लेह, लद्दाख, जम्मू एवं कश्मीर, भारत, ७ अगस्त २०१६ - आज प्रातः परम पावन दलाई लामा ने अपने आवास से निकट पर स्थित ज़ंगदोग पलरी की यात्रा की। गुरु पद्मसंभव के दिव्य महल का प्रतिनिधित्व करता मंदिर, लेह घाटी का विहंगम दृश्य प्रस्तुत करते हुए, एक पहाड़ी के शिखर पर स्थित है। थोनमी संभोट, जिन्होंने १३७२ वर्ष पूर्व साहित्यिक तिब्बती का निर्माण किया था, के उत्सव के सम्मेलन के आयोजक हिमालय बौद्ध एसोसिएशन के प्रतिनिधियों ने परम पावन का स्वागत किया।
अपने संबोधन में परम पावन ने लद्दाख और तिब्बत के बीच ऐतिहासिक सांस्कृतिक और आध्यात्मिक संबंधों का उल्लेख किया और सम्मेलन के आयोजन की सराहना की।
"यद्यपि माना जाता है कि थोनमी संभोट ने तिब्बती भाषा और व्याकरण पर आठ ग्रंथों की रचना की, पर केवल दो जिनका संबंध व्याकरण से है, सुमचुपा और तगक्यी जुगपा जीवित हैं ", उन्होंने कहा। चाहे आप इसे भोटी अथवा तिब्बती कहें, यह लिखित भाषा महत्वपूर्ण है क्योंकि यह गहन बौद्ध संस्कृति जिसे हम साझा करते हैं, का संरक्षण करती है। आज के तर्कसंगत विश्व में मात्र भोट भाषा में उपलब्ध, दिङ्नाग और धर्मकीर्ति के प्रमाण विद्या के ग्रंथ वास्तविकता का विश्लेषण करने हेतु हमें उपकरण प्रदान करते हैं।
"हमें बौद्ध धर्म को केवल एक धर्म के रूप में ही नहीं अपितु ज्ञान और शिक्षा का एक स्रोत के रूप में भी समझना चाहिए। चित्त विज्ञान के रूप में यह हमें सिखाता है कि हमें क्रोध, ईर्ष्या और लालच जैसे क्लेशों के साथ किस तरह का व्यवहार करना चाहिए। यह चित्त की शांति ला सकता हैं जो कि व्यक्ति, उसके अपने परिवार और समुदाय, और व्यापक स्तर पर पर विश्व के हित में है। यदि प्रतीत्यसमुत्पाद, अन्योन्याश्रितता का विचार व्यापक रूप से समझा जाए तो हमारे मानव भाइयों और बहनों के बीच हिंसा के लिए कोई स्थान न होगा।"
परम पावन ने समझाया कि कांग्यूर और तेंग्यूर की सामग्री को विज्ञान, दर्शन और धर्म के साथ संबंधित कर वर्गीकृत किया जा सकता है। उन्होंने वैज्ञानिक और दार्शनिक सामग्री को और अधिक व्यापक रूप से उपलब्ध करने के लिए चल रही परियोजना का संदर्भ दिया। विज्ञान का एक संग्रह पहले से ही भोट भाषा में संकलित किया जा चुका है और उसका अंग्रेजी, चीनी, जापानी, हिंदी, जर्मन, मंगोलियाई, रूसी, और वियतनामी में अनुवाद किया जा रहा है।
"यह सम्मेलन केवल थोनमी संभोट का उत्सव नहीं," परम पावन ने समाप्त किया "अपितु, विद्यालय के बच्चों और उनके माता-पिता को उस भाषा के महत्व के विषय में बताने का अवसर है जिसमें कांग्यूर और तेंग्यूर लिखा गया है।"
एसओएस, टीसीवी चोगलमसर फुटबॉल मैदान में, लद्दाख के स्थानीय निर्वाचित मुख्य प्रतिनिधि साथ ही स्थानीय तिब्बती अधिकारियों और एसओएस टीसीवी चोगलमसर के निदेशक ने परम पावन की अगुवानी की। उनका पारम्परिक तिब्बती रूप से स्वागत किया गया। मंच पर, गदेन ठिपा रिज़ोंग रिनपोछे ने उनका अभिनन्दन किया। करीब ५००० तिब्बतियों को संबोधित करते हुए परम पावन ने हिम भूमि के लोगों के साझे अस्तित्व और उनकी अनूठी संस्कृति, भाषा और धर्म के संरक्षण के उनके प्रयासों की बात की। उन्होंने कहा कि जिस तरह चीनी लोगों की अपनी प्राचीन सांस्कृतिक धरोहर है जिस पर वे गौरव का अनुभव करते हैं, तिब्बती भी तिब्बती होने पर गर्व का अनुभव करते हैं और अपनी समृद्ध विरासत और अस्मिता की रक्षा करने का प्रयास करते हैं। "
दुर्भाग्यवश, कुछ कट्टरपंथी चीनी अधिकारी हमारी तिब्बती अस्मिता को चीन से तिब्बत को अलग करने के एक खतरे के रूप में देखते हैं। अतः उन्होंने हमारी तिब्बती संस्कृति और भाषा का उन्मूलन करने का प्रयास किया है। तिब्बतियों को विद्यालयों में चीनी भाषा सीखने के लिए मजबूर किया जाता है। चीनी ज्ञान के अभाव में तिब्बत में तिब्बती अच्छी नौकरी पाने में असमर्थ हैं।"
उन्होंने कहा कि ७वीं शताब्दी में, तिब्बती सम्राट सोङ्गचेन गमपो ने भोट भाषा के लिखित रूप बनाने के लिए थोनमी संभोट को अधिकृत किया। बाद में, सम्राट ठिसोंग देचेन चीन के स्थान पर भारत की ओर उन्मुख हुए और तिब्बत में बौद्ध धर्म की स्थापना के लिए नालंदा महापंडित शांतरक्षित को आमंत्रित किया। परिणामस्वरूप तिब्बती बौद्ध धर्म, जिसमें नालंदा परम्परा समाहित है, जांच के लिए एक तर्कसंगत वैज्ञानिक दृष्टिकोण अपनाता है। आज, कई लोग, जिनमें वैज्ञानिक और शिक्षित युवा भारतीय शामिल हैं, बौद्ध धर्म में रुचि दिखा रहे हैं और यह तिब्बती भाषा है जिसमें यह सबसे शुद्ध रूप में सम्प्रेषित होता है।
दर्शकों में लद्दाखियों की ओर उन्मुख होते हुए परम पावन बोले:
"नेहरू के समय से, भारत सरकार तिब्बती लोगों के प्रति अत्यंत दयालु और सहायक रही है। यहाँ लद्दाख में बकुला रिनपोछे और सोनम नोरबू ने तिब्बतियों और लद्दाखियों के बीच एक विशिष्ट मैत्री को पोषित किया। हम बहुत आभारी हैं कि हम यहाँ अपने विद्यालय और आवासों की स्थापना करने में सक्षम हो सके और मैं आपको धन्यवाद देना चाहूँगा। "
तिब्बतियों को तिब्बत के अंदर कोई स्वतंत्रता नहीं है, जहाँ तिब्बती संस्कृति और धर्म संकट में है। परन्तु भारत में, तिब्बतियों और साथ ही हिमालयी क्षेत्रों, लद्दाख से लेकर मोन तक के लोगों को अपनी बौद्ध परम्पराओं और उनसे संबंधित संस्कृति की रक्षा करने की स्वतंत्रता है।"
परम पावन ने समाप्त करते हुए कहाः
"तिब्बतियों के लिए एक समुदाय के रूप में एकजुट होना बहुत महत्वपूर्ण है। हम सभी को इस संबंध में प्रयास करना चाहिए। इतिहास हमारे प्रयासों को स्मरण करेगा अतः हमें निरंतर साहस के साथ अपने आपको पुनः समर्पित करना चाहिए तथा वर्तमान परिस्थितियों को अपनी क्षमता को सार्थक करने के एक अवसर के रूप में देखना चाहिए। हमारी तिब्बती संस्कृति शांति, अहिंसा और करुणा की संस्कृति है। यह इस तरह की संस्कृति है जिसकी आवश्यकता विश्व के सम्पूर्ण ७ अरब लोगों को है। इसलिए, मेरा मानना है कि हम तिब्बती हमारी अपनी परम्पराओं के आधार पर विश्व के लिए एक महत्वपूर्ण योगदान दे सकते हैं।"
कल परम पावन साबू और स्तोक की यात्रा करेंगे।