नई दिल्ली, भारत - आज मध्याह्न जब परम पावन दलाई लामा चिलचिलाती धूप में दिल्ली के इंडिया इंटरनेशनल सेंटर पहुँचे तो उनकी पुरानी मित्र डॉ कपिला वात्स्यायन और उनके मेजबान अरुण शौरी ने उनका स्वागत किया। सभागार में हार्पर कोलिन्स भारत के एक प्रतिनिधि ने इस अवसर का परिचय, अरुण शौरी की नई पुस्तक 'टू सेंट्स' का विमोचन कहते हुए दिया, जो रामकृष्ण परमहंस और रमण महर्षि पर केंद्रित है।
अपनी भूमिका में अरुण शौरी ने परम पावन की प्रशंसा की। उन्होंने कहा कि यह देखते हुए कि निर्वासन में तिब्बतियों की संख्या करोल बाग की आबादी से कम है, यह तथ्य कि तिब्बत विश्व की चिंता का विषय है, उनके प्रयासों के कारण है। उन्होंने प्रशंसक भाव से यह भी टिप्पणी की कि परम पावन यह दृष्टिकोण रखते हैं कि बौद्ध धर्म को तथ्यों का सामना करना चाहिए। वे कहते हैं कि जहाँ प्रयोगसिद्ध अवलोकन शास्त्रों के विपरीत जान पड़ते हैं वहाँ तथ्यों को प्रधानता दी जानी चाहिए।
शौरी ने घोषणा की कि यह उनकी प्रथा है कि वह अपने बेटे आदित्य, जिन्हें मस्तिष्क पक्षाघात है, द्वारा अपनी किताबें विमोचित करवाते हैं। इस अवसर पर उन्होंने उससे परम पावन को एक प्रतिलिपि प्रस्तुत करने के लिए कहा। आदित्य ने यह भी किया और साथ ही साथ परम पावन के नत मस्तक पर अपने हाथ भी रखा - जिससे दर्शक भावाभिभूत हो गए। उन्होंने समझाया कि उन्होंने सम्प्रति तंत्री वैज्ञानिक ज्ञान के प्रकाश में दोनों संतों के जीवन, उनकी अकथनीय चरम अनुभूतियों, देह से परे की अनुभूतियों और मरणासन्न के अनुभवों के पक्षों की जांच का प्रयास किया है। उन्होंने लगभग २५० की संख्या के श्रोताओं को बताया कि उन्होंने तीन वक्ताओं को टिप्पणी करने हेतु आमंत्रित किया हैः उनके वैज्ञानिक सहयोगी- डॉ अमरीश सात्विक, पूर्व विदेश सचिव - श्याम सरन और प्रतिष्ठित न्यायिक - फली एस नरीमन।
डॉ सात्विक ने कहा कि ऐसे सान्निध्य में वह स्वयं को अपर्याप्त पाते हैं। उन्होंने पुस्तक को तंत्रिका-धर्मशास्त्र के कार्य के रूप में वर्णित किया। उन्होंने यह स्वीकार किया कि वे इसे लेकर शंकाकुल थे लेकिन प्रश्नों की पहेलीनुमा प्रकृति ने उन्हें प्रभावित किया कि चरम अनुभव क्या है? मस्तिष्क में क्या होता है? और कारण क्या हैं? उन्होंने हेमलेट को उद्धृत करते हुए समाप्त किया : 'होरेशियो, जितने तुम्हारे दर्शन के स्वप्न में पाए जाते हैं उसकी तुलना में स्वर्ग और पृथ्वी में और अधिक वस्तुएँ हैं।'
श्याम सरन ने अरुण शौरी को एक सुंदर पुस्तक के लिए और यह बताने के लिए कि मानसिक प्रशिक्षण मस्तिष्क को परिवर्तित कर सकता है, बधाई दी। उन्होंने टिप्पणी की कि पुस्तक स्पष्ट करता है कि दो संत स्पष्ट रूप से अच्छे व्यक्ति थे और उन्होंने बुद्ध को उद्धृत किया कि "मैं जो कहता हूँ उसे इसलिए स्वीकार न करें, क्योंकि मैं कहता हूँ; अपने आप खोजें, स्वयं इस पर चिंतन करें।"
फली नरीमन ने विनोदपूर्वक पुस्तक के विषय में बात की और कहा कि रमण महर्षि ने सुझाया था कि एक धर्म से दूसरे धर्म में धर्मांतरण करना मूर्खता है और यह कहा कि महत्वपूर्ण बात यह है कि अपने धर्म पर बने रहें और उसका उचित रूप से पालन करें।
जब परम पावन के बोलने का अवसर आया तो उन्होंने श्रोताओं से कहा कि उन्हें सदैव अनौपचारिक होना अच्छा लगता है, उन्हें भाइयों और बहनों के रूप में संबोधित किया और बताया कि वे खुश हैं कि उन्हें संबोधित करने का अवसर प्राप्त हुआ है। उन्होंने कहा कि वे अपने समक्ष इतने सारे पुराने मित्रों के चेहरों को देख कर बहुत खुशी का अनुभव करते हैं, मित्र जो उन्होंने भारत में ५८ वर्षों के जीवनकाल में बनाये हैं। इसने उन्हें उनके चित्त में एक सार्थक जीवन जीने की बात रखी है, जिसे वे दूसरों की सेवा करने, उन्हें सुख देने और कम से कम उनका कोई अहित न करने के रूप में परिभाषित करते हैं। अरुण शौरी की ओर मुड़ते हुए उन्होंने कहा कि जिस तरह वे अपने बेटे की देखभाल करते हैं, उसकी वे अत्यंत सराहना करते हैं और आज उससे आशीर्वाद की प्राप्ति ने उनके मर्म को स्पर्श किया है।
वे सोच रहे थे कि "मुझे क्या कहना चाहिए?", "आज जब मैं अपने भारतीय मित्रों से मिलता हूँ तो यह तथ्य मेरे समक्ष आता है कि यद्यपि मेरी यह काया तिब्बती है पर अध्ययन और ज्ञान के विषय में, मैं आपके से अधिक भारतीय हो सकता हूँ। इसका कारण यह है कि मैंने प्राचीन भारत और नालंदा परम्परा से नकारात्मक भावनाओं से निपटने और आंतरिक मूल्यों को सशक्त करने के विषय में सीखा है। हम तिब्बती भारतीय गुरुओं के चेले हैं जिन्होंने प्राचीन भारत के ज्ञान को बनाए और जीवित रखा जो हमें आप से प्राप्त हुआ। मेरी प्रतिबद्धताओं में से एक, इस देश में उस प्राचीन भारतीय ज्ञान को पुनर्जीवित करना है।
"आप भौतिक रूप से अग्रसर हैं, पर इसे सशक्त आंतरिक मूल्यों के साथ भी जोड़ना चाहिए। भारत एक ऐसा देश है जो आधुनिक शिक्षा को आंतरिक मूल्यों और प्राचीन ज्ञान के साथ जोड़ सकता है, जो आंतरिक शांति के स्रोत हैं। इसमें नकारात्मक भावनाओं से निपटने और जो सकारात्मक हैं उनका पोषण करना शामिल है। हम विश्व शांति की संभावनाओं के बारे में बात करते हैं, पर सबसे पहले हमें आंतरिक शांति प्राप्त करने की आवश्यकता है।
"६० वर्षों से अधिक जो मैंने पढ़ा और विश्लेषण किया है, प्राचीन भारतीय ज्ञान के बारे में जो मैंने सीखा है, उदाहरणार्थ क्रोध का क्या प्रयोजन है, के कारण मेरी विनाशकारी भावनाएँ लगभग विलुप्त हो गई हैं। बौद्ध धर्म के आने से पहले, हम तिब्बती योद्धा थे, लेकिन भारत से आने वाले प्रकाश के साथ हमने अपनी हिंसक प्रवृत्तियों को रोक दिया और एक अधिक शांतिपूर्ण, सभ्य राष्ट्र बन गए।
"अतः मैं भारतीयों से अपील करता हूँ कि कृपया बुद्ध की सलाह की भावना से अपनी दीर्घकालीन परम्परा की ओर अधिक ध्यान दें और जो आप सुनें उसे अपना बनाने से पूर्व जांचे व परीक्षण करें। बीसवीं सदी के पूर्वार्ध में वैज्ञानिकों ने केवल मस्तिष्क के कार्य को स्वीकार किया था, अब वे चित्त के कार्य के बारे में जानने में अधिक रुचि रखते हैं।"
परम पावन ने श्रोताओं से चुनौतीपूर्ण प्रश्न पूछने के लिए प्रोत्साहित किया और पहला था, कि क्या कर्म का कार्य मात्र कोरी कल्पना है। उत्तर में उन्होंने कार्यकारण और अवलोकन के बारे में बात की कि वस्तुओं का एक प्रमुख कारण और सहायक स्थितियाँ होती हैं। उन्होंने चेतना के विभिन्न स्तरों की बात की और बताया कि किस प्रकार ऐन्द्रिक चेतना अपेक्षाकृत स्थूल होती है। स्वप्न के स्तर पर चेतना अधिक सूक्ष्म होती है, गहन निद्रावस्था में यह सूक्ष्मतर होती है, जब हम बेहोश हो जाते हैं तब तक यह और अधिक गहन होती है और मृत्यु के अवसर पर चेतना का सूक्ष्मतम स्तर प्रकट होता है।
परम पावन ने आगे बताया कि किस तरह लगभग ३० लोगों के बारे में जिनके बारे में वे विगत ५० वर्षों से जानते हैं जिन्हें इस सूक्ष्मतम चेतना का अनुभव हुआ है। परिणामस्वरूप उनकी नैदानिक मृत्यु के उपरांत उनका शरीर १, २ या ३ सप्ताह तक ताजा बना रहा जब तक कि सूक्ष्मतम चेतना ने शरीर का त्याग नहीं किया। उन्होंने कहा कि यह इस सूक्ष्मतम चेतना की निरंतरता है जो जीवन के बाद के जीवन की निरंतरता का आधार है।
"हमारे भविष्य की गुणवत्ता हमारे कर्मों पर निर्भर करती है। यदि वे सकारात्मक हैं तो परिणाम अच्छा होगा, यदि वे हानिकारक हैं तो परिणाम असंतोषजनक और दुखी होंगें। हमारे आगामी जीनव की गुणवत्ता हमारे कर्मों की गुणवत्ता पर निर्भर करती है।"
यह पूछे जाने पर कि किस तरह सहिष्णुता को सशक्त किया जाए, परम पावन ने शांतिदेव के 'बोधिसत्वचर्यावतार' को पढ़ने का सुझाव दिया। अध्याय ६ बताता है कि किस तरह धैर्य विकसित किया जाए, जबकि अध्याय ८ जो ध्यान पर केंद्रित है, हमें बताता है कि हमारी भावनाओं को किस तरह नूतन रूप दिया जाए।
इस जीवन को सर्वश्रेष्ठ बनाने हेतु सलाह के लिए अनुरोध किए जाने पर परम पावन ने कहा कि सभी ७ अरब मानव शारीरिक, मानसिक और भावनात्मक रूप से समान हैं। सभी अप्रियता से मुक्त होकर शांति से और सुख से रहना चाहते हैं। पर फिर भी हम इतनी सारी समस्याओं का सामना करते हैं जो स्वनिर्मित हैं। यह हमारी आत्म- केन्द्रित तथा अदूरदर्शिता की प्रवृत्ति के कारण है। हम भूल जाते हैं कि हम सामाजिक प्राणी हैं जिनकी आधारभूत प्रकृति करुणाशील है। उन्होंने कहा कि हमें अपनी शिक्षा प्रणाली की पुनः जांच करनी होगी। इस समय इसमें अधिकांश लक्ष्य भौतिक हैं जिसमें आंतरिक मूल्यों पर चर्चा करने के लिए बहुत कम समय है। करुणा और सौहार्दता के स्पष्टीकरण को प्रस्तुत करने की आवश्यकता है। उन्होंने धर्मनिरपेक्ष नैतिकता के पाठ्यक्रम का उल्लेख किया, जिसमें उन्होंने रुचि ली है, और जो विद्यालयों में पूरा होने और कार्यान्वयन के निकट है।
एक प्रश्नकर्ता जानना चाहते था कि परम पावन किसे वास्तविकता मानते हैं। उन्होंने दृश्य और यथार्थ के बीच के अंतर का उल्लेख किया, कि वस्तुएँ स्वतंत्र रूप से अस्तित्व ली हुई प्रतीत होती हैं, पर जब उनका परीक्षण और विश्लेषण किया जाता है तो वे उस रूप में अस्तित्व रखती दिखाई नहीं देतीं। अज्ञान इस प्रकार की सोच है कि वस्तुएँ उस रूप में अस्तित्व रखती हैं जैसी दृश्य होती हैं; प्रज्ञा अज्ञानता का प्रतिकारक है।
धर्म और आध्यात्मिकता के बीच अंतर के बारे में पूछे जाने पर, परम पावन ने सुझाव दिया कि धर्मनिरपेक्ष नैतिकता, मानवीय कल्याण का एक कोड, एक तरह की आध्यात्मिकता है। एक अनुरोध के उत्तर में उन्होंने मुक्ति को वास्तविक निरोध के रूप में परिभाषित किया - दुख तथा उसके कारणों का निरोध।
अंत में, यह कहने के लिए बाध्य किए जाने पर कि क्या वे अंतिम दलाई लामा होंगे उन्होंने उस बात को दोहराया जो उन्होंने १९६० के दशक में प्रथम बार कहा था, कि एक अन्य दलाई लामा होंगे अथवा नहीं, यह निर्णय तिब्बती लोगों को लेना है।
"चाहे जिस रूप में हो, चूँकि मेरी निरंतर प्रार्थना रहती है -
जब तक आकाश है स्थित,
जब तक हैं स्थित सत्व यहाँ,
तक तक बना रहूँ मैं भी,
और संसार के दुख कर सकूँ दूर।
मेरा पुनर्जन्म होगा।" तालियों की एक लहर ने सभागार को परिपूरित कर दिया।
कल प्रातः परम पावन धर्मशाला लौटेंगे और अगले दिन मुख्य तिब्बती मन्दिर में अवलोकितेश्वर अभिषेक प्रदान करेंगे।