थेगछेन छोलिंग, धर्मशाला, भारत, ९ जून २०१६ - परम पावन दलाई लामा ने आज प्रातः निर्धारित समय से विलंब से मंदिर पहुँचने पर क्षमा माँगी और बताया कि उनकी अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के कल्याण और संसदीय समिति के सदस्यों के साथ बैठक थी। उन्होंने टिप्पणी कीः
"मेरे मन में विश्व के सर्वाधिक जनसंख्या वाले लोकतांत्रिक देश के रूप में तथा अहिंसा के प्रबल गढ़ के रूप में भारत के प्रति अत्यधिक सम्मान की भावना है।"
तत्पश्चात नालंदा शिक्षा के सदस्यों ने हिंदी में 'नालंदा के १७ पंडितों की स्तुति' का पाठ किया। जब उन्होंने समाप्त किया तो परम पावन ने कहा:
"ये महान भारतीय आचार्य वास्तव में हमारे शिक्षक थे। मैं नागार्जुन, आर्यदेव इत्यादि के प्रति एक निकट के संबंध की अनुभूति करता हूँ। जब मैं उनकी रचनाओं को पढ़ता हूँ तो मैं उनके विषय में सोचता हूँ। वस्तुओं के प्रति हमारी आम सोच अवास्तविक है। नागार्जुन के स्पष्टीकरण हमें वास्तविकता को एक गहन स्तर पर देखने में सहायता करते हैं। हम तिब्बती अपने तिब्बती विद्वानों को श्रेय देते हैं पर ये नालंदा पंडित हमारी परम्परा के लिए महत्वपूर्ण थे। 'षड़ालंकार व श्रेष्ठ द्वय' के शीर्षक से जानी जाने वाली एक अस्तित्व रखने वाली स्तुति में ऐसे महत्वपूर्ण आचार्य जैसे चन्द्रकीर्ति, बुद्धपालित, शांतिदेव और विमुक्तिसेन का उल्लेख नहीं किया गया था। जब मैंने यह देखा तो मैंने '१७ नालंदा पंडितों की स्तुति' की रचना का निर्णय लिया।
"कई वर्ष पूर्व पहले महान भारतीय भौतिक विज्ञानी राजा रामण्णा ने मुझे बताया कि उन्होंने नागार्जुन की रचनाओं में से एक को पढ़ा था और वे यह देखकर भौंचक्के हो गए थे कि यह क्वांटम भौतिकी के आधुनिक दृष्टिकोण के साथ कितना मेल खाता है। उन्होंने मुझे बताया कि एक भारतीय होने के नाते वह कितने गर्व का अनुभव करते हैं कि नागार्जुन ने अपने चित्त के अतिरिक्त बिना किसी उपकरणों की सहायता के इस तरह के आधुनिक विकास को प्रत्याशित किया था।
"कुछ वर्ष पूर्व जब मैं अमरावती, जो नागार्जुनकोंडा के पास है, नागार्जुन के जीवन से जुड़े स्थानों पर नागार्जुन की 'मूल मध्यम कारिका' पढ़ा रहा था, मुझे लगा कि मुझे उनके प्रतीत्य समुत्पाद की असामान्य रूप से स्पष्ट विवरण की स्पष्ट समझ थी। वाराणसी में ६० के दशक में मैंने संस्कृत विद्वान जगन्नाथ उपाध्याय से चन्द्रकीर्ति के प्रसन्नपद का संस्कृत में पाठ करने के लिए कहा, जिसने मुझे अत्यंत अभिभूत किया। फिर, एक अन्य अवसर पर नालंदा में हमने भोट भाषा में अभिसमयालंकार का पाठ किया और मैंने स्पष्ट कल्पना की कि किस प्रकार वही ग्रंथ शताब्दियों पूर्व वहाँ संस्कृत पढ़ा गया होगा।"
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परम पावन ने आगे समझाया कि जहाँ बुद्ध अपने बुद्धत्व की प्राप्ति के लिए याद किए जाते हैं, वे उन्हें एक विचारक, दार्शनिक और यहाँ तक कि एक वैज्ञानिक के रूप में भी सोचना चाहेंगे। उन्होंने उल्लेख किया कि वे पाश्चात्य देशों में ऐसे लोगों से मिले हैं जो बौद्ध धर्म को एक धर्म के रूप में इतना अधिक नहीं अपितु चित्त के विज्ञान के रूप में वर्णित करते हैं। उन्होंने बुद्ध की दयालुता पर भी टिप्पणी की कि उन्होंने अपने श्रोताओं की आवश्यकता और क्षमता के अनुकूल शिक्षा दी। इसी कारण ऐसा प्रतीत होता है कि उन्होंने एक स्थान पर एक शिक्षा दी और कहीं और बिलकुल अलग। जैसा परम पावन ने कहा कि हम यह नहीं कह सकते हैं कि एक औषधि हर रोगी का उपचार कर सकेगी। एक उपाय एक रोगी के लिए उपयुक्त हो सकता है जबकि एक अलग किसी अन्य के लिए श्रेष्ठ हो सकता है।
एक थाई भिक्खु की उपस्थिति का अभिनन्दन करते हुए परम पावन ने कहा कि पालि परम्परा थाईलैंड, बर्मा, श्रीलंका इत्यादि में सम्यक रूप से सुरक्षित है। उन्होंने कहा कि इस बीच संस्कृत परम्परा जो चीन, कोरिया, जापान और वियतनाम पहुँची, अभी बची हुई है, परन्तु उन्होंने अपने भारतीय भाइयों और बहनों को विशुद्ध नालंदा परम्परा को जीवित रखने का उत्तरदायित्व लेने के लिए प्रोत्साहित किया।
'बोधिसत्वचर्यावतार' ग्रंथ के पाँचवे अध्याय सम्प्रजन्य रक्षण को खोलते हुए परम पावन ने सम्प्रजन्यता के महत्व को समझाया; एक बार बोधिचित्तोत्पाद के पश्चात हमारे चित्त का एक कोना हमारे आचरण पर ध्यान रखते हुए। यही हमें बोधिसत्व संवरों की सीमाओं का अतिक्रमण न करने का स्मरण दिलाता है। उन्होंने एक उदाहरण स्वरूप उल्लेख किया कि अपने स्वप्न में भी वह स्मरण रखते हैं कि वह एक भिक्षु हैं।
श्रोताओं के प्रश्नों के उत्तर देते हुए परम पावन ने यह स्मरण करने के लिए ध्यानाकर्षित किया कि मनुष्य के रूप में हम सब एक मानव परिवार के हैं। दुःख की बात है कि अधिकांश समय हम अपने बीच के गौण अंतर जैसे राष्ट्रीयता, धर्म, जाति, रंग इत्यादि पर केन्द्रित करते हैं। उन्होंने जोर देते हुए कहा कि जलवायु परिवर्तन जैसी समस्याएँ, जो हम सब को प्रभावित करती हैं, उन्हें उसी समय प्रभावी रूप से संबोधित किया जा सकता है जब हम स्वयं को वैश्विक नागरिक के रूप में सोचें।
उन्होंने सुझाव दिया कि यद्यपि कई समस्याएँ, जिनका विश्व को सामना करना पड़ रहा है उसके लिए २०वीं सदी की पीढ़ी उत्तरदायी है, पर यह उनका उत्तरदायित्व बनता है कि जो २१वीं सदी के हैं उन्हें अतीत से सीखने और एक अलग भविष्य को आकार करने के लिए प्रोत्साहित करें। उन्होंने किस तरह क्रोध से निपटा जाए उसके लिए अध्याय छह और किस प्रकार आत्मकेन्द्रितता से निपटा जाए उसके लिए अध्याय आठ का पठन सुझाया। उन्होंने कहा कि वह स्वयं भी यथासंभव उन का पुनारावलोकन करते हैं।
अध्याय पाँच की ओर लौटते हुए उन्होंने कहा:
"अच्छे गुणों को विकसित करने के लिए हमें अपने चित्त को प्रशिक्षित करना होगा। उसके लिए सीखने और विनम्रता की आवश्यकता होती है और साथ ही कोमल व्यवहार तथा दया की भी आवश्यकता होती है।
श्लोक १०८ अध्याय का सार स्पष्ट करता है ।
सम्प्रजन्य रक्षण के विशिष्ट लक्षण
संक्षेप में, केवल यही हैं:
पुनः पुनः परीक्षण
अपने काय व चित्त की अवस्था का।
"पुस्तक अपने साथ रखें और जब भी संभव हो इसे पढ़ें।"
उन्होंने सौहार्दता से आयोजकों को उनके अच्छे कार्य के लिए धन्यवाद दिया और दर्शकों में कइयों ने आने के लिए जो प्रयास किया था उसकी सराहना की।
अंत में श्रोताओं से बुद्ध के चारों ओर भारत और तिब्बत के आचार्यों, साथ ही अवलोकितेश्वर और तारा जैसे बोधिसत्वों की कल्पना करने के लिए आग्रह करते हुए उन्होंने उनसे हिंदी में एक छंद को को दोहराने के लिए कहा और उन्होंने बोधिचित्तोत्पाद के एक संक्षिप्त अनुष्ठान का नेतृत्व किया। उन्होंने उनसे कहा कि वे इसे एक प्रणिधान के रूप में समझें, मात्र कुछ सप्ताह या कुछ वर्षों के लिए नहीं, अपितु कल्पों के लिए और शांतिदेव का प्रसिद्ध श्लोक उद्धृत कियाः
जब तक हो अंतरिक्ष स्थित
और जब तक जीवित हों सत्व
तब तक मैं भी बना रहूँ
संसार के दुख दूर करने के लिए।