नई दिल्ली, भारत - नई दिल्ली के राजनयिक एन्क्लेव, चाणक्यपुरी के एक ओर, विवेकानंद इंटरनेशनल फाउंडेशन, एक भारतीय सार्वजनिक नीति थिंक टैंक विवेकानंद केंद्र से संबद्ध के भवन स्थित हैं, जो अधिकांश रूप से सेवानिवृत्त नौकरशाहों, खुफिया विभाग के अधिकारियों और सेवानिवृत्त सैन्य कर्मियों द्वारा चालित है। फाउंडेशन ने परम पावन दलाई लामा को प्राचीन भारतीय सोच और समकालीन विश्व के लिए उसकी प्रासंगिकता पर बोलने के लिए आमंत्रित किया था। आगमन पर निदेशक जनरल एन सी विज ने परम पावन का स्वागत किया और ऊपर एक बैठक कक्ष में उनका अनुरक्षण किया जिसमें २५० लोग खचाखच भरे हुए थे।
महिलाओं के एक छोटे समूह ने शांति मंगलाचरण और संस्कृत में बौद्ध शरण के छंदों का सस्वर पाठ किया। जनरल विज ने सभा से परम पावन का परिचय कराया और उनसे संबोधित करने का अनुरोध किया, जिसके बाद उन्होंने प्रारंभ किया।
"प्रिय भाइयों और बहनों, मेरे लिए इस संस्था में, जो स्वामी विवेकानंद की स्मृति का सम्मान करती है, आना और आपसे बात करना वास्तव में एक महान सम्मान की बात है। मैं कन्याकुमारी में उस चट्टान पर भी गया हूँ जो उनके लिए पावन थी और मैंने विश्व धर्म संसद की बैठकों में भी भाग लिया है, जो उन्होंने १८९३ में शिकागो में संबोधित किया था, जो जाना माना है। बहुत लोग उनके द्वारा अभिव्यक्त दृष्टिकोण से द्रवित हो गए थे पर मुझे लगता है कि हाल के कुछ दिनों में संगठन उनींदी हो गया था। मैंने उनसे यह कहा था और जब उन्होंने मुझे साल्ट लेक सिटी में अपनी बैठक में भाग लेने के लिए आमंत्रित किया तो उन्होंने मुझे आश्वासित किया कि उन्होंने अपने को पुनः ऊर्जित कर लिया था पर अंत में मैं सम्मिलित न हो सका।
"यहाँ यह बैठक मुझे पुराने मित्रों से मिलने का अवसर प्रदान करती है, पर जब मैं उन्हें देखता हूँ तो यह मुझे स्मरण कराता है कि मैं कितना वृद्ध हूँ। यहाँ श्री मल्होत्रा हैं, जो प्रारंभिक दिनों में मेरे संपर्क अधिकारी थे और मार्क टली जिन्होंने मेरा साक्षात्कार लिया जब १९७३ में मैं यूरोप की अपनी पहली यात्रा पर निकला। उन्होंने मुझसे पूछा कि मैं क्यों जाना चाहता था और मैंने उनसे कहा था कि मैं अपने आप को विश्व का एक नागरिक मानता हूँ। इस तरह के लोग दृढ़ मित्र होते हैं और पुनर्जन्म और भविष्य के जीवन के संदर्भ में, मेरा विश्वास है कि हम भविष्य में भी मित्र बने रहेंगे।
"जब मैं १९५९ में भारत आया तो मेरी मुख्य चिंताओं में से एक, अध्ययन और ज्ञान की हमारी परम्पराओं का संरक्षण था। अंततः पंडित नेहरू और विभिन्न राज्य सरकारों की सहायता से हम महाविहारों की पुनर्स्थापना में सक्षम हुए, जो कि शिक्षण के हमारे प्रमुख केंद्र थे और जिन्हें हम तिब्बत के नालंदा के रूप में मानते थे। नेहरू ने भी हमारे बच्चों के लिए तिब्बती और आधुनिक शिक्षा प्रदान करने के लिए स्कूलों की स्थापना करने की एक अन्य परियोजना में बहुत सहायता की।
"हम अपनी भाषा और परम्पराओं के संरक्षण को लेकर बहुत इच्छुक थे, जो नालंदा के प्रख्यात विद्वान शांतरक्षित के समय तक जाता है, जिनको सम्राट ठिसोंग देचेन ने तिब्बत में आमंत्रित किया था। वे एक दार्शनिक, तर्कशास्त्री और भिक्षु के रूप में प्रख्यात थे और आज हम उनके पांडित्य की गुणवत्ता उनके लेखन को देखकर कर सकते हैं।
"क्रमशः, जब मैं अध्ययन के विभिन्न क्षेत्रों के प्रतिष्ठित लोगों से मिला और उनके साथ विचार-विमर्श किया तो मैंने यह अनुभव करना प्रारंभ किया कि जो ज्ञान हम तिब्बतियों ने जीवंत रखा है वह आज की आवश्यकताओं के लिए प्रासंगिक बना हुआ है। आंशिक रूप से इसका कारण यह है कि अतीत के भारतीय आचार्य चित्त मात्र और माध्यमक परम्परा की विचारधारा को लेकर इतने सटीक और स्पष्ट थे। पर यह उनकी समझ की गहनता, उदाहरणार्थ हमारे चित्त और भावनाओं के प्रकार्य को भी लेकर है। प्राचीन भारतीय मनोविज्ञान की गहनता की तुलना में, मुझे लगता है, अगर मैं स्पष्ट रूप से कहूँ, कि आधुनिक मनोविज्ञान कठिनाई से बाल विहार के स्तर तक ही पहुँचा है। वैज्ञानिकों और अन्य लोगों के साथ जो विचार विमर्श मेंने किए हैं उनसे मैं आश्वस्त हूँ कि हमने जिस ज्ञान को संरक्षित रखा है वह आज मानवता के लिए सहायक हो सकती है।
"हमने तर्क और ज्ञान-मीमांसा की जिन परम्पराओं को हमने बनाए रखा है उनसे कई वैज्ञानिक भी प्रभावित हुए हैं। उन्होंने भिक्षुओं को शास्त्रार्थ करते देखा है और कम से कम एक तो इतना प्रभावित हुआ कि उसने हमारे कुछ संकेतों को अपने तर्क पर बल देने के लिए अपनाया। कई यह जानने के लिए उत्सुक हैं कि इस तरह का एक तार्किक दृष्टिकोण जाँच के अन्य क्षेत्रों पर लागू किया जा सकता है।
"आज जब हम नैतिक संकट और एक व्यापक मानसिक व्याकुलता जैसे कुछ का सामना कर रहे हैं, एक उपयोगी उपाय अपनी बुद्धि, हमारे अद्भुत मस्तिष्क का उपयोग सरल सौहार्दता के साथ मिला कर करना है। हमें अपनी शिक्षा में आंतरिक मूल्यों की भावना को शामिल करने और यह सीखने की आवश्यकता है कि हम अपनी भावनाओं से कैसे निपटें। वैज्ञानिक हमें बताते हैं कि उन्होंने पता लगाया है कि निरंतर भय और क्रोध हमारी प्रतिरक्षा प्रणाली को दुर्बल करते हैं, जबकि करुणा के विकास का प्रशिक्षण इसे पुष्ट करता है। अपने आचरण में अहिंसा और प्रेरणा में करुणा की भारत की दीर्घकालीन परम्परा का इसको बनाने में योगदान है।"
परम पावन ने कहा कि आधुनिक भारत में, जैसे भौतिक विकास लक्ष्य अधिक होता है, अहिंसा और करुणा जैसे मूल्यों पर कम ध्यान दिया जाता है। परन्तु उन्होंने सुझाव दिया कि यदि आप करुणा से प्रेरित हों तो आप दूसरों के अधिकारों का शोषण करने के लिए कम ही तैयार होंगे। उन्होंने अपने श्रोताओं से आग्रह किया,
"मेरे प्रिय भारतीय भाइयों और बहनों, कृपया अपनी इन परम्पराओं की ओर अधिक ध्यान दें जो कई हजारों वर्ष पुरानी हैं, अपने आप को अहिंसा और करुणा के साथ अधिक परिचित कराएँ। यह भी स्मरण रखें कि भारत एक ऐसा देश है जहाँ विश्व के सभी धार्मिक परम्पराएँ एक साथ सद्भाव में रहती हैं।"
परम पावन हमेशा की तरह श्रोताओं के प्रश्नों के उत्तर देने के लिए तत्पर थे पर जब पहला प्रश्न था, "आप ८२ साल के हैं, आप किस तरह युवा दिखते हैं?" उन्होंने उत्तर दिया, "यह मेरा रहस्य है!" उन्होंने आगे कहा वे रात को अच्छी तरह ९ घंटे सोते हैं और पांच घंटे का ध्यान प्रारंभ करने के लिए तीन बजे उठते हैं, जो उन्होंने स्पष्ट किया कि अधिकतर विश्लेषणात्मक है। अपने जीवन में कठिनाइयों के बावजूद, १६ वर्ष की आयु में अपनी स्वतंत्रता और २४ वर्ष की आयु में अपना देश खोने और तिब्बत से लगातार दुखद खबर सुनते रहते हुए, इस दिनचर्या ने उन्हें उनके चित्त की शांति बनाए रखने के लिए तैयार किया है।
इस्लाम के बारे में गलतफहमी को लेकर कुछ कहने के लिए प्रेरित किए जाने पर परम पावन ने घोषणा की कि 'मुस्लिम आतंकवादी' लेबल लगाना गलत है, क्योंकि जिस वक्त कोई आतंकवाद का काम करता है, वह इस्लाम के उसूलों का खंडन करता है। उन्होंने जो फारूख अब्दुल्ला और किसी अन्य स्थान पर अन्य विद्वानों ने उसकी पुष्टि की थी, उसे दोहराया कि जिहाद वास्तव में नकारात्मक भावनाओं के साथ निजी संघर्ष है। उन्होंने अपने विचारों की पुष्टि की कि बल का प्रयोग प्रतिकूल होगा और संकेत किया कि जब एक पिता की हत्या होती है तो उसके बच्चों को दर्द होता है जिसका जवाब वे देना चाहते हैं।
तिब्बती चिकित्सा से संबंधित एक प्रश्न के उत्तर में परम पावन ने ८वीं शताब्दी में हुए एक अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन का संदर्भ दिया जिसमें आयुर्वेद, चीनी और यूनानी परम्पराओं के प्रतिनिधि सम्मिलित हुए थे। उनके अभ्यास के तत्वों को तिब्बत की मूल अभ्यासों के साथ मिलाकर तिब्बती चिकित्सा परम्परा विकसित हुई। उन्होंने स्वीकार किया कि वे स्वयं नियमित रूप से तिब्बती औषधि लेते हैं जिसमें उनके अनुसार सशक्त निवारण का गुण है।
उन्होंने पुनः वैज्ञानिकों द्वारा चित्त की समझ को लेकर दिखाई जा रही रुचि के बारे में बात की जो कि प्राचीन भारतीय परंपरा से निकली है। उन्होंने बेंगलुरू के एक स्वामी, जिनके वे प्रशंसक हैं, से हुए संवाद का उल्लेख किया जिसमें उन्होंने स्वीकार किया कि शील, शमथ और विपश्यना हिंदू और बौद्ध अभ्यास दोनों में पाए जाते हैं। दोनों परम्पराओं में जो अंतर है वह यह कि एक आत्मन के विचार का समर्थन करता है, जबकि दूसरा अनात्मन पर निर्भर करता है, परन्तु उन्होंने स्पष्ट किया कि आप जो चुनते हैं वह एक व्यक्तिगत निणय है।
उन्होंने यह भी स्मरण किया कि जब एक मित्र, एक कैथोलिक भिक्षु ने एक दिन उनसे शून्यता के बारे में पूछा, तो परम पावन ने उनसे कहा कि वे न पूछें और कहा कि यह उनका विषय नहीं था। उन्होंने वह सूचित किया जो संज्ञानात्मक उपचार के अग्रणी हारून बेक ने उनसे कहा था कि जिस तरह से क्रोध हमें अपने क्रोध की वस्तु को लगभग पूरी तरह से नकारात्मक दिखाता है, जबकि उस सोच का ९०% सिर्फ मानसिक प्रक्षेपण है।
मार्क टुली जानना चाहते थे कि क्या नालंदा परम्परा अर्थशास्त्र के बारे में कुछ कहती है। परम पावन ने उत्तर दिया कि अमीर और गरीब के बीच की विशाल और बढ़ती खाई, यहाँ तक कि अमीर देशों में भी, नैतिक सिद्धांतों के प्रचलन का अभाव दर्शाता है।
जनरल विज ने बैठक का समापन किया और अपने विचारों को साझा करने के लिए परम पावन को धन्यवाद दिया। अपनी ओर से परम पावन समय लेते हुए कमरे से बाहर निकल कर पुराने मित्रों का अभिनन्दन कर, उनके साथ हाथ मिलाकर उनके साथ की पुरानी स्मृतियों का आदान प्रदान किया। जब उनमें से कई चाय के लिए बाहर पुनः एकत्रित हुए तो परम पावन होटल लौट आए।
परम पावन कल तड़के प्रातः दिल्ली से आंध्र प्रदेश में विजयवाड़ा के लिए रवाना होंगे।