धर्मशाला, हिमाचल प्रदेश, भारत, २६ अप्रैल २०१६ - आज उज्ज्वल वसंत की एक प्रातः थी जब परम पावन दलाई लामा धर्मशाला शहर से होकर नीचे चिलगारी की साफ चाय बागानों से होते हुए गाड़ी से गुज़रे। सराह के उच्च तिब्बती अध्ययन महाविद्यालय (सीएचटीएस) के मार्ग पर जकरांडा वृक्ष पूरी तरह पुष्पित थे और आकर्षक हरे तोतों के झुंड रास्ते पर झपट्टा मार रहे थे। आगमन पर बौद्ध तर्क संस्थान (आइबीडी) के निदेशक, श्रद्धेय गेशे केलसंग डमदुल एवं महाविद्यालय के प्राचार्य श्रद्धेय गेशे जमपेल डगपा ने परम पावन का स्वागत किया तथा सभागार में उनका अनुरक्षण किया।
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मंजुश्री और नालंदा के सत्रह पंडितों के स्तुति पाठ के उपरांत सचिव पसंग छेरिंग ने महाविद्यालत के अनुरोध, कि वह इस वर्ष के दीक्षांत समारोह की अध्यक्षता करें, को स्वीकार करने के लिए परम पावन का धन्यवाद किया।श्रद्धेय गेशे केलसंग डमदुल ने अतिथियों और गणमान्य व्यक्तियों का स्वागत किया और परम पावन की तिब्बती लोगों के प्रति दयापूर्ण नेतृत्व के प्रति कृतज्ञता व्यक्त की। उन्होंने टिप्पणी की कि बौद्ध तर्क संस्थान १९७९ में परम पावन के जन्मदिन ६ जुलाई को स्थापित किया गया था और उस समय से जो कुछ हुआ था आगे उसकी सूचना दी।
प्रारंभ में २९ छात्रों ने प्रज्ञापारमिता और माध्यमक दृष्टिकोण का अध्ययन आरंभ किया जिसकी समयावधि १० वर्ष के लिए निश्चित की गई थी। अंततः इसमें ञिङमा, सक्या और कर्ग्यू परमपराओं के पक्षों को सम्मिलित करने के लिए इस पाठ्यक्रम का विस्तार किया गया। बाइलाकुप्पे के नमडोललिंग महाविहार से शिक्षकों को आमंत्रित किया गया। इस बीच छात्रों ने चौंतड़ा के ज़ोंगसर संस्थान और बीर में पलपुंग शेरबलिंग में भी भाग लिया। शास्त्रीय भारतीय बौद्ध ग्रंथों का अध्ययन करने के अतिरिक्त, छात्र एक पाठ्यक्रम में तंत्र का अध्ययन भी करते हैं जिसकी अवधि इस समय १६ वर्ष की है।
संस्थान की स्थापना के साथ तिब्बती संस्कृति के संरक्षण और इसे बढ़ावा देने के उत्तरदायित्व उठाने पर १९९१ में संस्थापक निदेशक गेन लोबसंग ज्ञाछो ने यहाँ सराह में उच्च तिब्बती अध्ययन महाविद्यालय की स्थापना के लिए ज़मीन खरीदी। परम पावन ने इस स्थान को आशीर्वचित किया और इसके निर्माण के पश्चात संस्था का उद्घाटन किया। केंद्रीय तिब्बती प्रशासन के शिक्षा विभाग ने अपनी मान्यता दी। शैक्षिक कार्यक्रमों में तिब्बती अध्ययन में एक पूर्वस्नातक पाठ्यक्रम और तिब्बती इतिहास और तिब्बती साहित्य में स्नातक पाठ्यक्रमों के साथ ही एक प्रभावशाली शिक्षक प्रशिक्षण कार्यक्रम शामिल है।
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केन्द्रीय तिब्बती प्रशासन में धर्म और संस्कृति मंत्री पेमा छिनजोर को रीमे गेशे की उपाधि प्रदान करने के लिए आमंत्रित किया गया। १४ सफल उम्मीदवारों में आज मात्र ११ भाग ले सके। तत्पश्चात शिक्षा मंत्री ञोडुब छेरिंग से २८ स्नातकों को तिब्बती अध्ययन में बी ए उपाधि, जिनमें से २ ने पत्राचार पाठ्यक्रम लिया था, तिब्बती इतिहास में सात एम ए की उपाधि और तिब्बती साहित्य में से छह उपाधियाँ प्रदान करने का अनुरोध किया गया। शैक्षणिक उपाधि प्राप्त करने वालों ने शैक्षणिक चोगा और मोर्टार बोर्ड पहना था। परम पावन से भोट भाषा में अनूदित लेखों की एक पत्रिका और एक विज्ञान डीवीडी का विमोचन करने का अनुरोध किया गया। अंत में, कालोन पेमा छिनजोर ने ९ कर्मचारियों को २० वर्ष से अधिक सेवा पूर्ण करने के लिए प्रशंसा के प्रतीक प्रदान किए।
जब शिक्षा मंत्री ञोडुब छेरिंग को सभा को संबोधित करने के लिए आमंत्रित किया गया तो उन्होंने सभी स्नातकों को उनकी उपलब्धियों पर बधाई दी। उन्होंने इन्हें एक तरह से तिब्बतियों को सच्ची विशेषज्ञता को विकसित करने की दी गई परम पावन की सलाह को साकार करने की दिशा में जाने के रूप में वर्णित किया। उन्होंने कहा कि शिक्षा विभाग ने पूर्वस्नातकों को सहयोग दिया था और भविष्य में यह उनके लिए जारी रहेगा जो आगे अध्ययन करना चाहते थे। उन्होंने जो श्रद्धेय मिलारेपा के साथ किया था उससे तुलना की जिन्होंने अपने गुरु मरपा से कहा "मेरे पास तुम्हें भेंट देने के लिए कोई सम्पदा नहीं है, परन्तु उसके स्थान पर मैं अपना अभ्यास समर्पित करता हूँ।" उन्होंने आगे कहा, "हमने जो कुछ भी अब तक प्राप्त किया है उससे सन्तुष्ट नहीं होना चाहिए, पर दबाव बनाते रहना चाहिए। जैसा कि अंग्रेजी में कहते हैं 'सीमा आकाश है'।"
उन्होंने उल्लेख किया कि २०१२ से तिब्बती विद्यालयों ने शास्त्रार्थ सम्मिलित किया है और इसकी शिक्षा हेतु एक पुस्तिका तैयार की जा रही है। उन्होंने यह भी टिप्पणी की कि हाल ही में एमोरी विश्वविद्यालय में मसौदा प्रपत्र में तैयार धर्मनिरपेक्ष नैतिकता पाठ्यक्रम का प्रयोग पेतोन विद्यालय में किया जा रहा है। उन्होंने अपने भाषण का अंत इस कामना से किया कि परम पावन दलाई लामा दीर्घायु हों।
निर्वासित तिब्बतियों के जीवन के संदर्भ में आईबीडी सीएचटीएस की उपलब्धियों को रखते हुए परम पावन ने अपना वक्तव्य १९५९ में ल्हासा से उनके पलायन का स्मरण करते हुए किया।
"यह १७ मार्च का दिन था जब हमने ल्हासा से पलायन किया। मैंने रात १० बजे नोर्बुलिंगा छोड़ा। हमें चीनी चौकी से आगे निकलना था और जब हम निकले तो हम नहीं जानते थे कि हम आने वाला कल देख भी पाएँगे। पर जब तक हम चे-ला दर्रे के शीर्ष पर पहुँचे तो हमने अनुभव किया कि हम तत्कालिक संकट से बाहर थे। स्थानीय लोग हमारे लिए घोड़े लेकर आए थे। हम उन पर सवार हुए और पीछे मुड़ कर ल्हासा को एक अंतिम बार देखा। उसके बाद हम वहाँ से निकल गए।
"भारतीय मंत्रिमंडल के एक सदस्य ने बाद में मुझे बताया कि जब संसद को खबर मिली कि मैंने ल्हासा छोड़ दिया है तो तत्कालीन रक्षा मंत्री कृष्ण मेनन ने विचार व्यक्त किया कि चीन के साथ संबंधों को बिगाड़ने के भय से दलाई लामा को भारत में प्रवेश करने की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए। नेहरू ने प्रतिवाद किया कि ऐसा करना उचित नहीं होगा और कहा 'हमें उन्हें आने देना चाहिए।'
"एक बार जब हम ल्हुनचे ज़ोंग पहुँचे तो हम संकट से बाहर थे, पर फिर भी हम यह नहीं जानते थे कि हम भारत में प्रवेश करने में सक्षम होंगे अथवा नहीं। हमने निश्चय किया कि हम में से एक समूह भूटान सीमा और अन्य भारतीय सीमाओँ की ओर मुड़ेगें। जब हम भारत के और निकट पहुँचे तो हमें पता लगा कि भारतीय अधिकारी हमारी प्रतीक्षा कर रहे थे। हमने यह भी सुना कि ल्हासा को शांत किया जा रहा था। हमें इसका कुछ गुमान नहीं था कि हम भारत में दशकों तक रहेंगे, हमने सोचा था कि हम शीघ्र ही लौट जाएँगे। हम अजनबी थे, जिनके लिए यदि कोई निश्चितिता थी तो वह था ऊपर नभ और नीचे पृथ्वी। हमने अपने लोगों की सहायता की लिए भारत सरकार से अनुरोध किया।
"मैं अप्रैल १९५९ के अंत में मसूरी पहुँचा। उसके पश्चात शीघ्र ही नेहरू मुझसे मिलने आए। जब हम पहली बार १९५९ बीजिंग में मिले तब से हम एक दूसरे से परिचित थे। परन्तु जब मैंने जो उन्होंने कहा था उसकी विसंगतियों की ओर उनका ध्यानाकर्षित किया तो झुँझलाहट में उन्होंने ज़ोर से मेज़ पर हाथ दे मारा। हमने न केवल इस पर कि तिब्बती किस तरह अपनी जीविका कमाएँगे, पर साथ ही तिब्बतियों के लिए अलग आवास स्थान और अलग विद्यालय के संबंध में भी चर्चा की। नेहरू ने इस बात की व्यक्तिगत जिम्मेदारी ली कि ऐसा किया जाए। तब से हम तिब्बतियों ने जीवित रहने की आवश्यकता की भावना को जीवित रखा है।"
परम पावन ने समझाया कि प्रारंभ से ही तिब्बती शरणार्थियों को बहुत अधिक सहायता और समर्थन प्राप्त हुआ। उनकी भाषा और बौद्ध परम्परा जो नालंदा से आई थी वह अनूठी थी और शांतरक्षित तथा कमलशील के प्रयासों के कारण वह जीवित रही। नालंदा के बौद्ध आचार्यों के शास्त्रीय भारतीय ग्रंथ भोट भाषा में उपलब्ध थे जिसका कारण पुनः शांतरक्षित की दया भावना थी, जिन्होंने उनके अनुवाद की पहल की।
उन्होंने स्मरण किया कि १९७३ में जब वे यूरोप की अपनी पहली यात्रा पर निकलने वाले थे तो बीबीसी के मार्क टली ने उनसे पूछा कि वह क्यों जा रहे थे और उन्होंने उत्तर दिया था कि वह स्वयं को विश्व का नागरिक मानते थे। उन्होंने कहा कि वह विभिन्न लोगों और स्थानों के बारे में अधिक जानने में दिलचस्पी रखते हैं। देखा जाए तो तिब्बती सभी सत्वों के कल्याण के लिए प्रार्थना करते हैं। उन्होंने कहा कि उन्होंने कई मित्र बनाए और उन्होंने बहुत भौतिक विकास देखा था पर उस के बावजूद प्रत्येक व्यक्ति सुखी न था।
"जब मैं एक बच्चा था तो विज्ञान में रुचि रखता था," उन्होंने आगे कहा। "मेरे पास एक दूरबीन था जो कि १३वें दलाई लामा का था। उसके माध्यम से मैंने चाँद पर पहाड़ों की छाया देखी, जिससे मैंने यह निष्कर्ष निकाला कि चंद्रमा आत्म- प्रकाशित नहीं था। मैंने प्रथम बार हेनरिक हेरेर के साथ विज्ञान के बारे में बात की, परन्तु विगत ३० वर्षों से मैंने वैज्ञानिकों के साथ विचार-विमर्श बनाए रखा है। मुझे इस बात में रुचि थी कि वैज्ञानिकों का विश्व के बारे में क्या कहना था। मैं इसे केवल अपनी जिज्ञासा के संतोष तक रख सकता था, पर मैंने सोचा कि जो वे कहना चाहते हैं वह दूसरों की सहायता कर सकता है। यद्यपि वैज्ञानिकों ने अधिकतर ध्यान भौतिक विश्व की ओर दिया है, वे चित्त अथवा भावनाओं की व्यवस्था के विषय में बहुत कम जानते हैं - ऐसा क्षेत्र जिसके संबंध में प्राचीन भारतीय मनोविज्ञान के पास बताने के लिए बहुत कुछ है।
"हमारी तरह चीनी बौद्ध नालंदा परम्परा का पालन करते हैं पर वे तर्क और ज्ञान-मीमांसा का अध्ययन नहीं करते। जैसा हम तिब्बतियों के पास है उनके पास दिङ्नाग, धर्मकीर्ति और सक्या पंडिता की रचनाएँ उपलब्ध नहीं है। हम बौद्ध दर्शन का अध्ययन तर्क और कारण के साथ करते हैं। हमें चित्त और भावनाओं का भी ज्ञान है। यह कुछ ऐसा है जिसे हम दूसरों के साथ साझा कर सकते हैं। वैज्ञानिक इसमें रुचि रखते हैं और मैंने पाया है कि मेरे प्रशिक्षण ने मुझे इस तरह से लैस किया है कि इस तरह के विचार विमर्शों में मैं अपने विचारों पर खड़ा रह सकूँ।"
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एक प्रमुख मुद्दा जिसे परम पावन ने स्पष्ट किया है कि चित्त की शांति प्राप्त करने के लिए हमें अपने चित्त को काम में लाना होगा, न कि हम नशीली दवाओं अथवा शराब पर निर्भर रहें। उन्होंने कहा कि जिन परम्पराओं को तिब्बतियों ने १००० वर्षों या उससे भी अधिक समय से जीवित रखा है, वह केवल तिब्बतियों के लाभ के लिए नहीं है, अपितु अन्य लोगों के कल्याण का एक स्रोत हो सकता है। उन्होंने उल्लेख किया कि बौद्ध साहित्य को विज्ञान, दर्शन और धर्म में वर्गीकृत किया जा सकता है। धार्मिक भाग व्यक्तिगत रुचि का विषय है, परन्तु विज्ञान और दर्शन का अध्ययन शैक्षणिक विषयों के रूप में किए जा सकता है। अपने निजी आस्थाओं के बावजूद उनका अध्ययन कोई भी कर सकता है। उन्होंने कहा कि बौद्ध स्रोतों से ऐसे वैज्ञानिक और दार्शनिक सामग्री के कई संस्करण तैयार किए गए हैं जिनका अंग्रेजी, चीनी, जर्मन और अन्य भाषाओं में अनुवाद किया जा रहा है।
परम पावन ने कहा जिन्होंने शास्त्रीय ग्रंथों का अध्ययन किया है वे पूर्व अथवा आगामी जीवन का कोई संदर्भ न रखते हुए केवल इस जीवन के संदर्भ में अन्य लोगों के साथ जो वे जानते हैं उन्हें साझा कर सकते हैं।
"मैंने उपाध्यायों से इस संदेश को दूसरों तक पहुँचाने के लिए कहा है और जब मैं जुलाई में दक्षिण भारत में हूँगा तो हम इसकी आगे चर्चा करेंगे। इस ज्ञान को साझा करके हम दूसरों की सेवा कर सकते हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि सेरा जे में ऐसे भिक्षु हैं जिन्होंने अन्य भाषाएँ सीखी हैं। हमारे यहाँ भिक्षुणियाँ भी हैं जो गेशे मा बनने जा रही हैं। और लगभग ५० वर्ष पूर्व मैंने नमज्ञल के उपाध्यायों से कर्म कांडों से परे अपने अध्ययन का विस्तार करते हुए तर्क और कारण के माध्यम से बौद्ध दर्शन के अध्ययन को शामिल करने का आग्रह किया था। यह बुद्ध द्वारा अपने अनुयायियों को दी हुई सलाह के अनुसार है जिसमें उन्होंने कहा कि उन्होंने जो शिक्षा दी उसे उसी रूप में स्वीकार न करें पर उसकी जांच व परीक्षण करें जैसे एक स्वर्णकार सोने का परीक्षण करता है।
"हमें २१वीं सदी का बौद्ध होने की आवश्यकता है। हमें अध्ययन और समझने की आवश्यकता है। यदि हम ऐसा करें तो बौद्ध धर्म सदियों तक और चलेगा। इसे हम अपनी भाषा में कर सकते हैं, जो गर्व का विषय है। इसके अतिरिक्त साधारणतया तिब्बती ईमानदार, नैतिक और अच्छे व्यवहार वाले माने जाते हैं। चूँकि आईबीडी और सीएचटीएस तिब्बती संस्कृति के संरक्षण और बढ़ावा देने के लिए योगदान दे रहे हैं तो हमारी प्रगति करने की कोई सीमा नहीं है। मैं आप सबको बधाई देता हूँ जिन्होंने स्नातक की उपाधि प्राप्त की है।
"हम ३००० वैश्विक व्यवस्था के विषय में बात करते हैं पर यह इस विश्व के ७ अरब मनुष्य हैं जो हमारे भाई और बहनें हैं। मनुष्य के रूप में हममें एक अद्भुत बुद्धि है, पर हमें इसे रचनात्मक रूप से काम में लाना होगा। यहाँ हम सभी शांति में हैं, पर कहीं ओर, इस समय लोगों की हत्या हो रही है और अन्य भुखमरी से मर रहे हैं।"
परम पावन ने कहा कि कभी कभी जिस प्रकार हम अपनी बुद्धि का उपयोग करते हैं उससे हमारी नकारात्मक भावनाएँ बढ़ जाती हैं। बाघ और शेर के विपरीत जिनके नुकीले पंजे होते हैं, हम मनुष्यों की चिकनी गोल उंगलियाँ हैं, पर फिर भी हम दूसरों को भारी क्षति पहुँचा सकते हैं। उन्होंने कहा कि यदि हम विश्व में शांति चाहते हैं तो हमें भीतर शांति प्राप्त करने की आवश्यकता है। यदि हम क्रोध और भय से भरे हों तो हम विश्व शांति हासिल नहीं कर सकते। उन्होंने घोषणा की कि यदि हम वैश्विक विसैन्यीकरण देखना चाहेंगे तो हमें पहले आंतरिक निरस्त्रीकरण की आवश्यकता है।
"धर्मनिरपेक्ष विद्यालयों में चित्त तथा भावनाओं की शिक्षा दी जानी चाहिए। चित्त के कार्यों तथा भावनाओं की व्यवस्था को समझते हुए हम स्वस्थ, सुखी व्यक्तियों, परिवारों, समुदायों और समाजों का निर्माण कर सकते हैं। एमोरी विश्वविद्यालय ने हाल ही में धर्मनिरपेक्ष नैतिकता शिक्षा का एक मसौदा पाठ्यक्रम तैयार करने में सहायता की है। हम उस मसौदे के आधार पर गतिविधियों को विकसित करने का प्रयास कर रहे हैं।
"जैसा मैंने कहा, मैं उन्हें बधाई देता हूँ जिन्होंने आज स्नातक की उपाधि प्राप्त की है, पर यदि आपके चित्त अनुशासित नहीं हैं तो मात्र ज्ञान बहुत सहायक न होगा। हमें अपने आधारभूत दयालु प्रकृति का विस्तार करने के लिए अपनी बुद्धि के प्रयोग की जरूरत है। बच्चों की प्रकृति अच्छी होती है तथा दूसरों के प्रति उनका स्वभाव खुला होता है, पर जैसे जैसे वे बड़े होते हैं वे अपने तथा दूसरों के बीच के गौण अंतर पर अधिक ध्यान देने लगते हैं और उनकी आत्मकेन्द्रिता बढ़ती है। दूसरी ओर, चित्त प्रशिक्षण से हम ईमानदारी और प्रभावी ढंग से दूसरों की सहायता कर सकते हैं। यह विश्वास को जन्म देता है और विश्वास मैत्री का आधार है, जो एक मनुष्य के रूप में हम सभी के लिए आवश्यक है।"
गेशे जमपेल डगपा ने धन्यवाद के शब्द प्रस्तुत किए, अवसर के समापन के लिए 'धर्म के फलने फूलने की प्रार्थना' का पाठ किया गया और परम पावन ने अपने अपने निवास लौटने के लिए वहाँ से प्रस्थान किया।