नई दिल्ली, भारत, - आज प्रातः परम पावन दलाई लामा नई दिल्ली में बंगला साहिब गुरुद्वारा के पास जीसस एंड मैरी कॉन्वेंट गाड़ी से पहुँचे। आगमन पर स्मिता वत्स, संस्थापक और निदेशक इंडियन ट्रेडिशन्स हेरिटेज सोसायटी (आइटीएएचएएएस), एक संस्था जिसका जन्म इस चिंता से हुआ कि बच्चे अपनी परम्पराओं और विरासत से तेजी से अलग-थलग होते जा रहे हैं, ने उनका स्वागत किया। जब वे कॉन्वेंट के मैदान में शामियाने में मंच की ओर बढ़े तो मार्ग स्कूल वर्दी में मुस्कुराते स्कूली और भारतीय तिरंगा लहराते बच्चों द्वारा पंक्तिबद्ध था। सुश्री वत्स ने टिप्पणी करते हुए कहा कि आकाश से भी बादल छँट गए थे और सूरज बाहर निकल आया था। उन्होंने परम पावन से कहा कि ८० विद्यालयों के १३०० छात्र और आइटीएएचएएएस प्रतिनिधि उन्हें सुनने के लिए कितने आतुर थे।
परम पावन ने अपनी बात प्रारंभ करने के लिए इसे एक संकेत के रूप में लिया, पर कुछ और बच्चे भी उनके लिए गीत प्रस्तुत करने की प्रतीक्षा कर रहे थे। जब वे ऐसा कर रहे थे तो कलाकार विलास नाइक ने परम पावन का चित्र बनाने के लिए एक तकनीक 'द्रुत चित्रकारी' का प्रयोग करते हुए उनका चित्र बनाना प्रारंभ किया। जब बच्चों ने अपना अंतिम स्वर गाया तो परम पावन का एक स्पष्ट चित्र उभरा। परम पावन ने अपना संबोधन जारी रखा।
"मैं जब भी आप जैसे समूहों को संबोधित करता हूँ तो मैं सदैव उन्हें भाइयों और बहनों के रूप में अभिनन्दन कर प्रारंभ करता हूँ और इस के कारण हैं। हम सभी मनुष्य हैं, आज जीवित ७ अरब जनसंख्या का अंग। जिस तरह से हमारा जन्म हुआ है और स्नेहपूर्ण ढंग से अपनी माताओं से पोषित हुए हैं, वह एक जैसा है। इसी तरह हम जीवित रह पाते हैं। बाद में, हम सभी एक ही रूप से मरते हैं। हम शारीरिक, मानसिक और भावनात्मक रूप से एक ही हैं। हम आनन्द और पीड़ा की समान भावनाओं को साझा करते हैं। पर फिर भी हम मनुष्य की एक होने की उपेक्षा करते हैं और भूल जाते हैं कि अन्य हमारे भाई-बहन हैं। इसके बजाय हम अपने रंग, जाति, आस्था और राष्ट्रीयता के गौण भेदों पर जोर देते हैं। हम एक दूसरे को 'हम' और 'उन' के संदर्भ में देखते हैं जो अनिवार्य रूप से संघर्ष को भड़काता है।
"जिन कई समस्याओं का सामना हम कर रहे हैं उनका समाधान केवल इस की पहचान से हो सकता है कि जिस तरह हम चाहते हैं उसी तरह अन्य भी एक सुखी जीवन जीना चाहते हैं। जब उन्हें प्यार व स्नेह मिलता है तो वे भी फलते फूलते हैं। वैज्ञानिकों ने स्थापित किया है कि जीवन के प्रारंभिक सप्ताह में मस्तिष्क के समुचित विकास के लिए एक मां के शारीरिक स्पर्श की आवश्यकता है। जो बच्चे इस समय अधिकतम स्नेह प्राप्त करते हैं वे बड़े होकर सुखी व सुरक्षित होते हैं। वैज्ञानिकों ने भी पाया है कि निरंतर क्रोध और भय हमारी प्रतिरक्षा प्रणाली को दुर्बल करता है, जबकि करुणा उसे सशक्त करती है।"
परम पावन ने एक उदाहरण दिया कि हम किस तरह एक दूसरे को सह मानव के रूप में समझ सकते हैं जब उन्होंने कोई किसी दूर दराज़ और सुनसान जगह में खोए व्यक्ति की बात की। यदि ऐसे अवसर पर उनका सामना किसी अन्य व्यक्ति से हुआ तो वे उनकी राष्ट्रीयता, धर्म या जाति के लिए कोई चिंता न रखते हुए केवल एक अन्य व्यक्ति समझेंगे। उन्होंने कहा कि हमें हर समय इस तरह के व्यवहार की आवश्यकता है। अमीर और गरीब के बीच बढ़ती खाई, जलवायु परिवर्तन से अधिक हुईं प्राकृतिक आपदाएँ और मानव जनसंख्या में बढ़ोत्तरी, साथ ही मानव निर्मित कठिनाइयाँ जैसे भ्रष्टाचार और जाति के आधार पर भेदभाव जैसी अभिभूत करने वाली समस्याओं से सामना करने के लिए हमें साथ काम करने की आवश्यकता है। उन्होंने अपने समक्ष के युवा लोगों को, जो सभी २१वीं सदी की पीढ़ी के हैं, से एक सुखी, अधिक शांतिपूर्ण विश्व निर्मित करने के लिए दृढ़ होने की अपील की। उन्होंने उनसे अपनी बुद्धि का उपयोग सकारात्मक रूप से करने और सौहार्दता का विकास, जो रचनात्मक परिवर्तन का उत्प्रेरक हो, करने को कहा। उन्होंने कहा कि जब शिक्षा प्रणाली केवल भौतिकवादी लक्ष्यों को प्रोत्साहित करती है जिसमें सार्वभौमिक मानवीय मूल्यों के लिए बहुत कम सोच हो, तो सौहार्दता का विकास बहुत बड़ा अंतर ला सकता है।
छात्रों के प्रश्न पर परम पावन का उत्तर इस बात से संबंधित था कि क्या एक क्रोध भरी प्रतिक्रिया किसी रूप में लाभकारी हो सकती है। उन्होंने सुझाया कि यदि आप एक चुनौती का विश्लेषण करें और पाएँ कि आप उसे सहन कर सकते हैं तो क्रोधित होने की कोई आवश्यकता नहीं है और यदि आप इस विषय में कुछ नहीं कर सकते तो क्रोध के बस में आकर बात और अधिक बिगड़ेगी। उन्होंने उल्लेख किया कि इसी तरह बल का प्रयोग एक स्थायी समाधान प्रदान नहीं करता। उन्होंने पुष्टि की कि विश्व में शांति की स्थापना हमारे अपने चित्त की शांति पर निर्भर है। उन्होंने टिप्पणी की, कि एक परिवार जिसके सदस्यों में आंतरिक शांति हैं, जो एक दूसरे के लिए विश्वास और स्नेह का अनुभव करते हैं वे भौतिक रूप से समृद्ध न होने पर भी सुखी होंगे।
उन्होंने एक छात्र के प्रश्न पर कि एक युवा व्यक्ति विश्व पर क्या प्रभाव डाल सकता है, कहा कि वे उस अनुभूति को समझते हैं। परन्तु उन्होंने कहा कि महात्मा गांधी जैसे व्यक्ति वैसा अनुभव कर सकते थे पर फिर भी मौन साहस और आत्मविश्वास के साथ कार्य करते हुए उन्होंने भारत के स्वतंत्रता संघर्ष में महत्वपूर्ण योगदान दिया था। एक बार पुनः परम पावन ने बहुलवाद और अंतर्धार्मिक सद्भाव की भारत की दीर्घ काल से स्थापित परंपरा की अपनी प्रशंसा को दोहराया।
एक अन्य छात्र के पूछे जाने पर कि ऐसा कौन सा संदेश है जो वह अपने साथ घर ले जा सकती है, परम पावन ने कहा, "एक दयालु और करुणाशील व्यक्ति बनें। यही आंतरिक सौंदर्य है जो एक बेहतर विश्व के निर्माण में एक महत्वपूर्ण कारक है।"
जब व्याख्यान समाप्त होने को आया तो आभार अभिव्यक्ति हुई। पारस्परिक स्कार्फ का आदान प्रदान हुआ। जब परम पावन मंच से निकले तो उन्होंने पूर्व चित्रित चित्र पर हस्ताक्षर किए और कलाकार को बधाई दी।
मध्याह्न भोजनोपरांत, १५० की संख्या के दर्शकों के समक्ष परम पावन ने शेखर गुप्ता के ऑफ द कफ श्रृंखला के अंग के रूप में एक व्यापक साक्षात्कार दिया। उन्होंने चर्चा की, कि परम पावन किस तरह शांत रहते हैं। उन्होंने गुप्ता को बताया कि वह नालंदा परम्परा के छात्र हैं, जो लगातार उनके समक्ष आई परिस्थिति पर विश्लेषण और उनकी भावनात्मक प्रतिक्रिया प्रस्तुत करते है। उन्होंने कहा कि वे सदैव वस्तुओं को एक व्यापक दृष्टिकोण से देखने का और आशावादी बने रहने का प्रयास करते हैं। कई बार चर्चाएँ ईश्वर के अस्तित्व पर ठहरीं। परम पावन ने घोषित किया कि जहाँ वे एक बौद्ध भिक्षु के मार्ग का अनुसरण करते हैं, वे पहचानते हैं कि एक प्रेम भरे सृष्टिकर्ता ईश्वर में विश्वास बहुत शक्तिशाली है।
परम पावन ने अपनी भावना दोहराई कि आज भारत के पास प्राचीन भारत के ज्ञान और अंतर्दृष्टि के साथ विज्ञान और प्रौद्योगिकी के लाभ को जोड़ने का एक विशेष अवसर है। उन्होंने समझाया कि किस तरह ८वीं सदी के तिब्बती सम्राट ठिसोंग देचेन बौद्ध धर्म के विषय में जानने के लिए, चीन के साथ घनिष्ठ संबंधों के बावजूद स्पष्ट रूप से भारतीय स्रोतों की ओर उन्मुख हुए। उन्होंने उस समय के प्रमुख विद्वान शांतरक्षित को तिब्बत आने के लिए आमंत्रित किया जिसके दूरगामी प्रभाव हुए। तिब्बतियों द्वारा नालंदा परम्परा को जीवित रखने और भारत में वापिस लाने का सीधा कारण शांतरक्षित द्वारा तिब्बत में सबसे पहले बौद्ध धर्म की स्थापना करना था।
जब, शेखर गुप्ता ने संवाद का अंत किया तो एक महिला ने यह प्रश्न बनाए रखा कि बौद्ध धर्म यह क्यों सिखाता है कि एक महिला निर्वाण प्राप्त नहीं कर सकती। परम पावन ने उत्तर दिया कि बुद्ध ने पुरुषों को भिक्षु के रूप में और महिलाओं को भिक्षुणियों के रूप में दीक्षित करते हुए पुरुषों और महिलाओं को अभ्यास करने के समान अवसर दिए। उन्होंने उल्लेख किया कि यद्यपि अतीत में भिक्षुणियों ने व्यापक स्तर पर अध्ययन नहीं किया पर ४० वर्ष पूर्व उन्होंने उन्हें ऐसा करने के लिए प्रोत्साहित किया था। अभी हाल ही में उन्होंने कहा कि यह फलीभूत हुआ जब उन्होंने प्रथम २० भिक्षुणियों को उनकी विद्वत्तापूर्ण उपलब्धियों को पहचानते हुए उच्चतम डॉक्टरेट की उपाधि प्रदान की थी।
गुप्ता ने परम पावन ने जो कुछ कहा था उसके प्रति कृतज्ञता व्यक्त करते हुए साक्षात्कार का समापन किया और अपनी विशिष्ट प्रशंसा व्यक्त की, कि परम पावन आध्यात्मिक लोगों में एक ऐसे अनूठे हैं जो कभी कभी यह उत्तर देने के लिए भी तैयार रहते हैं कि "मैं नहीं जानता।"