बाइलाकुप्पे, कर्नाटक, भारत - १६ दिसंबर २०१५ - आज प्रातः माइंड एंड लाइफ बैठक के प्रारंभ होने से पूर्व परम पावन दलाई लामा ने ७२ वरिष्ठ सेरा भिक्षुओं से भेंट की, जो कि उनमें से थे जो पहले पहल १९५९ में तिब्बत से बच निकले थे। उनमें से कइयों का अलग अलग अभिनन्दन करते और उन्हें छेड़ते हुए परम पावन ने समूह को सम्बोधित किया।
"जब हम पहली बार असम में मिसामारी में आए थे तो हम नहीं जानते थे कि क्या करना है। हमारा विश्वास था कि हमारे उद्देश्य की सच्चाई की विजय होगी। पर मिसामारी का स्थान एकाकी था, जगह गर्म थी और खाना भी पौष्टिक न था। आपमें से कई भिक्षु बीमार पड़ गए। हमने किसी दूसरे स्थान पर जाने के विषय में सोचा, परन्तु उपाध्यायों का मत था कि यदि वे बिखर गए तो कई भिक्षु अपना चीवर त्याग देंगे, अतः जहाँ वे थे वहाँ एक साथ रहना बेहतर था। अंततः हम आवासों की स्थापना के लिए एक योजना साकार करने में सक्षम हुए और आप दक्षिण भारत में एक साथ आने में सक्षम हुए।
"आप भिक्षुओं ने उस कठिन समय में हमारी परम्परा को बनाए रखने के लिए कठोर परिश्रम किया, आपका मुझ पर विश्वास था और मैं आपको धन्यवाद देता हूँ। जैसा कि चीनियों ने पाया है कि वे हमारी धार्मिक संस्कृति को निर्मूल नहीं कर सकते, वे हमारे समर्पण को अलगाववाद के आग्रह की अभिव्यक्ति के रूप में व्याख्यायित करने के लिए मजबूर हुए है। परन्तु हम एक अहिंसक मार्ग का अनुसरण कर रहे हैं, हम एकजुट हैं और समर्पण नहीं करेंगे।
"अतीत में, मंगोलिया और चीन से भिक्षु हमारे महाविहारों में आते थे। अब लोग हमारे साथ शामिल होने के लिए ऐसे स्थानों से आ रहे हैं, जो परम्परागत रूप से बौद्ध नहीं हैं, जिनमें वैज्ञानिक भी हैं। हमने तिब्बती इतिहास में उतार-चढ़ाव देखा है, पर फिर भी अतीत में हमारे महान धार्मिक राजाओं के समर्पण के कारण हम एक साथ हैं। आजकल लोग दीर्घायु समर्पण कर रहे हैं पर वह समय आएगा जब हमें जाना होगा। आपके लिए भी ऐसा ही है और जब समय आएगा तो आपने जो बुद्ध की शिक्षाएँ सीखी हैं और अभ्यास किया है वह महत्वपूर्ण होगा।
"मैं आप में से प्रत्येक को बुद्ध की एक प्रतिमा दे रहा हूँ। अपने कमरे में रखें तथा नागार्जुन की बुद्ध वंदना का पाठ करें जैसा मैं करता हूँ।"
आज, माइंड एंड लाइफ बैठकों का विषय आत्म था। पहली प्रस्तुति ख्याति प्राप्त विद्वान गेशे येशे थबखे द्वारा दी गई, जो सारनाथ में केंद्रीय तिब्बती अध्ययन विश्वविद्यालय में प्रोफेसर हैं। यहीं पर जॉन डन, जो प्रातःकालीन सत्र के संचालक थे, और प्रातः सत्र के अन्य प्रस्तुतकर्ता जे गारफील्ड ने उनके साथ अध्ययन किया था।
गेशे येशे थबखे ने समझाया कि बुद्ध के समय में भारत में रूढ़िवादी स्थिति यह थी कि हर किसी में एक अपरिवर्तनशील, बिना भाग की एक आत्मा है जो चित्त व शरीर से अलग है। ऐसा विश्वास था कि यही पुनर्जन्म लेती है। बौद्ध की नैरात्म्य धारणा ने इस दृष्टिकोण को अस्वीकार कर दिया। बुद्ध ने शिक्षा दी कि कुछ भी नित्य नहीं है, न ही इसका कोई सार होता है। अन्य वस्तुओं के समान लोग भी अनित्य हैं, निरंतर परिवर्तनशील और अंगों से मिलकर बने हैं। उनका अस्तित्व कारण तथा परिस्थितियों पर निर्भर, उनके अंगों पर निर्भर और चैतसिक ज्ञापित रूप में होता है। इस विचार ने आत्मा के रूढ़िवादी दृष्टिकोण को नकार दिया, परन्तु एक सांवृतिक, प्रकार्य युक्त, तथा अनुभवजन्य आत्मा के अस्तित्व को नहीं नकारा, जो कि एक प्रतीत्य समुत्पादित धर्म था।
गेशे-ला ने समझाया कि किस तरह बौद्ध परीक्षण चार प्रतिशरणों द्वारा निर्देशित होते हैं, व्यक्ति के रूप में किसी शिक्षक पर नहीं पर उनके शब्दों पर, वह जिन शब्दों को बोलता है उस पर नहीं पर उसके अर्थ पर, सांवृतिक अर्थ पर नहीं पर उनके परम अर्थ पर, और न केवल ऐन्द्रिक प्रमाण पर ही निर्भर नहीं परन्तु चित्त पर। उन्होंने शिक्षा के बौद्ध दृष्टिकोण का भी संकेत दिया, जो विश्वास और अंतर्दृष्टि तक पहुँचने के लिए पढ़ने (पठन) या सुनने (श्रवण), चिंतन और भावना का प्रयोग करता है।
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बौद्ध चिंतन की व्यापक प्रणाली में पुद्गल की पहचान के विभिन्न उपाय हैं। कुछ चित्त तथा काय की आत्मा के रूप में पहचान करते हैं। अन्य बल देते हैं कि पुद्गल आधारभूत चित्त है। माध्यमिक का दृष्टिकोण है कि सब कुछ अनित्य, प्रतीत्य समुत्पादित है जो कि परम रूप से स्वभाव सत्ता से शून्य है और मात्र सांवृतिक रूप से वास्तविक है। इस परम्परा में प्रासंगिक कहते हैं कि यद्यपि काय और चित्त आत्मा नहीं है पर वे आधार हैं जिस पर यह ज्ञापित है। गेशे-ला ने रथ के शास्त्रीय उदाहरण का संकेत दिया जिसका उपयोग करने में हम सक्षम हैं, पर जो विश्लेषण करने पर नहीं मिलता। यह अपने अंग के ज्ञापित रूप के आधार पर अस्तित्व रखता है।
जे गारफील्ड ने एक अलग दृष्टिकोण लिया। उन्होंने आत्मा तथा पुद्गल के संबंध में पाश्चात्य और बौद्ध दर्शन के चिंतन और उन्हें क्या प्रेरित करती है, का वर्णन किया। उन्होंने चर्चा की, कि हम किस प्रकार आत्मा के विषय में सोच सकते हैं जो एक क्षण में अस्तित्व रखती है और आत्मा जो समय के साथ अस्तित्व रखती है। तथा बौद्ध प्रारूप का पालन करते हुए उन्होंने एक सावृतिक पुद्गल जिसको स्वीकार किया जाता है और स्वभाव सत्ता वाली आत्मा जिसको नकारा जाता है, के बीच अंतर किया।
मध्याह्न में मनोवैज्ञानिक वसुदेवी रेड्डी, जिन्होंने शिशुओं के साथ व्यापक कार्य किया है, ने आत्म के प्रारंभ की चर्चा की। उन्होंने पूछा, आत्म क्या है? वह कब उभरता है? और कैसे उभरता है? उन्होंने कहा कि इसमें कोई संदेह नहीं है कि एक शिशु के आत्म की सीमाएँ धुँधली होती हैं परन्तु फिर भी उसे जोड़नेवाला एक प्रभावी तत्व होता है। उनका अवलोकन यह है कि यह जल्दी उभरना प्रारंभ होता है। और इस संबंध में कि यह कैसे उभरता है, यह दूसरों से संबंध जोड़कर, आमतौर पर मां को लेकर होता है। शिशु के लिए किसी की ओर देखना, किसी का स्पर्श और किसी से बात करना महत्वपूर्ण है। एक संकेत कि आत्म कार्यरत है, शिशु का खिलवाड़ है, ऐसा गुण जो वह परम पावन में देखती हैं। सीमाओं के निर्माण करने की और फिर खिलवाड़ के लिए उन्हें तोड़ने की एक प्रवृत्ति।
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इस प्रश्न के उत्तर में, बच्चों की क्या आवश्यकताएँ हैं, रेड्डी ने उत्तर दिया: खुलापन, प्रतिक्रिया और पहचान। यह भी महत्वपूर्ण है कि शिशु उस पहचान को पहचाने। उन्होंने कई आकर्षक वीडियो क्लिप दिखाए जिसने स्पष्ट किया कि नवजात शिशु चेहरों और मानव आवाज में रुचि रखते हैं। वे जुड़ने में रुचि रखते हैं। मुस्कुराना एक ऐसा तरीका है जिससे मनुष्य यह करते हैं। यह बहुत अर्थ रखती है यदि मां उदास या व्यथित है और उस तरह सकारात्मक रूप में प्रतिक्रिया नहीं देती। उन्होंने शिशुओं के खिलवाड़ का पुनः उल्लेख किया और यह कि वे चंचल नहीं हो सकते जब तक कि उनके साथ खिलवाड़ करने वाला कोई अन्य न हो। जुड़ाव महत्वपूर्ण है और वैसा ही आश्चर्य का तत्व भी। खिलवाड़ कम उम्र में भी, हास्य तक जा सकता है।
रेड्डी ने शिशुओं के साथ संबंध बनाने में अन्य व्यक्ति के सम्मानयुक्त, स्नेहभरे पहचान के महत्व का उल्लेख किया। इसका शिशुओं के साथ जुड़ने में एक संबंध है और साथ ही संघर्ष को सुलझाने में भी प्रभावी है। दोनों स्थितियों में सम्मान की आवश्यकता होती है।
परम पावन द्वारा एक प्रश्न को यह कहते हुए परे रखने पर कि उसका उत्तर देने के लिए उन्हें कुछ बच्चे पैदा करने होंगे, जिसको सुन सब हँस पड़े, इसके पश्चात हुई चर्चा में रिची डेविडसन ने उनसे कुछ और पूछा। उन्होंने कहा कि वह जानते हैं कि परम पावन माता पिता नहीं थे, पर सभी भिक्षु उनके बच्चे हैं। वे जानना चाहते थे कि क्या परम पावन की अपने बाल्यकाल से आत्म की भावना के जन्म लेने की कोई अंतर्दृष्टि थी।
"मैं सदा कहता हूँ कि मेरी माँ बहुत दयालु थी," परम पावन ने उत्तर दिया। "जब मैं उनके बच्चों में सबसे छोटा था तो वह मुझ पर सबसे अधिक ध्यान देती थी। मेरी माँ की दया भावना मेरे लिए महत्वपूर्ण और प्रभावी थी।उनका एक असाधारण तरह का दया से भरा चेहरा था और उनकी उपस्थिति में मैं सुरक्षित अनुभव करता था। माइंड एंड लाइफ के एक प्रारंभिक सदस्य, बॉब लिविंगस्टोन ने अपने सुझाव के साथ मुझे प्रभावित किया, कि एक मां का शारीरिक स्पर्श एक बच्चे के मस्तिष्क के समुचित विकास के लिए महत्वपूर्ण है। मैंने सहजता से अनुभव किया कि यह सत्य था।"
माइंड एंड लाइफ बैठकें कल समाप्त होंगी।