नई दिल्ली, भारत - १६ जनवरी को बोधगया से दिल्ली के लिए रवाना होने से पूर्व , परम पावन दलाई लामा ने महाबोधि स्तूप और कालचक्र मंदिर की यात्रा की। दिल्ली में पहुँचकर उन्होंने कुछ दिनों विश्राम किया।
आज प्रातः फेडेरेशन ऑफ इंडियन चैंबर ऑफ कॉमर्स एंड इंडस्ट्रीज के लेड़ीज़ विंग (फिक्की) ने उन्हें करुणा की शक्ति पर व्याख्यान देने हेतु आमंत्रित किया। फिक्की मुख्यालय पर पहुँचने पर, अध्यक्षा श्रीमती विनीता बिम्भेट ने परम पावन का स्वागत किया। विशेष अतिथि श्रीमती प्रतिभा आडवाणी ने श्रोताओं से परम पावन का परिचय कराया तथा उनके साथ हुए कुछ पूर्व बैठकों का स्मरण किया। उन्होंने उल्लेख किया कि हाल ही में उनकी माँ के निधन पर व्यक्तिगत रूप से उन्हें और उनके पिता एल.के. आडवाणी को सांत्वना देने के लिए जो समय उन्होंने निकाला, उसने उनके हृदय को किस तरह स्पर्श किया था।
परम पावन ने अपनी परिचयात्मक टिप्पणी में कहा कि विश्व के सभी ७ अरब लोग मानसिक, भावनात्मक और शारीरिक रूप से समान हैं। हम सभी अपनी माँओं से अत्यधिक स्नेह प्राप्त करते हैं, जिसके अभाव में हम जीवित नहीं रह सकते।
उन्होंने उल्लेख किया कि वैज्ञानिकों ने प्रयोगों से निष्कर्ष निकाला है कि मानव प्रकृति आधारभूत रूप से करुणाशील है। उन्होंने कहा कि यह उन्हें भविष्य के लिए आशा प्रदान करती है, क्योंकि यदि मानव प्रकृति मूल रूप से क्रोधी होती तो वहाँ मानवता के लिए कोई आशा न होगी। उन्होंने आगे कहा कि वैज्ञानिक सलाह देते हैं कि निरंतर भय और क्रोध हमारी प्रतिरक्षा प्रणाली को दुर्बल कर देते हैं।
उन्होंने समस्याओं से निपटने में अधिक सकारात्मक होने की सलाह दी।
"कोई भी परिस्थिति कितनी ही कठिन अथवा जटिल क्यों न हो, मैं चित्त की शांति बनाए रखता हूँ। यदि हम अपनी बुद्धि का प्रयोग करें तो हम वस्तुओं को एक और अधिक समग्र दृष्टिकोण से देख सकते हैं। एक व्यापक दृष्टिकोण से हम देख सकते हैं कि विश्व में कई अन्य समस्याओं की तुलना में, जिसका सामना हम कर रहे हैं, वह बहुत महत्वपूर्ण नहीं है।
"हमें इस बुद्धि को सौहार्दता, जो चित्त की शांति का स्रोत है, के साथ जोड़ने की आवश्यकता है। मेरे अपने अनुभव से मैं आपको बता सकता हूँ कि चित्त की शांति का बहुत प्रभाव पड़ता है। यह न केवल हमारे स्वास्थ्य को बनाए रखने में हमारी सहायता करती है, यह प्रसन्न व्यक्तियों, सुखी परिवार, सुखी समुदायों और अंततः एक सुखी मानवता को जन्म देती है।
"परन्तु इस तरह परिवर्तनों का प्रारंभ व्यक्तियों से होना चाहिए। कभी-कभी आप अनुभव कर सकते हैं कि मात्र एक अकेले व्यक्ति के रूप में आप विश्व को परिवर्तित नहीं कर सकते। परन्तु समाज में परिवर्तन व्यक्तियों के साथ प्रारंभ होना चाहिए। और तो और चूँकि हम सब मानवता का अंग हैं, हममें से प्रत्येक का एक आम अच्छे के लिए योगदान करने का एक नैतिक उत्तरदायित्व है। यदि आप इस तरह के विचार अपने दस मित्रों के साथ साझा करें और वे अपने दस मित्रों के साथ साझा करें तो हम सरलता से एक सौ लोगों को प्रभावित कर सकते हैं - इसी प्रकार हम विश्व को परिवर्तित कर सकते हैं।"
रोताओं से प्रश्न लेते हुए परम पावन ने आज भारत में धर्म की स्थिति के विषय पर बात की,
'भारत में अहिंसा जैसी अवधारणाएँ तीन हजार से अधिक वर्षों से अस्तित्व में रही हैं। समय आ गया है कि भारतीय इन विचारों को कार्यान्वित करें। स्वतंत्रता के बाद से भारत में आधुनिक और तकनीकी शिक्षा की वास्तव में बढ़ोत्तरी हुई है, परन्तु इन्हें चित्त के प्रकार्यों के प्राचीन भारतीय ज्ञान के साथ एक होने की आवश्यकता है। दुर्भाग्यवश आज भारत की समृद्ध और प्राचीन ज्ञान परम्पराओं का अनुष्ठानों से किंचित अधिक रूप ही शेष रह गया है। परन्तु तिब्बत में श्रमसाध्य अध्ययन और अभ्यास के माध्यम से हमने नालंदा विश्वविद्यालय की परम्पराओं को संरक्षित रखा है। हमारा ज्ञान भारत का ज्ञान है और मुझे यह कहते हुए हर्ष होता है कि अधिक से अधिक युवा भारतीय इस प्राचीन भारतीय धरोहर में रुचि दिखा रहे हैं।
"आधुनिक समझ के साथ प्राचीन ज्ञान का संयोग न केवल इस देश के जीवन के लिए सार्थक होगा, अपितु व्यापक विश्व के लिए भी लाभकारी हो सकता है। मैं प्राचीन भारतीय विचारों का एक दूत मात्र हूँ। वास्तविकता यह है कि आपके पूर्वज हमारे गुरु थे। अब प्राचीन काल का गुरु चेला बन गया है और हम चेले गुरु बन गए हैं। मैं आपसे अपनी प्राचीन भारतीय धरोहर पर निकट से ध्यान देने का आग्रह करता हूँ।"
परम पावन ने सलाह दी कि यह महत्वपूर्ण है कि कई भारतीय मंदिर व आश्रम शिक्षण का केंद्र बनें। उन्होंने कहा कि उनके लिए मात्र पूजा का स्थल बना रहना पर्याप्त नहीं था। वहाँ कक्षाएं, सेमिनार और विचार विमर्श के आयोजनों का भी अवसर होना चाहिए, साथ ही धार्मिक नेताओं से प्रश्न करने के भी अवसर होने चाहिए।
लेड़ीज़ विंग के वरिष्ठ सदस्यों के साथ मध्याह्न का भोजन करने के बाद परम पावन श्री अरबिंदो एजुकेशन सोसाइटी द्वारा नई दिल्ली में स्थापित एक सार्वजनिक माध्यमिक विद्यालय, मदर्स इंटरनेशनल स्कूल गए।
परम पावन के आसन ग्रहण करने के उपरांत छात्रों के एक समूह ने एक कलात्मक प्रदर्शन दिया। स्कूल प्रधानाचार्या, श्रीमती संघमित्रा घोष ने स्कूल में उनका स्वागत किया और दो छात्रों ने छात्रों और शिक्षकों से उनका परिचय कराया।
उन्होंने प्रारंभ किया, "अतीत, अतीत है और बदला नहीं जा सकता, परन्तु भविष्य खुला हुआ है। आप जैसे युवा छात्र इस २१वीं सदी के हैं और आप के पास इसे और अधिक शांतिपूर्ण सदी बनाने का अवसर है। ठीक इस समय इस ग्रह पर ऐसे लोग हैं, जो संघर्ष और भुखमरी का सामना कर रहे हैं। कई निर्दोष लोग मर रहे हैं। उनमें से कई जो आतंकवाद में लगे हुए हैं, वे शिक्षित हैं। हमें जिस प्रश्न को पूछने की आवश्यकता है वह यह, कि वे समस्याओं को क्यों जन्म दे रहे हैं। शिक्षित लोगों के बीच हम इतना भ्रष्टाचार क्यों देखते हैं?
"मेरा मानना है कि यह हमारे भौतिकवादी दृष्टिकोण के कारण है। मेरे कई मित्र, जिनमें से कई वैज्ञानिक हैं, मेरे विचार से साझा रखते हैं कि आधुनिक शिक्षा में कुछ अभाव तो है। यह मात्र भौतिक लक्ष्यों पर केंद्रित है और इसमें गहन मानवीय मूल्यों को लेकर विश्वास का अभाव है। समय आ गया है कि हम यह पता लगाएँ कि शिक्षा पाठ्यक्रम में किस तरह नैतिकता को लागू करें - नैतिकता, जो धर्म पर आधारित न हो, पर हमारे साझे किए गए अनुभव, सामान्य ज्ञान और वैज्ञानिक निष्कर्ष पर आधारित हो।
"२१वीं सदी के उत्तरदायी पीढ़ी के रूप में, एक बेहतर विश्व, एक और अधिक शांतिपूर्ण, सुखी सदी का निर्माण आप पर होगा। आप को दृष्टिकोण की आवश्यकता होगी और केवल मौजूदा प्रणाली से संतोष करना न होगा। आपको अपनी मानवीय बुद्धि को और अधिक विकसित करने के लिए तार्किक चिन्तन का उपयोग करने की आवश्यकता होगी। आप को बार बार वस्तुओं को लेकर क्यों और किस तरह पूछते हुए, प्रश्न करने होंगे। यह और अधिक प्रश्नों को जन्म देंगे। यह विश्लेषणात्मक ध्यान या विपश्यना का दृष्टिकोण है। आज भी मेरे मस्तिष्क इसलिए तेज हैं क्योंकि मैंने इस तरह एक विश्लेषणात्मक रूप से प्रशिक्षित किया है। आपको भी ऐसा ही करना होगा यदि आप इस शताब्दी के अंत तक एक अधिक सुखी विश्व का निर्माण करना चाहें।"
यह पूछे जाने पर कि क्या बौद्ध धर्म एक धर्म था या दर्शन, परम पावन ने उत्तर दिया,
"चूँकि बौद्ध धर्म एक सृजनकर्ता ईश्वर में विश्वास नहीं करता, बल्कि आत्म-निर्माण में करता है, कुछ लोगों ने इसे चित्त के विज्ञान के रूप में वर्णित किया है। यह एक दार्शनिक दृष्टिकोण लेता है। बौद्ध धर्म की पालि परम्परा मुख्य रूप से बुद्ध वचन के लिखित रूप पर निर्भर करती है। परन्तु संस्कृत परम्परा, विशेषकर नालंदा परम्परा, तर्क व समझ पर निर्भर करती है। बुद्ध ने स्वयं घोषणा की थी कि उनके अनुयायियों को उनकी शिक्षा केवल श्रद्धा के कारण स्वीकार नहीं करना चाहिए, बल्कि उसकी जांच व परीक्षण करने के बाद ही, जिस तरह एक सुनार सोने का परीक्षण करता है।"
जब एक युवा छात्र जानना चाहता था कि परम पावन विश्व के किन पहलुओं में परिवर्तन देखना चाहेंगे, तो उन्होंने उत्तर दिया,
"वर्तमान शिक्षा प्रणाली, जो भौतिक लक्ष्यों की ओर उन्मुख है, को आंतरिक मूल्यों के साथ संयुक्त किया जाना चाहिए। हमें प्राकृतिक पर्यावरण की भी अधिक से अधिक देखरेख करना चाहिए, जो हममें से प्रत्येक कर सकता है। फिर अंतर्धार्मिक सद्भाव को अधिक से अधिक प्रबल करने की आवश्यकता है। भारत एकमात्र ऐसा देश है, जहाँ विश्व की सभी प्रमुख धार्मिक परम्पराएँ सदियों से आपसी सम्मान और समझ के साथ रहती आई हैं। अंत में हमें अमीरों तथा गरीबों के बीच की खाई को पाटने की ओर अधिक से अधिक प्रयास करने चाहिए।"
विदा लेने से पूर्व, परम पावन ने स्कूल के सीनियर स्टाफ के सदस्यों के साथ चाय पी और स्कूल के प्रांगण में वृक्षारोपण किया।