ल्यूरा, ब्लू माउंटेन, न्यू साउथ वेल्स, ऑस्ट्रेलिया, ६ जून २०१५ - परम पावन दलाई लामा पुनः आज प्रातः सभागार के मंच पर अकेले थे जब उन्होंने कल प्रारंभ किए गए वज्रभैरव अभिषेक को जारी रखने के लिए प्रारंभिक अनुष्ठान शुरू किया। अंततः सभागार धीरे धीरे लोगों से भरने लगा। भिक्षुणियों तथा भिक्षु सामने की पंक्तियों पर पहले बैठे, और उपासक बाद में आए जब तक कि लगभग ६०० लोगों ने अपना स्थान ग्रहण कर लिया था।
जब वह तैयार हो गए, तो परम पावन ने सिंहासन पर अपना आसन ग्रहण किया और 'प्रज्ञा पारमिता हृदय सूत्र' के सस्वर पाठ की घोषणा की।
"'हृदय सूत्र' 'प्रज्ञा पारमिता सूत्रों' में से एक है जिसकी देशना द्वितीय धर्म चक्र प्रवर्तन के दौरान दी गई थी। ये उन शिक्षाओं में है जो उन शिष्यों को दी गई थी जिनके विशुद्ध कर्मों के कारण उन्हें अन्य स्तरों के सत्वों का बोध था। यह शारिपुत्र तथा एक दिव्य बोधिसत्व, अवलोकितेश्वर के बीच हुए एक संवाद का वर्णन करता है।
"'प्रज्ञा पारमिता सूत्रों' के कई संस्करण हैं जिनमें १००,००० पंक्तियाँ, २५,००० पंक्तियाँ, ८००० पंक्तियाँ, १५० पंक्तियों वाला, जो वज्रच्छेदिका सूत्र के नाम से जाना जाता है और यह २५ पंक्तियों का 'प्रज्ञा हृदय' शामिल है। प्रज्ञा पारमिता की सबसे संक्षिप्त अभिव्यक्ति 'अ' अक्षर है, जो संकेत करता है कि वस्तुएँ जिस रूप में दृश्यमान हैं, उस रूप में अस्तित्व नहीं रखतीं। वे स्वतंत्र रूप में अस्तित्व लिए जान पड़ती हैं, पर अक्षर 'अ' किसी ऐसे वस्तुनिष्ठ अस्तित्व के नकारात्मक रूप का प्रतिनिधित्व करता है। और यह एक गैर - पुष्टि की नकारात्मकता है जिसका अर्थ है कि कुछ और निहित नहीं है, जो यह कहना भी नहीं है कि कुछ भी नहीं है।
"ऐसा प्रतीत होता है कि 'प्रज्ञा पारमिता सूत्रों' के चीनी अनुवाद हैं जो हमारे पास तिब्बती में नहीं है। वास्तव में जहाँ तक बुद्ध के अनूदित वचनों के संग्रह का संबंध है, चीनी संग्रह में अधिक ग्रंथ हैं। पर जब परवर्ती भारतीय विद्वानों द्वारा अनुवादित ग्रंथों के संग्रह की बात आती है तो तिब्बती संग्रह में संख्या अधिक है। इस बीच कुछ ग्रंथ ऐसे भी हैं जो मात्र पालि में उपलब्ध हैं। अच्छा यह होगा यदि ऐसे ग्रंथ जो इस या उस संग्रह में नहीं हैं, उनको बेहतर रूप से प्राप्त कराया जा सके।"
परम पावन ने समझाया कि 'प्रज्ञा पारमिता सूत्रों' का स्पष्ट विषय शून्यता को समझने वाली प्रज्ञा है, जबकि निहितार्थ विषय है कि किस प्रकार मार्ग पर प्रगति की जा सके। बुद्ध ने भविष्यवाणी की थी कि नागार्जुन स्पष्ट विषय पर टिप्पणी करेंगे। मैत्रेय ने अपने 'अभिसमयालंकार' में निहितार्थ को स्पष्ट किया जिसके संस्कृत और तिब्बती में कई भाष्य हैं।
नागार्जुन के ग्रंथ समझाते हैं कि सम्यक दृष्टि के विकास से हम किस प्रकार अपनी भ्रांत दृष्टि पर काबू पा सकते हैं जिसमें तथता और प्रतीत्य समुत्पाद की अनुभूति शामिल है। परम पावन ने टिप्पणी की कि बौद्ध धर्म का प्रमुख दृष्टिकोण प्रतीत्य समुत्पाद है जबकि आचरण अहिंसा है। जहाँ यह आम रूप से स्वीकार्य है कि प्रभाव अपने हेतुओं पर आधारित है, प्रतीत्य समुत्पाद की एक सूक्ष्म व्याख्या है कि हेतु भी अपने प्रभाव पर आश्रित है।
यह स्मरण करके हुए कि जे चोंखापा तिब्बत में मंजुश्री के तीन प्रकट रूपों में से एक थे जबकि अन्य साक्य पंडित और लोंगछेन रबजम्पा थे, परम पावन ने उनकी अपने आध्यात्मिक शिक्षा 'परिपूरित भाग्य' का संदर्भ दिया जिसमें वे कहते हैं ः
मैंने स्वयं को मार्ग से परिचित कराने हेतु
साधारण मार्ग और दो चरणों वाले विशेष मार्ग के लिए प्रशिक्षित किया
दो महायान परम्परा
उनका अर्थ था कि उन्होंने पारमितायान और वज्रयान में प्रशिक्षण ग्रहण किया जो सूक्ष्म चित्त की प्रभास्वरता के माध्यम से बुद्धत्व और बुद्ध के चार कायों की प्राप्ति की क्षमता रखता है।
इस का संदर्भ सक्य अपनी शिक्षाओं में संसार और निर्वाण की अवियोज्यता पर देते हैं । ञिङमा ज़ोगछेन, महानिष्पत्ति में और कर्ग्यू महामुद्रा में इसका उल्लेख करते हैं। जिस रूप में वे उस पर ध्यान करते हैं, उनमें अंतर है, पर सभी में चित्त की प्रभास्वरता शामिल है।
परम पावन ने चतुःप्रतिशरण की ओर ध्यानाकर्षित किया जो बौद्ध परीक्षण का मार्गदर्शक है ः व्यक्ति पर नहीं पर उनके धर्म के शरण हों, शब्दों पर नहीं पर उनके अर्थ के प्रतिशरण हों, नेयार्थ पर नहीं अपितु नीतार्थ के प्रतिशरण हों, और मात्र विज्ञान प्रमाण पर नहीं पर ज्ञान पर निर्भर हों।
और यह स्मरण कराते हुए कि शिष्यों से कहा गया था कि वे अपने स्वप्नों के प्रति सजगता रखें, परम पावन ने अभिषेक की प्रक्रिया पुनः प्रारंभ की। एक और प्रारंभिक के रूप में उन्होंने उपासकों को संवर देने और बोधिचित्तोत्पाद का एक छोटा अनुष्ठान किया। उन्होंने कहा कि बौद्ध संवर लेने का आधार त्रिरत्न बुद्ध, गुरु, धर्म, सच्चा मार्ग और संघ जो मार्ग में हमारे साथी हैं, में शरण गमन है। उन्होंने परोपकार को सर्वोत्तम व्यवहार कहा जो आत्म- पोषण स्वभाव का प्रतिकारक है तथा हमारे शारीरिक और चैतसिक स्वास्थ्य को सुनिश्चित करता है।
सभागार में मध्याह्न भोजन के पश्चात लौटने पर परम पावन ने स्पष्ट किया कि वज्रयान का अभ्यास गुह्य रूप से किया जाता है। उन्होंने कहा:
प्रज्ञा पारमिता की शिक्षाएँ सार्वजनिक रूप से नहीं दी गईं थीं और तंत्र तो और भी अधिक चुने शिष्यों को सिखाया गया था। गोपनीयता का संबंध शिष्यों के विभिन्न मानसिक अभिरुचि से है। उदाहरण के लिए, बोधिचित्त विकास करने के दो उपाय हैं, एक तो सात हेतु फल की विधि और दूसरा परात्मसमता और परात्मसमपरिवर्तन की विधि। इन दोनों में दूसरे को गुह्य कहा जाता है, इसलिए नहीं कि वहाँ छिपाने के लिए कुछ है, पर इसलिए कि यह हर किसी के लिए उपयुक्त नहीं है।"
वास्तविक अभिषेक प्रारंभ करने के पूर्व उन्होंने बोधिसत्व तथा तांत्रिक संवर दिए। अंत में उन्होंने घोषणा की कि कल वह गुह्यसमाज के पाँच चरणों और वज्रभैरव के छह योगों की व्याख्या प्रारंभ करेंगे।