संस्थान, जो पहले अधिकतर तांत्रिक अनुष्ठानों तक अपने को सीमित रखते थे, उनको दार्शनिक अध्ययन के लिए प्रोत्साहित किया। इसी तरह, यद्यपि तिब्बत में भिक्षुणियों द्वारा हाल ही में शास्त्रीय ग्रंथों का अध्ययन करने वाली कोई प्रथा न थी, उन्होंने भिक्षुणी विहारों को अध्ययन के कार्यक्रमों को प्रारंभ करने के लिए प्रोत्साहित किया था। इसका एक सीधा परिणाम यह था कि पिछली सर्दियों में २० से अधिक वर्षों के कठोर अध्ययन को मान्यता देते हुए बीस भिक्षुणियों को गेशे-मा की उपाधि से सम्मानित किया गया।
"आज का प्रवचन महान आचार्य तथा मंजुश्री के प्रकट रूप, जे चोंखापा, का ग्रंथ है, जिनके संग्रहीत लेखन १८ खंडों में निहित हैं," परम पावन ने कहा। "दर्शन और तंत्र दोनों के संबंध में उनका स्पष्टीकरण इस तरह का था कि जब उन्होंने तिब्बत में अपने गुरु रेंदावा को 'तिब्बत के विद्वानों के शीर्ष रत्न' कहकर घोषित किया तो रेंदावा ने प्रशंसा के प्रत्युत्तर में कहा कि यह उनके लिए अधिक उपयुक्त था। भारतीय शास्त्र पर उनका अध्ययन पूर्ण था और उन पर विशेलेषण उल्लेखनीय। प्रारंभ में वह अपने शिक्षक लामा उमापा की दृष्टि की सहायता से मंजुश्री से परामर्श कर सके और बाद में अपने स्वयं की दृष्टि विकसित कर सके। यह मंजुश्री ही थे जिन्होंने उनसे कहा था कि रेंदावा ही उन्हें मध्यमक की शिक्षा देने के लिए श्रेष्ठ होंगे और सुझाया कि जो शिक्षक नहीं समझा सके उसे वे भारतीय ग्रंथों को पढ़कर खोज सकते थे।
"एकांतवास में उन्हें अपनी प्रथम दृष्टि में मंजुश्री के दर्शन हुए जिस दौरान उन्हें शून्यता पर एक संक्षिप्त व्याख्या दी गई जिसे समझने में उन्हें कठिनाई हुई। मंजुश्री ने उन्हें उन अभ्यासों को करने की सलाह दी जो क्लेशों को दूर करेंगे और पुण्य संभार करेंगे, अतः ऐसा करने के लिए उन्होंने पुनः एकांतवास किया। उन्हें मध्यमक के पांच आचार्यों के भी दर्शन हुए - नागार्जुन, आर्यदेव, बुद्धपालित, भवविवेक और चंद्रकीर्ति। उनमें से बुद्धपालित, जिन्हें उन्होंने देखा कि वे नीले श्याम रंग के थे आगे आए और जो पुस्तक उन्होंने पकड़ी थी उससे चोंखापा के माथे को छुआ। इसके बाद, उन्होंने बुद्धपालित के नाम से जाना जाने वाला ग्रंथ प्राप्त किया और पढ़ा और शून्यता की अंतर्दृष्टि प्राप्त की।
"जब मैं छोटा था, तब मैं एक प्रातः 'प्रतीत्य समुत्पाद की स्तुति' को कंठस्थ करने में सक्षम हुआ। बाद में, मैंने नमज्ञल विहार के भिक्षुओं से भी इसे कंठस्थ करने को कहा। यह एक ऐसा ग्रंथ है जो चोंखापा द्वारा शून्यता की समझ में लगाए कठोर परिश्रम का आशीर्वाद धारण करता है। मैंने इसका संचरण किन्नौरी लामा गेन रिगज़िन तेनपा से प्राप्त किया, जिन्होंने इसे खंगसर रिनपोछे से सुना था।
"एक समय जब चोंखापा की रचना ‘नेयार्थ नीतार्थ सुभाषित सार' का वाराणसी में हिन्दी में अनुवाद किया जा रहा था, पंडित त्रिपाठी और उपाध्याय शामिल थे। मैंने त्रिपाठी से जे रिनपोछे की रचना के संदर्भ में विचार करने के लिए कहा और पूछा कि क्या वे नालंदा के विद्वानों के बीच स्थान पा सकते हैं। त्रिपाठी ने उत्तर दिया कि वे न केवल उनके बीच अपना स्थान बना सकते हैं पर परम श्रेष्ठ माने जा सकते हैं।
'प्रतीत्य समुत्पाद की स्तुति' के पाठ के दौरान, परम पावन ने टिप्पणी की कि हमारे दुखों का मुख्य कारण हमारे स्वतंत्र रूप से अस्तित्व रखते एक आत्म की ग्राह्यता है और आगे कहा कि यदि हम क्रोध व मोह के स्रोत ढूंढे तो हम पाएंगे कि यह अज्ञान है। उन्होंने यह भी बताया कि वस्तुएँ स्वतंत्र प्रतीत होती है, जबकि वे नहीं हैं, अतः वे एक माया की तरह दिखाई देती हैं। अंत में उन्होंने ‘सुलक्ष्य’ से चोंखापा की सलाह को उद्धृत कियाः
"प्रारंभ में मैंने विस्तृत श्रुत की बहुत खोज की, मध्य में सभी ग्रन्थ उपदेश रूप में उभरीं और अंत में दिन और रात अभ्यास किया, वे सभी भी धर्म के फलने फूलने के लिए परिणामना की।"
परम पावन ने इस स्पष्टीकरण के साथ समाप्त किया कि उन्होंने 'प्रतीत्य समुत्पाद की स्तुति' का यह पाठ किया था क्योंकि उनके स्वयं के शिक्षक, गदेन ठिसूर रिज़ोंग रिनपोछे ने उनसे अनुरोध किया था।
श्रोताओं में लमडोन स्कूल के बच्चों को देखकर, परम पावन ने मंजुश्री स्तुति का संचरण दिया जो भोट भाषा में गंगलोमा के रूप में जाना जाता है। उन्होंने उनसे कहा कि जब वे एक बच्चे थे तो वह रोजाना तीन बार उसका पाठ करते थे और उन्होंने उन्हें भी ऐसा करने के लिए कहा। इसके बाद उन्होंने मंजुश्री के अर प च न धी मंत्र का संचरण किया।
यह कहते हुए कि आज उनकी नुबरा घाटी की इस यात्रा का अंतिम भाग था, उन्होंने श्रोताओं से कहा कि वे उन्हें बोधिचित्तोत्पाद में नेतृत्व करना चाहते हैं। उन्होंने कहा, "मात्र शून्यता की समझ आपको बुद्धत्व तक नहीं ले जाएगी, आपको बोधिचित्त की भी आवश्यकता है। यदि आपमें सौहार्दता है और आप दूसरों की चिंता करते हैं तो आप सुखी होंगे और जिस समुदाय में आप रहते हैं, वह भी सुखी होगा। अगली बार फिर मिलेंगे।" कल भोर होते ही परम पावन सड़क मार्ग से लेह के लिए लौटेंगे।